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अराजकता कैसे जायज है ? - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

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अराजकता कैसे जायज है ?


    अब तक जो कुछ कहा गया है, उससे दो बातें अवश्य स्पष्ट हो गई होंगी, जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। पहली, स्पृश्यों और अस्पृश्यों के बीच अकाट्य भेद और दूसरी, इन दोनों के बीच एक-दूसरे के प्रति गंभीर रूप से प्रतिकूल होने की भावना ।

    हर गांव में दो हिस्से होते हैं, स्पृश्यों के घर और अस्पृश्यों के घर । भौगोलिक दृष्टि से ये बिल्कुल अलग होते हैं। दोनों के बीच में काफी दूरी होती है । किसी भी दशा में दोनों प्रकार के घर अगल-बगल नहीं होते और न ये पास ही होते हैं। अस्पृश्यों के घर उनकी जाति के नाम से जाने जाते हैं, जैसे महारवाड़ा, मांगवाड़ा, चमरोटी, खाटिकाना आदि । राजस्व खातों और डाकखानों में अस्पृश्यों के घर कानूनन गांव का हिस्सा माने जाते हैं, लेकिन हकीकत में गांव से अलग होते हैं। गांव में रहने वाला हिंदू जब गांव का जिक्र करता है तो उसका आशय उसमें सवर्ण हिंदू निवासियों को शामिल करना होता है, जो स्थानीय रूप से वहां रहते हैं। इसी तरह जब कोई अस्पृश्य गांव की बात करता है तो उसका आशय उस गांव में से अस्पृश्यों और उनके घरों से रहित गांव से होता है। यह जरूरी नहीं कि इन दोनों को मिलाकर ही गांव बने। इस तरह हर गांव में स्पृश्य और अस्पृश्य नाम से अलग-अलग समूह होते हैं। दोनों के बीच कोई समानता नहीं होती। यह पहली बात है, जो ध्यान में रखी जानी चाहिए।


इस निबंध के मूल अंग्रेजी पाठ की प्रति श्री एस. एस. रेगे से प्राप्त हुई है। चूंकि इसका शीर्षक पिछले अध्याय के समानुरूप है और इसकी विषय-वस्तु उक्त अध्याय के क्रम में जान पड़ती है, इसलिए इसे यहां संकलित किया गया है - संपादक


How is anarchy justified - dr Bhimrao Ramji Ambedkar

    गांव में इस प्रकार के विभाजन के बारे में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि ये समूह स्वयं में अलग-अलग एक इकाई होते हैं और कोई भी एक-दूसरे को अपने में शामिल नहीं करता। यह ठीक ही कहा गया है कि अमरीका या यूरोप में रहने वाला व्यक्ति विभिन्न प्रकार के समूहों का होता है और वह इनमें से अधिकांश का सदस्य बनता है। वह निश्चय ही किसी एक परिवार में जन्म लेता है, लेकिन वह उस परिवार में सारी जिंदगी रहने के बजाय, जब तक चाहे तभी तक उस परिवार में रहता है। वह कोई भी व्यवसाय या कोई भी निवास स्थान चुन सकता है, किसी के भी साथ विवाह कर सकता है, किसी भी राजनीतिक दल में शामिल हो सकता है और वह किसी दूसरे के द्वारा किए गए कार्य के बजाय केवल अपने कार्यों के प्रति उत्तरदायी होता है । वह पूर्ण अर्थ में एक व्यक्ति होता है, क्योंकि उसके सभी संबंध और सभी कार्य उसी के द्वारा  अपने लिए निर्धारित होते हैं। लेकिन स्पृश्य या अस्पृश्य व्यक्ति किसी भी अर्थ में 'व्यक्ति' नहीं होता क्योंकि उसके सभी या लगभग सभी संबंध तभी निश्चित हो जाते हैं, जब उसका जन्म किसी वर्ग विशेष में हो जाता है। उसका व्यवसाय, उसका निवास, उसके देवी-देवता, उसकी राजनीति आदि सभी कुछ उस वर्ग द्वारा उसके लिए निश्चित हो जाते हैं, जिसमें उसका जन्म हो गया होता है। ये स्पृश्य और अस्पृश्य व्यक्ति एक-दूसरे से जब मिलते हैं, तो इस तरह नहीं मिलते, जैसे एक इंसान दूसरे इंसान से मिल रहा होता है, बल्कि वे ऐसे मिलते है, जैसे एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय से या दो विभिन्न राष्ट्रों के व्यक्ति आपस में मिल रहे हों।

