अस्पृश्यों को इस स्थापित व्यवस्था के अंतर्गत पढ़ने-लिखने का कोई अधिकार नहीं है और गांव के स्कूल में दाखिला लेने का तो निश्चित ही कोई अधिकार नहीं है। जिन अस्पृश्यों ने स्थापित व्यवस्था को तोड़ने का साहस किया है, उन्हें हिंदुओं ने कड़ी सजा दी है। इस प्रकार की अनेक घटनाओं में से कुछ घटनाएं निम्नलिखित हैं:
लाहौर से छपने वाले 30 जून, 1921 के 'आर्य गजट' से:
" एक महाशय ने 'यंग इंडिया' में एक लेख में लिखा है कि सूरत जिले में सिसोदरी नाम एक गांव है। यहां थोड़े दिनों में इतनी राष्ट्रीय जागृति आ गई है कि यह गांव असहयोग आंदोलन के लिए मानो एक आदर्श बन गया है। लेकिन इसके बावजूद भी यहां हरिजनों के प्रति वैसा ही उपेक्षा भाव है, जैसा पहले था । लेखक का कहना है कि मैंने इस गांव के राष्ट्रवादी स्कूल की एक कक्षा में ढेड जाति के एक बच्चे को एक कोने में सबसे अलग दूर बैठे देखा। उसके चेहरे मोहरे से लग रहा था कि वह एक अस्पृश्य बालक है । मैंने विद्यार्थियों से पूछा कि वह इस बालक को अपने साथ क्यों नहीं बिठाते? तो उन्होंने जवाब दिया कि हरिजन लोग जब तक दारू पीना और मांस खाना नहीं छोड़ेंगे, तब तक ऐसा नहीं होगा । वह हरिजन बच्चा तुरंत बोल उठा कि, मैंने यह सब छोड़ दिया है, इस पर सवर्ण जाति के बच्चे कुछ नहीं बोले । "
बारह फरवरी 1923 के 'प्रताप' में महाशय संतरामजी ने लिखा है :
"हाल ही में सरकार ने एक ब्राह्मण अध्यापक की नियुक्ति की और उसे गांव में चमारों के बच्चों के स्कूल में पढ़ाने के लिए भेजा। जब वह वहां पहुंचा तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और दूसरी जाति के लोगों ने उसका बायकाट किया और कहा, तुम यहां चमारों को पढ़ाने और उन्हें हमारे बराबर करने के लिए क्यों आए ?"
ग्यारह अप्रैल 1924 के 'तेज' में स्वामी श्रद्धानंद ने लिखा है :
" खत्सयास में एक राष्ट्रवादी स्कूल है। मैं यहां 1921 में नवंबर महीने के आखिरी दिनों में गया था। वहां मैंने पूछा कि इस स्कूल में कितने हरिजन बच्चे पढ़ते हैं। मुझे बताया गया कि सिर्फ तीन और ये भी कक्षा के बाहर बरामदे में बैठते हैं। मैंने अपने भाषण में इसे बुरा कहा और कहा कि राष्ट्रवादी स्कूल में इन बच्चों को कक्षा के भीतर बैठने की इजाजत होनी चाहिए। स्कूल के मैनेजर ने मेरी सलाह के अनुसार काम किया। अगले दिन स्कूल की सभी बेंचें खाली थीं और आज तक उस राष्ट्रवादी स्कूल में ताला पड़ा हुआ है। "
अठारह अप्रैल 1924 के 'मिलाप' से :
