हिंदू अस्पृश्यों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे अस्पृश्यों का जन्म हिंदुओं की सेवा करने के लिए हुआ है। चूंकि अस्पृश्यों का कर्तव्य सेवा करना है, इसलिए जब कभी कोई हिंदू किसी अस्पृश्य को सेवार्थ बुलाए तब वह उस हिंदू की सेवा करने से इंकार नहीं कर सकता। गांव में हिंदुओं की यह धारणा है कवे अस्पृश्यों के श्रम का मनमाना उपयोग कर सकते हैं। इस व्यवस्था को बेगार या जबरन मजदूरी कहा जाता है। अगर अस्पृश्य इस व्यवस्था को स्वीकार करने से इंकार करता है, तब इसके गंभीर परिणाम होते हैं, जो निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा।
दिसम्बर 1938 के 'जीवन' में निम्नलिखित घटनाएं छपी हैं:
"उन्नतीस नवंबर 1938 को मथुरा जिले के कोहाना गांव के जाटवों को वहां के जाटों और ब्राह्मणों ने बुरी तरह सताया, क्योंकि उन्होंने बेगार करने से इंकार कर दिया।
इस गांव के ठाकुर और ब्राह्मण जाटवों से बेगार कराते थे और उन्हें परेशान करते थे। जाटवों ने बेगार न करने का फैसला किया और केवल वही काम करने के लिए कहा, जिसकी उन्हें मजदूरी मिलेगी। हाल ही में गांव में एक बैल मर गया। ठाकुर और सवर्ण जाति के दूसरे हिंदुओं ने जाटवों पर दबाव डाला कि वे उसे उठाएं, लेकिन उन्होंने कहा कि वे उसे तभी उठाएंगे, जब उन्हें इसकी मजदूरी दी जाएगी। इससे हिंदुओं का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने एक भंगी से कहा कि वह जाटवों के कुएं में पाखाना डाल दे, और जाटवों से कहा कि वे शौच आदि के लिए उनके खेतों में नहीं जा सकते। उनहोंने यह तय कर लिया कि वे उन्हें हर तरह से सताएंगे।
जब जाटवों ने भंगी को अपने कुएं में पाखाना डालने से रोका तो उसने जाटों, ठाकुरों और ब्राह्मणों को बुला लिया, जो हमला करने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। वे लाठी लेकर उन पर टूट पड़े और उनको खूब मारा-पीटा और उन्होंने उनके घरों को आग भी लगा दी। इससे छह घर जलकर राख हो गए और अठारह जाटव गंभीर रूप से घायल हो गए। हमलावर उनके घर की काफी संपत्ति लूट कर ले गए। "
इसी पत्रिका के फरवरी 1939 के अंक में एक और खबर छपी :
"आगरा जिले के किरावली तहसील में अभयपुरा गांव के जाट वहां के गरीब अनुसूचित जाति के लोगों से बेगार कराते थे और मजदूरी मांगने पर उन्हें पीटे देते थे। करीब तीन महीने पहले सुखी नाम के एक जाट ने सुखराम, घनश्याम और हुक्मा नाम के जाटवों से जबरदस्ती काम कराया और उनहें मजदूरी नहीं दी। ये लोग इनकी जबरदस्तियों से इतने परेशान हुए कि उन्होंने गांव ही छोड़ दिया और दूसरे गांव में जाकर अपने रिश्तेदारों के यहां रहने लगे। इधर जाट उनके बर्तन और घर का का दूसरा सामान उठाकर ले गए और उसे अनाज रखने वाली कोठरी में ले जाकर छिपा दिया । "
तीन जून 1945 के ‘सावधान' में एक घटना का ब्यौरा इस प्रकार छपा है:
'अनुसूचित जाति की महाराजी कोरी नाम की एक औरत ने श्री महबूब आलम, सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में धारा 376, 341 और 354 - क के अधीन जुबी पुलिस चौकी के ब्रह्म सिंह, सुलेमान और आफ्ताब नाम के तीन सिपाहियों के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई है। शिकायत में कहा गया है कि 2 मई, 1945 की रात को लगभग साढ़े दस बजे पुलिस के ये तीन सिपाही, सुमेर, कहार, कल्लू बीबी का बेटा और कुछ और लोगों के साथ आए और उसके घर की तलाशी ली तथा उसको अपने साथ थाने ले गए और उसे सारी रात थाने में रखा। सवेरे ये सिपाही उसे एक छोटी-सी कोठरी में ले गए। उसे अंदर से बंद कर दिया और इन तीनों ने एक-एक करके उसकी इज्जत लूट ली। उसके बाद उसे फिर एक दूसरी छोटी कोठरी में ले जाया गया, जहां उसके गुप्तांगों में लकड़ी का कोयला, कागज के टुकड़े भर दिए और अपना लिंग उसके मुंह में डाल दिया, उसके कपड़े फाड़ डाले गए जो खून से लथपथ हो गए थे। अगले दिन उसकी मां से दिन-भर जबरदस्ती बेगार कराया गया और उन्हें रात के दस बजे छोड़ दिया गया ।
महाराजी की देवरानी मुरला ने भी ऐसी ही शिकायत दर्ज कराई है। उसका कहना है कि वही सिपाही उसी रात उसे पुलिस चौकी ले गए और फिर उसे वापस भगा दिया। रास्ते में उसे कुमार टोला के पास मदारी तेली ने पकड़ लिया। वह उसे एक खंडहर में ले गया और वहां उसने उसकी इज्जत को लूटा | सर्वश्री मुन्नालाल भूषण और राम भरोसे वकील मुरला की ओर से वकालत कर रहे हैं "
पंद्रह अप्रैल 1945 के 'हिंदुस्तान टाइम्स' में यह खबर छपी है:
"कहा जाता है कि बेगार करने से इंकार करने पर अंबाला जिले के दुखेड़ी गांव में राजपूतों ने बहुत हरिजनों को मारा-पीटा। इनमें एक औरत और एक आदमी के मरने की खबर है। ये दोनों ही हरिजन थे। यह भी कहा जाता है कि हरिजनों के बहुत से मकानों को आग लगा दी गई है। कमिश्नर और पुलिस उप-महानिरीक्षक को तार भेजकर अनुरोध किया गया कि मामले की जांच की जाए। "
इन घटनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदू, अस्पृश्यों को दबाकर रखने और स्वयं निश्चित की गई व्यवस्था को लागू करने में हिंसा का सहारा लेने, तक कि हत्या करने से भी नहीं हिचकते हैं।
यहां
श्री लाजपत राय ने अपनी पुस्तक 'अनहैप्पी इंडिया' में मिस मेयो के आरोपों का जवाब देने की कोशिश की है, जो उन्होंने अपनी पुस्तक 'मदर इंडिया' में लगाए हैं। श्री लाजपत राय ने अमरीका में कू क्लक्स क्लैन नामक संगठन के सदस्यों द्वारा नीग्रो लोगों की बेरहमी से की गई हत्याओं और उन पर किए गए अत्याचारों का विस्तृत और सजीव वर्णन किया है।
वे लिखते हैं:
"लेकिन मैं उनसे (मिस मेयो से ) यह पूछना चाहता हूं कि पेरिया जाति के प्रति ब्राह्मणों का दृष्टिकोण क्या उस दृष्टिकोण से ज्यादा अन्यायपूर्ण और निर्ममतापूर्ण है, जो अमरीका में कू क्लक्स क्लैन के लोगों का नीग्रो लोगों के प्रति रहा है?"
श्वेत ने अश्वेतों पर जो अत्याचार किए, उनकी तुलना में भारत में जाति के नाम पर जो कुछ है, क्या वह अत्याचार है?"