    इस तथ्य का गांवों में स्पृश्यों और अस्पृश्यों के आपसी संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह संबंध उन्हीं संबंधों के सदृश होता है, जैसे आदिम काल में दो विभिन्न कबीलों के बीच होते थे। आदि समाज में एक कबीले के व्यक्ति यह दावा करते थे कि वही हर चीज के अधिकारी हैं, और बाहरी व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता। एक मेहमान की तरह बाहरी व्यक्ति के ऊपर कृपा तो की जा सकती है, लेकिन वह अपने कबीले के अलावा किसी दूसरे कबीले में न्याय की मांग नहीं कर सकता । एक कबीले के साथ दूसरे कबीले के संबंध युद्ध या मैत्री के संबंध समझे जाते थे, न कि किसी कानून के संबंध। और जो व्यक्ति किसी कबीले का नहीं होता था, वह 'बाहरी' समझा जाता था असलियत में और नाम से भी। इसलिए बाहरी व्यक्तियों के विरुद्ध कानून की अनदेखी कर व्यवहार करना कानून में जायज था। चूंकि अस्पृश्य व्यक्ति स्पृश्यों के वर्ग का सदस्य नहीं है, इसलिए वह बाहरी व्यक्ति है। उससे उनका कोई संबंध नहीं है। वह कानून के लाभ से बहिष्कृत व्यक्ति है। वह न्याय के लिए कोई दावा नहीं कर सकता है । वह किसी प्रकार के अधिकार की मांग नहीं कर सकता, जिसे मानना प्रत्येक स्पृश्य व्यक्ति के लिए अनिवार्य है।

    तीसरी बात जो ध्यान में रखनी है, वह यह है कि स्पृश्यों और अस्पृश्यों के बीच आपसी संबंध निश्चित होते हैं। यह हैसियत का सवाल बन गया है। अस्पृश्यों को निश्चत रूप से स्पृश्यों के मुकाबले हीन स्थिति में रखा गया है। यह हीनता सामाजिक आचार-विचार संहिता में वर्णित है, जो अस्पृश्यों को अनिवार्यतः स्वीकार करनी चाहिए। और आचार-विचार संहिता कैसी है, वह बताया जा चुका है। अस्पृश्य इस संहिता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। यह मानने के लिए तैयार नहीं कि जिसके पास लाठी भैंस भी उसी की है। अस्पृश्य चाहते हैं कि अस्पृश्यों के साथ उनके संबंध किसी सहमति पर आधारित हों। लेकिन स्पृश्य चाहते हैं कि अस्पृश्य समाज में अपनी हैसियत के नियमों के अनुसार जीवन-यापन करें और उससे ऊपर न उठें। इस तरह गांव के दो वर्ग, अर्थात् स्पृश्य और अस्पृश्य उस व्यवस्था को पुनः व्यवस्थित करने के लिए संघर्षरत् हैं, जिसे स्पृश्य समझते हैं। कि यह हमेशा के लिए निर्णीत हो चुकी है। यह संघर्ष इस प्रश्न को लेकर है कि इस संबंध का आधार क्या हो? क्या उसका आधार कोई समझौता हो या उसका आधार हैसियल को माना जाए।

    इससे कुछ बड़े रोचक प्रश्न पैदा होते हैं। अस्पृश्यों को निम्नतम जातियों का और निम्न दर्जा क्यों दिया गया ? हिंदुओं में उनके प्रति इतना विरोध और अनादर का भाव कैसे पैदा हो गया? हिंदू लोग अस्पृश्यों का दमन करने में मनमाना आचरण क्यों करते हैं, मानो उनका यह आचरण कानून सम्मत हो ।

    इन सवालों का सटीक उत्तर पाने के लिए हमें हिंदुओं के विधि-विधान पर विचार करना होगा। हिंदू विधान के नियमों की पर्याप्त जानकारी के बिना इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर मिलना असंभव है। हमें अपने प्रयोजन के लिए समस्त हिंदू कानून और उसकी प्रत्येक शाखा को ध्यान में रखना आवश्यक नहीं। हिंदू कानून की उस शाखा का ज्ञान होना ही यथेष्ट है, जिसे वैयक्तिक विधि या जिसे अगर गैर-तकनीकी भाषा में कहा जाए तो हम हिंदू कानून का वह भाग कहते हैं, जो हैसियत, अधिकार, कर्तव्य या सामर्थ्य में अंतर से संबंधित है।

    इसलिए यहां हिंदू कानून के नियमों की तालिका प्रस्तुत करने का विचार है, जो वैयक्तिक कानून से संबंधित है। ये नियम मनु याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु, कात्यायन आदि की स्मृतियों आदि से संकलित किए गए हैं। ये कुछ ऐसे प्रमुख विधि-निर्माता हैं, जिन्हें हिंदू विधि के निर्माण के क्षेत्र में प्रमाण स्वरूप मानते हैं। इन नियमों का यथावत उल्लेख चाहे कितना ही रोचक क्यों न हो, लेकिन इससे उस व्यक्ति को कुछ भी सहायता नहीं मिलेगी जो इनको हिंदुओं के वैयक्तिक कानून की बुनियादी जानकारी के लिए उलटता - पुलटता है। इस प्रयोजन के लिए इनको उद्धत करना यथेष्ट नहीं है। स्पष्टत: कुछ क्रम निश्चित करना आवश्यक है, इसलिए उन्हें कुछ शीर्षकों में बांटा गया है। यह सारी सामग्री संक्षिप्त कर दी गई है, जो खंडों में विभक्त है और प्रत्येक विशिष्ट विषय के अनुसार है ।



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