“यह घटना हौशंगाबाद की है। जिला परिषद ने स्कूलों को एक परिपत्र भेजा कि हरिजन बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया जाए । हेडमास्टरों ने इन आदेशों का पालन करना शुरू कर दिया। जब एक स्कूल ने कुछ हरिजन बच्चों को अपने यहां दाखिला दिया, तब इस पर आनरेरी मजिस्ट्रेट को बहुत बुरा लगा और उसने उस स्कूल से अपने बच्चों को हटा लिया। बाकी लोगों ने भी ऐसा ही किया। इन सबने मिलकर स्कूल समिति की बैठक बुलवाई, जिसमें प्रस्ताव पास किया गया कि स्कूलों में हरिजन बच्चों का दाखिला जनता की भावनाओं के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि हरिजन बच्चों के साथ बैठने से ब्राह्मण बच्चों को अपने-अपने जनेऊ बदलने पड़ते हैं, इसलिए यह स्कूल समिति हरिजन बच्चों को पढ़ाने का उत्तरदायित्व नहीं ले सकती।"
तीन अप्रैल, 1932 के 'प्रताप' से :
'अहमदाबाद, पहली अप्रैल 1932, बड़ौदा राज्य के नवगांव से समाचार मिला है कि जब से हरिजनों के स्कूल बंद कर दिए गए हैं और हरिजनों के बच्चों को गांव के सामान्य स्कूलों में दाखिला लेने की अनुमति दे दी गई है, गांव वालों ने हरिजनों को निरंतर सताना शुरू कर दिया है। बताया गया है कि हरिजन किसानों के भूसे के ढेर के ढेर जला दिए गए हैं। उनके कुओं में मिट्टी का तेल डाल दिया गया है और उनके घरों में आग लगाने की कोशिश की गई है। जब एक हरिजन बच्चा स्कूल जा रहा था तो उसे रास्ते में मारा-पीटा गया और खुले आम हरिजनों का सामाजिक बहिष्कार किया जा रहा है। "
'हिंदुस्तान टाइम्स' के 26 मई, 1939 के अंक से :
"खबर है कि जिले में कातीपूर गांव में कुछ लोगों ने एक रात्रि पाठशाला पर हमला कर दिया, जहां किसान और दूसरे लोगों को पढ़ाया जाता था । उन लोगों ने अध्यापक को पकड़ लिया और उससे स्कूल बंद कर देने के लिए कहा, क्योंकि अस्पृश्यों के लड़के पढ़-लिख लेने के बाद बराबरी का बर्ताव करने लगेंगे। जब अध्यापक ने उनकी बात नहीं मानी तो उसकी पिटाई की गई और बालकों को भगा दिया गया। "
इस संबंध में मैं आखिरी उदाहरण 1935 की एक घटना का दे रहा हूं, जो बंबई प्रेसिडेंसी में अहमदाबाद जिले में धोलका तालुका में कवीथा गांव में 8 अगस्त, 1935 को हुई थी।
"बंबई सरकार ने जब सरकारी स्कूलों में अस्पृश्यों के बच्चों को दाखिल किए जाने के बावत आदेश जारी कर दिए, तब कवीथा गांव के अस्पृश्यों ने सोचा कि क्यों न इस आदेश का लाभ उठाया जाए। लेकिन उन पर जो कुछ गुजरी, वह निम्नलिखित है:
"आठ अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अस्पृश्य अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिए ले गए। इसे देखने के लिए स्कूल के चारों तरफ बहुत से सवर्ण हिंदू जमा हो गए। दाखिले की कार्यवाही शांतिपूर्वक संपन्न हो गई और कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। लेकिन अगले ही दिन गांव के सवर्ण हिंदुओं ने अपने - अपने बच्चों को उस स्कूल से हटा लिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे अस्पृश्यों के बच्चों के साथ पढ़ें और उन्हें छूत लग जाए।