अगर लाला लाजपत राय ने इन अत्याचारों का पता लगाने की कोशिश की होती तो उन्हें यह जरूर मालूम हो जाता कि अस्पृश्यों पर हिंदुओं की यातनाएं और अत्याचार नीग्रो लोगों पर अमरीकनों की यातनाओं और अत्याचारों से किसी प्रकार भी कम नहीं हैं। यदि इन यातनाओं की संसार को उतनी जानकारी नहीं है, जितनी की नीग्रो लोगों के अत्याचारों की है तो इसका कारण यह है कि कोई ऐसा हिंदू लेखक नहीं है जिसने इस सच्चाई को छिपाने की सदा कोशिश नहीं की है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि हिंदुओं की स्थापित व्यवस्था और उसके तहत बने नियमों की यह कहानी अब पुरानी पड़ चुकी है। यह एक गलत बात है। यह स्थापित व्यवस्था और उसके तहत बने नियम आज भी बरकरार हैं, जैसे कि वे उस समय थे, जब उनकी रचना की गई थी। इसकी पुष्टि अस्पृश्यों की दशा के बारे में 'हिंदुस्तान टाइम्स' में छपे निम्नलिखित दो वक्तव्यों से हो जाएगी। पहला वक्तव्य उदयपुर के विद्या भवन नामक स्कूल के हैडमास्टर केसरीलालजी बोर्डिया का है, जो उक्त पत्र के 8 मार्च, 1945 के अंक में छपा है। उसमें कहा गया है:
“मेवाड़ में हरिजनों पर बहुत सारी बंदिशें लगी हुई हैं। वे मंदिरों में नहीं घुस सकते और न ही सार्वजनिक कुओं से पानी ले सकते हैं । त्यौहारों में और जुलूस में सवर्ण हिंदुओं के साथ नहीं चल सकते। वे अपनी रथयात्रा या झांकियां उन रास्तों से या उन दिनों नहीं निकालेंगे जब हिंदू निकालते हैं, वे गांव से किसी सवारी पर होकर नहीं गुजर सकते ।
सोने की ही नहीं, बल्कि अगर वे चांदी के जेवर भी पहन लेते हैं तो सवर्ण हिंदू एतराज करते हैं। नतीजा यह है कि उन्हें कांसे या पीतल के जेवर पहनने पड़ते हैं। चूंकि यह सदियों से चला आ रहा है, इसलिए वे शादी की दावत में घी और गुड़ का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हरिजन बच्चे सवर्ण हिंदुओं के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते। जिस दिन सकूल का निरीक्षण होता है उस दिन उन्हें स्कूल न आने को कहा जाता है, ताकि इंस्पेक्टर को कोई असुविधा न हो।
यहां की सरकार को एक ज्ञापन दिया गया है, जिसमें यह अनुरोध किया गया है कि अगर वह इन प्रतिबंधों के बारे में अपनी असहमति स्पष्ट शब्दों में घोषित कर दे, तब इससे उन गैर-सरकारी संस्थाओं के हाथ मजबूत होंगे, जो अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं।
दूसरा वक्तव्य हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष का है, जो मेवाड़ में अस्पृश्यों की दशा के बारे में है। इसमें कहा गया है:
मेवाड़ हरिजन सेवक संघ ने मेवाड़ सरकार को उसका ध्यान मेवाड़ राज्य में हरिजनों पर प्रतिबंधों और उनके फलस्वरूप उनकी कठिनाइयों की ओर आकृष्ट करते हुए एक ज्ञापन दिया है। इस ज्ञापन में यह बताया गया है कि सवर्ण हिंदुओं की कट्टरता और जातीय विद्वेष के कारण हरिजनों के नागरिक अधिकार किस प्रकार समाप्त किए गए हैं।
मैं यहां कुछ अन्यायपूर्ण रीति-रिवाजों का उल्लेख कर रहा हूं, जो आज भी राज्य में प्रचलित हैं और जिनहें दूर करने के लिए राज्य की ओर से कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। ये रीति-रिवाज निम्नलिखित हैं:
1. हरिजन अपनी मर्जी के कपड़े नहीं पहन सकते। उन्हें सदियों पुराने ढंग के कपड़े पहनने होते हैं। कपड़े पहनने के बारे में उनकी पसंद का कोई महत्व नहीं ।
