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बहुत से लोगों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि जिस व्यवस्था में इतनी ढेर सारी असमानताएं हों, वह अब तक जीवित कैसे रही है। कौन से ऐसे तत्व है, जो इसे पुष्ट करते हैं ? जो तत्व इस व्यवस्था को पुष्ट करते आएं हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण तत्व है हिंदुओं का इसे हर कीमत पर बनाए रखने का संकल्प। जब कभी अस्पृश्य इसमें थोड़ा-सा भी बदलाव लाने की कोशिश करते हैं, तभी हिंदू उसे दबा देने के लिए हर स्तर के हथकंडे इस्तेमाल करने के लिए तैयार रहते हैं। मामूली से भी मामूली अहिंसक हिंदू अस्पृश्यों के प्रति घोर से घोर हिंसा करने में तनिक भी नहीं सकुचाएगा । कोई भी ऐसा क्रूर कर्म नहीं, जो वह इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ नहीं करेगा। बहुत से लोगों को सहज रूप से इसका विश्वास नहीं होगा। किंतु यह सच है। यहां मैं अस्पृश्यों पर हिंदुओं द्वारा किए गए अत्याचार और दमन की कुछ घटनाएं जो समय-समय पर समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई हैं, उन लोगों के लिए उद्धत कर रहा हूं, जिन्हें इस बारे में थोड़ा-सा भी संदेह है:
दिल्ली के 'तेज' समाचार पत्र के 4 सितम्बर, 1927 के अंक में निम्नलिखित समाचार छपा है:
"हरिजनों ने व्यकोम के शिव मंदिर को उसके एकदम पास जाकर अपवित्र कर दिया। इस पर उस क्षेत्र के हिंदुओं ने प्रचुर धन लगाकर मंदिर को शुद्ध करने का फैसला किया है, जिससे यहां फिर से पूजा आरंभ हो सके।"
'प्रताप' संवाददाता ने ऐसा ही एक समाचार दिया, जो उसके दो सितम्बर 1932 के अंक में प्रकाशित हुआ:
"मेरठ, अगस्त, 1932, जन्माष्टमी के दिन कुछ हरिजनों ने सवर्ण हिंदुओं के मंदिर में प्रवेश करने की चेष्टा की थी। जगह- जगह दंगे और अशांति के अलावा इसका कोई नतीजा नहीं निकला था। इस साल स्थानीय दलित संघ ने यह फैसला कर रखा था कि यदि मंदिर के द्वार उनके लिए नहीं खोले गए तो वे सत्याग्रह करेंगे। जब हिंदुओं को इस बात का पता चला तो उन्होंने हरिजनों की इस चाल को विफल करने के लिए योजनाएं बनानी शुरू कर दीं। अंत में जन्माष्टमी की रात को हरिजनों ने जुलूस निकाला और मंदिर में घुसने की कोशिश की। लेकिन पुजारियों ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया और कहा, आप लोग यदि भगवान के दर्शन करना चाहते हैं, तो सड़क पर से करें। इस पर मंदिर के सामने भारी भीड़ जमा हो गई। पुजारियों ने मंदिर में घुसने की कोशिश की और दोनों पक्षों के बीच झगड़ा शुरू हो गया और जमकर मार-पीट हुई।"
हिंदू अपने मंदिरों में अस्पृश्यों को अंदर नहीं आने देते । यह सोचा गया होगा कि वे अस्पृश्यों को अपने मंदिर बनाने और उनमें भगवान की मूर्ति रखने देंगे। यह सोचना गलत है। हिंदू इसकी भी अनुमति नहीं देते। इस संबंध में दो घटनाओं के उदाहरण देना पर्याप्त होगा। उनमें से एक घटना 12 फरवरी, 1923 के 'प्रताप' में छपी है:
'आगरा के एक चमार ने किसी ब्राह्मण को उसके घर में विष्णु की मूर्ति की पूजा करते हुए देख अपने घर में भी ऐसा ही किया। जब ब्राह्मण को इसका पता चला तो वह गुस्से से लाल-पीला हो उठा। उसने बहुत से गांव वालों की सहायता से अभागे हरिजन को पकड़ उसकी जमकर पिटाई की और कहा, 'तुझे भगवान विष्णु की पूजा करने की हिम्मत कैसे हुई? इसके बाद उन्होंने उसके मुंह में कीचड़ भरकर छोड़ दिया। चमान ने हताश होकर हिंदू धर्म त्याग दिया और इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया । "
दूसरी घटना 4 जुलाई, 1939 के 'हिंदू' में छपी है:
" बेलारी जिला हरिजन सलाहकार बोर्ड की बैठक 29 जून 1939 को कमेटी के प्रधान तथा जिलाधीश के बंगले पर हुई ।' श्री ए. डी. क्रौम्बी, आई. ई. आई. सी. एस., जिलाधीश ने इसकी अध्यक्षता की।
नारायण देवरकरी के हरिजनों की शिकायतों के संबंध में, जिनमें एक शिकायत यह भी थी कि महाजन लोग उनसे जबरदस्ती बेगार कराते और उन्हें सताते हैं, समिति ने यह निर्णय किया कि इस बारे में सरकारी रिपोर्ट मांगी जाए, ताकि आवश्यक होने पर कोई कार्रवाई की जा सके।
कुडाथिनी गांव के हरिजनों की धार्मिक कठिनाइयों के बारे में समिति को ब्यौरा दिया गया। इसमें यह आरोप था कि हरिजनों ने हालांकि अपनी कालोनी में बारह साल पहले मंदिर बनाया था, पर वे उसमें कुछ सवर्ण हिंदुओं की इस आपत्ति के कारण भगवान की मूर्ति स्थापित नहीं कर सके हैं, हालांकि जो मंदिर में ही बनी हुई रखी है, कि वे मूर्ति स्थापित करने के पहले उसे गांव में जुलूस के रूप में नहीं ले जा सकते। "
हिंदुओं के कुएं से पानी लेने पर हिंदू कैसा व्यवहार करते हैं, यह निम्नलिखित घटनाओं से स्पष्ट हो जाएगा।
पहली घटना 'प्रताप' के 12 फरवरी, 1923 के अंक में छपी है :
“महाशय छेदी लालजी ने खबर दी है कि एक चमार मूर्ति की पूजा करने के लिए जा रहा था। रासते में उसे प्यास लगी। उसने अपनी लोहे की छोटी डोलची कुएं में डालकर पानी लिया । इस पर एक सवर्ण हिंदू ने उसे डांटा, खूब मारा-पीटा और एक कोठरी में बंद कर दिया। जब यह घटना हो चुकी, तब मैं उधर से निकला। मैंने पूछा कि इस आदमी को कोठरी में बंद क्यों रखा है, तो दीवान साहब ने बताया कि इस आदमी ने अपनी डोलची हमारे कुएं में डाल दी और यह हमारा धर्म भ्रष्ट करना चाहता है । "
यह एक सच्चाई है कि हरिजनों पर अत्याचार करने में हिंदू औरतें भी पीछे नहीं रहतीं, और जो अस्पृश्य हिंदुओं के कुएं से पानी लेने का दुस्साहस करता है उसे मारने-पीटने में वे मर्दों का साथ देती हैं। इस खबर की तुलना कीजिए जो 26 फरवरी, 1932 के 'प्रताप' में छपी है:
“19 फरवरी, 1932 को पुल बजुवां में एक दुखद घटना घटी। यह घटना तब घटी, जब महाशय रामलाल एक कुएं से पानी लेने गए। यह वही कुआं था, जिस पर 13 जनवरी, 1932 को कुछ राजपूतों ने महाशय रामलाल और उनके एक साथी पंडित बंशीलाल की ठुकाई की थी। उस वक्त राजपूत औरतों का एक झुंड लाठी-डंडे लेकर वहां आ पहुंचा और महाशय की ऐसी पिटाई की, जिसका बयान नहीं किया जा सकता। राजपूत औरतों ने उन्हें इतना पीटा कि उनका शरीर लहूलुहान हो गया। इस समय वह फुकलियां के अस्पताल में भर्ती है । "
