IV
हिंदू कहते हैं कि अस्पृश्य भी हिंदू हैं। लेकिन इसके बावजूद एक अस्पृश्य का शवदाह हिंदुओं के श्मशान में नहीं किया जा सकता।
सात जून 1946 के 'फ्री प्रेस' से :
“श्री ए. एस. वैद्यनाथ अय्यर से हमें एक पत्र प्राप्त हुआ है, जिसमें एक फौजदारी मुकदमे का हवाला देते हुए जनता का ध्यान उन क्रूर अत्याचरों की ओर आकृष्ट किया गया है, जो हरिजनों को अस्पृश्यता के कारण भुगतने पड़ते हैं। इस मुकदमे में मदुरै के दो हरिजनों को चार महीने के कठोर कारावास की सजा इसलिए दी गई कि उन्होंने कुछ ऐसा काम किया था, जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती थीं। "
श्री वैद्यनाथ अय्यर लिखते हैं, मदुरै के किसी हरिजन ने अपने सबसे बड़े लड़के का शवदाह नगर पालिका के शमशान में ऐसी जगह न कर जो हरिजनों के लिए आरक्षित थी, वहां बने एक शेड के नीचे उस जगह किया जो सवर्ण हिंदुओं के लिए आरक्षित थी। उस हरिजन का कहना है कि मुझे इस प्रकार के आरक्षण की कोई जानकारी नहीं थी, और यह कि उस समय बूंदा-बांदी हो रही थी और यह जगह उस दूसरी जगह से अच्छी थी। उस समय किसी सवर्ण हिंदू ने कोई एतराज नहीं किया था और न इस बात का कोई प्रमाण है कि इस कारण किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची थी। लेकिन मदुरै की पुलिस को जब इस घटना का पता चला, तब उसने उस लड़के के पिता और उसके किसी सगे-संबंधी पर इस आधार पर मुकदमा चला दिया कि चूंकि हरिजन अस्पृश्य होते हैं, इसलिए ऐसे काम करने से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती थी।
श्री अय्यर आगे लिखते हैं कि उन्होंने इस मामले की जानकारी मद्रास मंत्रिमंडल को दे दी है।
बाईस अप्रैल 1945 के 'सावधान' से :
"अठारह मार्च 1945 को मुजफ्फरपुर जिले के फलोदा गांव में एक भंगी की मौत हो गई। गांव के भंगी उसके शव को श्मशान ले गए इससे त्यागी ब्राह्मण आग-बबूला हो उठे और उन्होंने भंगियों को अपना मुर्दा हिंदुओं के श्मशान में लाने की गलती करने के लिए खूब गालियां दीं। भंगियों ने कहा कि वे भी हिंदू ही हैं और वे मृतक का शवदाह करेंगे। लेकिन ब्राह्मण कहां मानने वाले थे। उन्होंने भंगियों से कहा कि 'चाहे तुम हिंदू हो या मुसलमान, तुम अपने मुर्दे को गाड़ों, और अगर ऐसा नहीं किया तो हम ही तुम्हारे मुर्दे को जमीन में गाड़ देंगे।' इस तरह धमकियां दी गईं, तो मारपीट के डर से उन्होंने अपना मुर्दा जमीन में गाड़ दिया । "
यहां सिर्फ इतनी-सी बात नहीं है। यहां एक और बात भी ध्यान देने की है। सवर्ण हिंदू अपने मुर्दों का संस्कार जलाकर करते हैं। चूंकि हिंदुओं के रीति-रिवाजों का जो उनकी श्रेष्ठता के प्रतीक हैं, अनुकरण करना अस्पृश्यों की उद्दंडता है, इसलिए उन्हें अपने शवों का संस्कार जमीन में गाड़कर ही करना चाहिए, चाहे वे इसे चाहें या न चाहें।
अनिवार्य रूप से जमीन में गाड़कर शव का संस्कार करने की एक घटना का समाचार 6 जून, 1924 'मिलाप' में इस प्रकार छपा है:
“अस्पृश्यों में जागृति का मुख्य कारण हिंदुओं के द्वारा उन पर किया जा रहा अत्याचार है। मैं इस बात से अवगत नहीं था, लेकिन मुझे विभिन्न कार्यकर्ताओं से जो समाचार मिले हैं, उनसे मुझे बड़ा कष्ट हुआ है। एक स्थान से मुझे यह सूचना मिली कि अस्पृश्यों को अपने मुर्दे तक नहीं जलाने दिए जाते। ऐसा लगता है कि इससे वहां के भंगियों में एक नई प्रथा शुरू हो गई है। अब उन्होंने मुर्दे को जमीन में शायद इस कारण सिर के बल गाड़ना शुरू कर दिया है कि जिससे उनमें और दूसरों में अंतर रहे, जो आमतौर पर मुर्दे को चित लिटाकर गाड़ते हैं। भंगी सोचते हैं कि अगर वे दूसरों की नकल करेंगे, तो उनके लिए अपमानजनक होगा । "
यज्ञोपवीत पहनना कुलीन होने की निशानी है। अस्पृश्यों ने भी अपने को कुलीन कहलाने के विचार से यज्ञोपवीत पहनना शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले के रिंगवाड़ी गांव के सवर्ण हिंदुओं द्वारा अस्पृश्यों पर किए गए अत्याचार का समाचार 6 जून के 'नेशनल हेराल्ड' में छपा, जो इस प्रकार है:
"गढ़वाल में चांदकोट में हरिजनों के दस परिवार, जिनमें कुल मिलाकर तैंतीस लोग हैं, सवर्ण हिंदुओं द्वारा सताए जाने पर लगभग दो महीने तक इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहने के बाद वहां के जिलाधिकारियों की सहायता से अपने गांव रिंगवाड़ी वापस आ गए। याद होगा कि इन लोगों ने महात्मा गांधी और स्वामी श्रद्धानंद के अछूतोद्धार आंदोलन से प्रेरित होकर जनेऊ पहन लिए थे और रोजना संध्योपासना करनी शुरू कर दी थी। लेकिन गढ़वाल के सवर्ण हिंदुओं को यह सहन नहीं हुआ, क्योंकि उनका कहना था कि यह उनके विशेषाधिकारों के लिए एक चुनौती स्वरूप है। उन्होंने हरिजनों को सताना व उनका सामाजिक बहिष्कार करना शुरू कर दिया। उनसे कहा गया कि वे अपनी बरातों में डोली और पालकी का इस्तेमाल न करें। "
"एक जगह चार हरिजनों को पकड़ कर उनसे जबरदस्ती एक भैंसा कटवाया गया और उन्हें उसका गोश्त खाने के लिए कहा गया। रिंगवाड़ी में इस तरह का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया, जब इन हरिजनों के लिए सभी झरने, जानवरों के चरने की जगहों आदि पर रोक लगा दी गई, जो सवर्ण हिंदुओं की बात मानने के लिए तैयार नहीं थे। इसके परिणामस्वरूप ही उक्त दस परिवारों को अधिक अत्याचार के डर से अपना गांव अंधेरी रात में छोड़ना पड़ा था । "
इसी तरह की और भी घटनाएं निम्नलिखित हैं
"कुछ आर्य समाजियों ने कुछ अस्पृश्यों को ऊंची जाति का बनाने की कोशिश की और उन्हें पहनने के लिए ऊंची जाति का प्रतीक, अर्थात् जनेऊ दिया। लेकिन अधिकांश सनातनियों को यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ क्योंकि उनके धर्म में अस्पृश्यों के लिए जनेऊ पहनने की इजाजत नहीं थी । इसीलिए सवर्ण हिंदू उन अस्पृश्यों पर अत्याचार करने लगे हैं, जो जनेऊ पहनते हैं । "
"आर्य समाजियों ने जम्मू राज्य के मीरपुर जिले के मोइला गांव में भगत हरिचंद की शुद्धि की और उसे जनेऊ पहनने के लिए दिया। वहां के हिंदू जाटों ने उसे सताना शुरू कर दिया और उससे जनेऊ उतारने के लिए कहा। लेकिन हरिचंद अपने धर्म पर अड़ा रहा। अंत में एक दिन जब भगत हरिचंद ने गायत्री पाठ समाप्त किया तो जाटों ने उसकी पकड़ लिया और उसकी बुरी तरह से पिटाई की तथा जनेऊ तोड़कर फेंक दिया। इसका कारण यह था कि शुद्ध होने से पहले वे (शुद्धमेघ) जाटों को गरीब नवाज कहा करते थे, लेकिन बाद में उनसे 'नमस्ते' करने लगे थे। "
चौदह सितंबर 1929 के 'आर्य गजट' से:
"गुरदासपुर जिले में बरहमपुर कस्बे के पास रमानी गांव के हिंदू राजपूतों ने अपने गांव के अस्पृश्यों को उनके घरों से बुलाया और कहा कि वे अपने-अपने जनेऊ उतार दें और कसम खाएं कि भविष्य में वे इसे कभी भी नहीं पहनेंगे, नही तो उन्हें जान से मार डाला जाएगा। इस पर अस्पृश्यों ने शांतिपूर्वक कहा- 'महाराज, आप हमसे क्यों नाराज हैं? आपके खुद के भाई, आर्य समाजियों ने ये जनेऊ हमें पहनने के लिए दिए हैं और कहा है कि हम हमेशा इस जनेऊ की रक्षा करें, क्योंकि यह हिंदू धर्म की सच्ची निशानी है। अगर आपको इससे एतराज है, तो आप इसे हमारे शरीर से उतार सकते हैं। इस पर राजपूत उन पर लाठी लेकर बरस पड़े और काफी देर तक उनको मारते-पीटते रहे। अस्पृश्यों ने इसको बड़ी सहनशक्ति से झेला और जनेऊ उतारने से इंकार कर दिया। इन हिंदुओं को उनके इस प्रकार पिटते रहने पर कुछ भी तरस नहीं आया और तीन या चार राजपूतों ने मिलकर गौरी राम नाम के हरिजन का जनेऊ तोड़ डाला और उसके शरीर पर खुरपी से खोद-खोदकर जनेऊ का निशान बना दिया । "
बारह अक्तूबर 1929 के 'मिलाप' से:
"बहमनी गांव के राजपूतों ने अस्पृश्यों के खिलाफ बहुत दिनों से एक अभियान छेड़ रखा है। वहां जनेऊ तोड़ने के बारे में अदालत में एक मुकदमा चल रहा है। इसी अदालत में एक और मुकदमा चल रहा है, जो एक अस्पृश्य औरत के बारे में है। कहा जाता है कि यह औरत 7 अक्तूबर, 1929 को जब फसल काटने जा रही थी, तब एक राजपूत ने उसे बुरी तरह से पीटा, जिससे उसका शरीर लहूलुहान हो गया। यह औरत चारपाई पर लिटाकर घर लाई गई थी।"
अगर किसी हिंदू की उपस्थिति में कोई अस्पृश्य चारपाई पर बैठा रहता है तो उसकी क्या हालत होती है, यह इस घटना से स्पष्ट है, जो जुलाई 1938 के 'जीवन' में छपी थी:
"सीतापुर जिले के मारगांव पुलिस चौकी के तहत गांव पछेरा में नंदराम और मंगली प्रसाद ने अपने कुछ दोस्तों और और रिश्तेदारों को घर पर भोज पर बुलाया हुआ था। जब मेहमान लोग चारपाइयों पर बैठे हुक्का पी रहे थे, तभी उधर से ठाकुर सूरज बक्श सिंह और हरपाल सिंह जमींदार आ निकले। उन्होंने नंदराम और मंगली प्रसाद को बुलाकर उन लोगों के बारे में पूछा चारपाई पर बैठे हुक्का पी रहे थे। मंगली प्रसाद ने कहा कि वे लोग उसके दोस्त और रिश्तेदार हैं, और कहा कि क्या केवल ठाकुर ही चारपाई पर बैठ सकते हैं। इस पर दोनों ठाकुर आपे से बाहर हो गए। दोनों ठाकुरों ने उन दोनों भाइयों और उनके आदमियों ने मेहमानों को बुरी तरह से मारा-पीटा। इसके परिणामस्वरूप एक आदमी और एक औरत बेहोश हो गए और बाकी लोगों को बुरी तरह से चोटें आई हैं। "
अस्पृश्य हिंदू हैं। उन्हें दूसरों के समान सभी अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन उन्हें वे अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते, जो हिंदू समाज - व्यवस्था के नियमों के आड़े आते हैं।
उदाहरण के लिए, कोई अस्पृश्य किसी धर्मशाला में नहीं ठहर सकता जहां और सभी ठहर सकते हैं। इस संबंध में फतेहगढ़ के एक अस्पृश्य श्री कन्हैया लाल जाटव के अनुभव का समाचार अगस्त 1938 के 'जीवन' में छपा, जो निम्नलिखित है :