2. शादियों की दावतों में क्या खाना बने, वे यह भी तय नहीं कर सकते । रुपया-पैसा खर्च करने के बावजूद वे अच्छा सामान नहीं बनवा सकते।
3. वे गांव में किसी सवारी पर होकर चढ़कर नहीं चल सकते ।
4. वे सार्वजनिक वाहनों में नहीं चल सकते।
5. वे किसी पर्व के अवसर पर अपने देवी-देवताओं का जुलूस निर्दिष्ट मार्गों को छोड़कर अन्य मार्गों से नहीं निकाल सकते।
6. वे कुओं पर नहीं चढ़ सकते और न मंदिरों में ही जा सकते हैं । " लेखक आगे कहते हैं:
"मैं तीन साल पहले ठक्कर बापा के साथ पूरे राज्य में घूमा था और इस समय मैंने जो कुछ वहां देखा, उसके बारे में मैंने सरकार तथा जनता को अपनी रिपोर्ट दी थी। मैंने सुधार के लिए कुछ उपाय भी सुझाए थे। मैं इस ज्ञापन और दूसरी रिपोर्ट को देखकर जो मुझे भेजी गई हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि पिछले कुछ वर्षों में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ है और स्थिति लगभग वैसी ही बनी हुई है।
यह बड़े ही दुख की बात है कि इतने समय बाद भी हम कुछ भी नहीं बदल सके हैं। नतीजा यह है कि सदियों पुराने हमारे रीति-रिवाज और धारणाएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। इस विकृति ने हमें अंधा बना रखा है। हम अत्याचार और अन्याय को नहीं देख पाते, और न उस क्षति का अनुभव कर पाते हैं, जिसने हमें खोखला बना दिया है। अगर साधारण जनता की आंखें उसके अज्ञान के कारण नहीं खुलतीं तब इस सदी की जागरूक सरकारों को अपने उत्तरदायित्व के प्रति अधिक जागरूक होना पड़ेगा । "
इन कथनों की तारीखें महत्वपूर्ण हैं। ये वर्ष 1945 की हैं। अब यह कोई नहीं कह सकता कि यह हिंदू समाज - व्यवस्था पुराने जमाने की बात है। इस बात से कि यह तो भारत के राज्यों का विवरण है, यह आशय नहीं लिया जाना चाहिए कि ब्रिटिश भारत में स्थापित व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत में आज भी मान्य है, इसे सिद्ध करने के लिए हम अगले अध्यायों में और भी प्रमाण देंगे।
'टाइम्स आफ इंडिया' के 31 अगस्त, 1950 के अंक में निम्नलिखित समाचार छपा है:
"ग्रामीण क्षेत्रों में निचली जातियों की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था कैसी है, इस बारे में पर्याप्त प्रकाश उन तथ्यों से पड़ता है, जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अपील की सुनवाई के दौरान बयान किए गए, जो निम्नलिखित हैं-
एटा जिले के सारस गांव में चिरंजी नाम का एक धोबी पिछले विश्व युद्ध में फौज में भर्ती हो गया और चार-पांच साल तक अपने गांव से बाहर रहा । जब वह लड़ाई से अपने घर लौटा तो उसने लोगों के कपड़े धोने बंद कर दिए और गांव में फौज की वर्दी पहनकर घूमा करता था। उससे और इस बात से भी कि उसने सारस के राजा के जो उस गांव का एकछत्र जमींदार था, अहलकारों तक के कपड़े धोने बंद कर दिए, गांव वालों को बड़ा क्रोध आया।
जब 31 दिसम्बर, 1947 को वह धोबी अपने खुद के कपड़े धो रहा था, राजा के अहलकार समेत गांव के चार आदमी उसके पास आए और उससे अपने कपड़े धोने के लिए कहा। ऐसा करने से उसने इंकार कर दिया। गांव वाले चिरंजी को पकड़कर राजा के पास ले गए और वहां उसे पीटने लगे। उसकी मां और मौसी उसे बचाने के लिए वहां पहुंच गईं। लेकिन उन्हें भी मारा-पीटा गया।