कुएं से पानी भरने के अस्पृश्यों के अधिकार के अनुसार यदि इन कुओं से अस्पृश्य पानी भरना चाहें, तो इस बारे में सरकारी अफसर की मदद भी उन्हें पीटने से नहीं बचा सकती। यह निम्नलिखित घटना से स्पष्ट है, जिसकी खबर 'मिलाप' के 7 जून, 1924 के अंक में इस प्रकार छपी है:
"कुछ दिन पहले सभी तहसील के रहियां गांव में नहर विभाग का एक अधिकारी आया और उसने कुएं से पानी निकालने में कुछ मेघ अस्पृश्यों की मदद लेनी चाही। पहले तो उन्होंने पानी भरने से इंकार कर दिया, लेकिन अधि कारी ने उन्हें खूब डांटा-फटकारा और उनसे जबरदस्ती पानी निकलवाया। अगले दिन हिंदू कुएं पर इकट्ठा हो गए और उन्होंने चौकीदार को भेजकर वहां मेघों को बुलवाया और उनसे कहा कि वे कुएं पर कैसे चढ़े ? एक मेघ ने कहा कि हम अपनी मर्जी से कुएं पर नहीं चढ़े और हमारी कोई गलती नहीं थी। इस बात पर हिंदुओं ने उसकी लाठी-डंडों से पिटाई की। यह समाचार लिखे तक वह बेहोश पड़ा है। हालांकि डाक्टर ने कहा कि चोटें मामूली हैं, तो भी जान से मारने की कोशिश और गैर-कानूनी जमावड़े का मामला पुलिस में दर्ज कर लिया गया। लेकिन पुलिस ने इसकी अनदेखी कर दी है। इससे मेघ लोगों में असुरक्षा की भावना फैली हुई है। गांव वाले मेघों को डरा-धमका रहे हैं, यहां तक कि उनके मवेशी भी पानी नहीं पी सकते। सभी तालाब और कुएं मेघ लोगों के लिए निषिद्ध है । "
बात यहीं खत्म नहीं होती कि अस्पृश्य लोग हिंदुओं के कुओं से पानी नहीं भर सकते। वे अपने लिए कुआं नहीं बना सकते, चाहे उनके पास इसके लिए पैसा ही क्यों न हो। पक्का कुआं बनाने का मतलब है कि वे अपने को ऊंचा उठाकर हिंदुओं की बराबरी करना चाहते हैं, जो स्थापित व्यवस्था के प्रतिकूल है।
छह जून 1934 के 'मिलाप' में निम्नलिखित घटना छपी:
"पंजाब की अछूत उद्धारक समिति के मंत्री लाला रामप्रसाद जी ने निम्नलिखित सूचना दी है -
" इन गर्मियों में जगह-जगह से लोगों को पीने के लिए पानी की किल्ल्त की शिकायतें आ रही हैं। दलित जातियों के लोग, जिनके अपने कुएं नहीं हैं, अपने- अपने घड़े लेकर कुओं के पास बैठ जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति दयालु हुआ तो वह उनके घड़े में पानी डाल देता है, वरना उन्हें पूछने वाला कोई नहीं। कुछ इलाकों में किसी भी आदमी को इनके लिए पैसा देने पर भी पानी नहीं दिया जाता और अगर कोई कोशिश करता भी है, तो मारपीट की नौबत आ जाती है। उनके लिए गांव के कुओं से पानी लेना तो मना है ही, वे अपने खर्च से कुएं भी नहीं खुदवा सकते।"
इस तरह की एक घटना 21 अप्रैल, 1924 के 'तेज' में छपी थी :
" लगभग डेढ़ महीना पहले ओपड गांव के करीब ढाई सौ चमारों ने मुसलमान सक्कों की मशक से ( आर्य समाज के पंडितों के कहने पर ) पानी लेना बंद कर दिया। अब वे बड़ी मुश्किल में हैं। गांव के जाटों ने न केवल उन्हें अपने कुओं से पानी लेने के मना कर दिया है, बल्कि वे उन्हें अपने कुएं भी नहीं खोदने दे रहे हैं। बेचारे चमार गड्ढे और तालाबों से पानी लेकर अपना गुजारा कर रहे हैं। कल दलित सुधार समिति के मंत्री डाक्टर सुखदेवजी जांच करने के लिए ओपड आए और उन्होंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा । उन्होंने देखा कि चमारों की दुर्दशा वर्णनातीत है और जाटों द्वारा उन पर सचमुच ज्यादती हो रही है। "