"जब मैं 15 अगस्त, 1938 को रात के दस बजे इलाहाबाद जंक्शन के पास एक धर्मशाला में ठहरने के लिए गया तो मुझे ठहरने में कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने बतौर पेशगी एक रुपया दिया, चारपाई ली और उस पर बिस्तर लगा दिया। लेकिन जब धर्मशाला में रहने वाले लोग मैनेजर के पास अपना पता लिखाने गए और जब मैंने अपना पता लिखाते समय अपनी जाति जाटव लिखी, तब मैनेजर आग-बबूला हो गया और उसने कहा कि यह धर्मशाला नीच जाति के लोगों के ठहरने के लिए नहीं है। उसने मुझे तुरंत धर्मशाला छोड़कर चले जाने को कहा। मैंने उससे कहा कि धर्मशाला के नियमों के मुताबिक यह धर्मशला सिर्फ हिंदुओं के ठहरने के लिए है और किसी अस्पृश्य के ठहरने पर कोई पाबंदी नहीं है। मैंने उससे पूछा, क्या मैं हिंदू नहीं हूं, जो तुम मुझे बाहर निकाल रहे हो। मैंने यह भी कहा कि मैं फर्रुखाबाद का रहने वाला हूं और मैं इलाहाबाद में किसी को नहीं जानता हूं। मैं रात के ग्यारह बजे कहा जाऊं। इस पर मैनेजर आपे से बाहर हो गया और उसने 'रामायण' की यह चौपाई दोहराते हुए ( ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी) कहा कि 'एक नीच जाति का होने के बावजूद नियम-कानून की बात करने का दुस्साहस करता है। तेरी जब तक पिटाई न की जाएगी, तू बाहर नहीं जाएगा । तब एकाएक उसने मेरा बिस्तर और अन्य सामान उठाकर धर्मशाला से बाहर फेंक दिया। वहां खड़े सभी लोग मुझे पीटने के लिए तैयार हो गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर मैंने तुरंत धर्मशाला छोड़ दी और मैं उसके समाने वाली एक दुकान से लगे तख्ते पर आकर लेट गया। मुझे उस दुकानदार को रात भर के लिए किराए के रूप में दो आने देने पड़े। मैं अपने अनुसूचित जाति के भाइयों से अपील करता हूं कि वे जगह-जगह मीटिंग करें और सरकार पर इस बात के लिए जोर डालें कि वह या तो हम लोगों के लिए अलग धर्मशाला बनवाए या सभी मौजूदा धर्मशालाएं हम लोगों के लिए भी खोल दें। "
स्थापित समाज-व्यवस्था में मरे हुए जानवरों को उठाने और सफाई आदि का काम करना हिंदुओं की प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। यह काम अस्पृश्यों को ही करना चाहिए। अस्पृश्य भी सोचने लगे हैं कि उनके लिए अपमानजनक काम है, इसलिए वे इन कामों के करने से इंकार करने लगे हैं। लेकिन ये काम हिंदुओं द्वारा अस्पृश्यों से उनकी मर्जी के बिना जबरदस्ती कराए जाते हैं। जून 1938 के 'जीवन' में यह समाचार छपा है:
“मई 1938 में एक दिन अलीगढ़ जिला, थाना बर्ला, गांव बिपौली में जब भज्जू राम जाटव लगभग ग्यारह बजे दिन में अपने घर में था, तब पृथीक, होडल, सीताराम देवी और चुन्नी नाम के कुछ ब्राह्मण लाठियां लिए हुए उसके घर आए और उन्होंने भज्जू से मरे हुए मवेशी को उठाने के लिए चलने के बारे में जोर-जबरदस्ती की और जब उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि मैं यह काम नहीं करता हूं, आप किसी और को ले जाएं जो यह काम करता है, तब उन ब्राह्मणों ने उसकी निर्दयतापूर्वक लाठियों से मारा-पीटा। "
इसी पत्रिका के अक्तूबर 1938 के अंक में निम्नलिखित समाचार छपा है:
"चौबीस अक्तूबर 1938 को मथुरा जिले की सादाबाद तहसील के लोध नारी गांव में एक ब्राह्मण का कोई मवेशी मर गया। जब गांव के अस्पृश्य लोगों से मुर्दा जानवर को उठाने के लिए कहा गया, तब उन्होंने इंकार कर दिया । इससे हिंदू इतने चिढ़ गए कि उन्होंने अनुसूचित जाति के लोगों से कहा कि वे उनके खेतों में टट्टी-पेशाब के लिए नहीं जा सकते और न ही उनके जानवर उनके खेतों में चर सकते हैं। "