ये लोग चिरंजी को राम सिंह की देखरेख में छोड़कर चले आए। कहा जाता है कि चिरंजी ने राम सिंह को अकेला पाकर तमाचा मारा और वह वहां से भाग आया। तब राम सिंह ने राजा के दूसरे और अहलकारों के साथ चिरंजी का उसके घर तक पीछा किया, जहां वह जाकर छिप गया था। गांव वालों ने उससे दरवाजा खोलने के लिए कहा। जब कोई जवाब नहीं मिला, तब उसका घर जला दिया गया। इससे बहुत-सी और झोपड़ियां भी जलकर राख हो गई।
धोबी ने पुलिस से शिकायत की, लेकिन पुलिस ने इस पर यकीन नहीं किया, और कहा कि झूठी रिपोर्ट लिखवाने के लिए उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा। तब उसने मजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी दी। अभियुक्तों को दोषी पाया गया और उन्हें तीन-तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई । मजिस्ट्रेट ने जो सजा दी, उच्च न्यायालय ने उसे बहाल कर दिया ।
'इंडियन न्यूज क्रोनिकल' के 31 अगस्त, 1950 के अंक में निम्नलिखित समाचार छपा है:
पेसू के हरिजनों के साथ अमानवीय व्यवहारः सरकार को डिप्रेस्ड क्लासेज लीग द्वारा ज्ञापन।
पटियाला, अगस्त 1950, पेप्सू प्राविंशियल डिप्रेस्ड क्लासेज लीग ने राज्य सरकार को एक ज्ञापन दिया है, जिसमें कहा गया है कि इस राज्य में पिछड़ी जाति के लोगों की बिना बात मार-पीट, उनकी स्त्रियों के साथ अभद्र आचरण, हरिजनों की उनकी जमीनों से जबरदस्ती बेदखली, हरिजनों और उनके मवेशियों को उनके कच्चे घरों में घेरकर बिना किसी कसूर के कई-कई दिनों तक बंद रखना आदि उन लोगों की लंबी दर्दभरी दास्तान हैं, जिनकी आहों की लपटें उसी अनुपात में ऊंची उठ रही हैं, जिस अनुपात में यह कहा जाता है कि इस राज्य में अपराधों की लपटें बुझती जा रही हैं।
पेप्सू में पुलिस की जोरदार कार्रवाई से अपराधों की संख्या तो घट रही है, लेकिन पिछड़ी जाति के लोगों को गैर- सामाजिक तत्वों के विरुद्ध संरक्षण न दिया जाना कम दुख की बात नहीं है। पिछड़ी जातियों के लोग अपनी आर्थिक तंगी के कारण संबंधित अधिकारियों तक अपनी रोजाना की कठिनाइयों का दुखड़ा नहीं पहुंचा सकते कि वे उनकी रक्षा के लिए तुरंत प्रबंध कर सकें और उन्हें जबरन अपने भाग्य पर भरोसा कर चुप हो बैठ जाना पड़ता है। इससे अत्याचार करने वालों को जहां प्रोत्साहन मिलता है, वहीं यहां के लोगों में मौजूदा हालत को लेकर निरंतर असंतोष बढ़ रहा है, जिसका फायदा स्वार्थी लोग उठा रहे हैं।
पेसू में हरिजनों के साथ कितना अधिक अमानवीय व्यवहार हो रहा है, इस बारे में 'प्राविंशियल डिप्रेस्ड क्लासेज लीग' ने एक और घटना का उल्लेख किया है। ऊंची जाति के एक जमींदार के कुएं से पीने के लिए पानी लेने पर बरनाला जिले के कातुं गांव के चांद सिंह नामक हरिजन को उसका मुहं काला कर उसे गधे पर बिठाकर गांव-भर में घुमाया गया। स्वतंत्र भारत की बदली हुई परिस्थितियों में पेप्सू में अनुसूचित जाति के लोगों को यहां की ऊंची जाति के लोगों द्वारा किए जा रहे अनोखे दमन के कारण दिन-प्रतिदिन कठिनाइयों का असहाय हो सामना करना पड़ रहा है। "
'प्राविंशियल डिप्रेस्ड क्लासेज लीग' ने हरिजनों की शिकायतों पर मौके पर जाकर छानबीन करने और उनहें अन्य सुवधाएं देने के लिए जिला और केन्द्रीय स्तर पर व्यापक अधिकार प्राप्त विशेष आयोगों के गठन का सुझाव दिया है।
अंत में इस लीग ने राज्य सरकार से अनुरोध किया है कि जब तक इस संबंध में कोई केन्द्रीय कानून नहीं बन जाता है, तब तक फिलहाल यह व्यवस्था की जाए कि गांवों में हरिजनों को बराबरी के अधिकार प्राप्त हों, जिससे स्थिति और ज्यादा बिगड़ने न पाए ।