नौ मई 1931 के 'टाइम्स आफ इंडिया' में यह घटना छपी थी :
"चूंकि बड़ौदा राज्य ने अपने यहां सवर्णों के साथ अन्त्यजों की बराबरी को मान्यता देने के लिए कानून बनाए हैं इसलिए यह आशा की जाती है कि निकटवर्ती ब्रिटिश क्षेत्र के अस्पृश्यों के मुकाबले यहां के अस्पृश्यों की दशा अच्छी होगी। लेकिन हाल में एक दिन पदरास तालुका में एक गरीब अन्त्यज औरत की खड़ी फसल को आग लगा दी गई और उसे बुरी तरह मारा-पीटा गया, क्योंकि उसने अपने बेटे को स्थानीय प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था। अब ऐसी ही एक घटना कादि प्रांत के चनास्मा गांव में हुई है। यहां अन्त्यजों की सहायता से एक कुआं खोदा गया, जिनसे यह वायदा किया गया कि वे भी कुएं से पानी ले सकेंगे। लेकिन जब कुआं बनकर तैयार हो गया, तब शुरू में यह कहा गया कि यह कुंआ उनके लिए नहीं है, और जब उन्होंने पंच से शिकायत की तो उसने उन्हें पांच सौ फुट लंबी एक पाइप बिछाने और उसके सिरे पर अपने लिए नल की टोंटी लगाने की अनुमति दे दी। इसके बाद अचानक ही जहां नल बनाया गया था, उस जमीन का एक मालिक पैदा हो गया। तब इस पाइप लाइन को एक पोखर पर ले जाया गया, लेकिन इसका मतलब हुआ पोखर के पानी को गंदा करना, क्योंकि वहां लोग अपने गंदे कपड़े भी धोते। इसलिए नल कहीं और लगा दिया गया। लेकिन क्या इसके बाद मुसीबत टल गई? नहीं, क्रुद्ध सवर्ण हिन्दुओं ने कई बार इस पाइप लाइन को तोड़ा और अन्त्यज पानी के लिए तरसते रहे। जब श्री गांधी के अपने ही धर्म के लोग अस्पृश्यों के साथ ऐसा बर्ताब करें तो उन्होंने इन्हें जो 'हरिजन' का नाम दिया है, यह कितना ठीक है?"
सत नवम्बर 1928 के 'टाइम्स आफ इंडिया" में श्री संजना ने अपने एक पत्र में पीने के पानी के बारे में अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है, जो श्री ठक्कर ने 1927 में देखी थी :
'वरसाड तालुका में श्री ठक्कर ने एक कुएं के पास देखा कि वहां एक गिन खड़ी लोगों से पानी मांग रही थी। वह वहां सवेरे से दोपहर तक खड़ी रही, लेकिन किसी ने भी उसे पानी नहीं दिया। आध्यात्मिकता की सबसे ज्यादा अनोखी व्याख्या तो उस प्रक्रिया में मिलती है, जिससे भंगियों को पानी दिया जाता है। यह पानी उनके बरतनों में सीधे नहीं उंडेला जा सकता। जो भी ऐसा करेगा, अपवित्र हो जाएगा। श्री ठक्कर ने बताया कि एक बार हमारे अध्यापक चुन्नीभाई ने अपनी बाल्टी से एक भंगी के बरतन में सीधे पानी डालने का दुस्साहस किया तो उन्हें इस पर कड़ी चेतावनी दी गई कि 'मास्टर, यहां यह सब नहीं चलेगा।' कुएं के पास ढलान पर एक छोटा-सा हौज बना दिया जाता है, और जिन लोगों में दया आती है, वे इस हौज में पानी डाल देते हैं। इस हौज में नीचे की तरफ बांस की टोंटी लगी होती है। भंगिनें उस टोंटी के पास अपने बरतन रख देती हैं, जिसके भरने में घंटा - डेढ़ घंटा लग जाता है। श्री ठक्कर कहते हैं कि यह वह पानी होता है, जो घड़े भरने के बाद बचा रहता है और जिसे औरतें नियम से या जब उन्हें पास में खड़ी भंगिन पर दया आती है तब उस हौज में डाल देती हैं। "