'उसके कुछ दिनों के बाद एक ब्राह्मण ने 13 अगस्त, 1935 को एक अस्पृश्य को मारा-पीटा। उस गांव के कुछ अस्पृश्य लोग उस ब्राह्मण के खिलाफ मजिस्ट्रेट की कचहरी में फौजदारी की शिकायत लिखवाने के लिए धोलका पहुंचे। जब हिंदुओं ने देखा कि अस्पृश्यों के घरों में पुरुष वर्ग नहीं है, तब उन्होंने उनके घरों पर हमला बोल दिया। वे सभी लाठी, भाला और तलवारें लिए हुए थे। हमला करने वालों में सवर्ण हिंदुओं की औरतें भी थी। उन्होंने अस्पृश्य बूढ़ों और औरतों को मारना पीटना शुरू कर दिया। इनमें से कुछ तो जंगलों में भाग गए। कुछ अपने दरवाजे बंद कर अपने-अपने घरों में छिप गए। इन हमला करने वालों ने उन अस्पृश्यों पर अपना गुस्सा उतारा, जिन पर उन्हें अपने बच्चों को गांव के स्कूल में दाखिला लेने के मामले में अगुवाई करने का शक था। उन्होंने उनके दरवाजे तोड़ डाले और जब उन्हें वे लोग नहीं मिले, तब उन्होंने उनके घरों की छतों की खपरैल और धन्नियां तहस-नहस कर दी । "
"जिन अस्पृश्यों को मारा-पीटा गया था, उन्हें अपने उन सगे-संबंधियों की चिंता थी, जो धोलका गए हुए थे और जो अब लौटने वाले थे। जब सवर्ण हिंदुओं को यह पता चला कि धोलका से वे लोग लौटने वाले हैं, तब वे झाड़ियों में छिपकर बैठ गए। जैसे ही एक अस्पृश्य औरत को इस बात का पता चला, वह रात के अंधेरे में छिपकर गांव से बाहर निकल गई। वह उन लोगों से मिली, जो वापस लौट रहे थे और उसने उन्हें बताया कि सवर्ण हिंदुओं का गिरोह हथियारों से लैस होकर उनकी ताक में झाड़ियों में छिपा बैठा है, और इसलिए वे गांव न जाएं। उन्होंने यह सोचकर उस औरत की बात को अनसुनी कर दिया कि उनकी गैरहाजिरी में तो हिंदू लोग और भी ज्यादा जुल्म ढा सकते हैं। साथ ही वे इस बात से भी सहमें हुए थे कि वे अगर वे गांव में घुसे तब वे मार डाले जाएंगे। इसलिए वे लोग आधी रात तक गांव के बाहर एक खेत में पड़े रहे। इस बीच हिंदुओं का गिरोह जो झाड़ियों में छिपा हुआ था, हार कर गांव लौट गया। अस्पृश्य अपने-अपने घरों में रात में करीब तीन बजे लौटे। अगर वे इससे पहले आ गए होते तो उनकी मुठभेड़ जालिम हिंदुओं के गिरोह से हो जाती और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया होता। जब उन्होंने देखा कि उनके घरों को बुरी तरह से उजाड़ दिया गया है, तब वे सवेरा होने के पहले अहमदाबाद पहुंच गए और उन्होंने हरिजन सेवक संघ के मंत्री को सारी घटना कह सुनाई। यह संस्था वही है, जो श्री गांधी ने अस्पृश्यों के कल्याण के लिए स्थापित की है । लेकिन मंत्री भी लाचार था। सवर्ण जाति के लोगों ने न केवल मार-पीट की, बल्कि उन्होंने हरिजनों का जीना दूभर कर देने का षड्यंत्र रच रखा है। उन्होंने अस्पृश्यों को मजदूरी पर रखने से मना कर दिया है। उन्होंने अस्पृश्यों को खाने का सामान बेचने से भी मना कर दिया है। वे अस्पृश्यों के मवेशियों को चरने देने से रोकने लग गए हैं और जब-तब मौका पाकर अस्पृश्य औरतों और आदमियों को मारने-पीटने लगे हैं। यही नहीं, उन्होंने गुस्से में उस कुएं में मिट्टी का तेल भी डाल दिया, जिससे अस्पृश्य अपने पीने के लिए पानी लिया करते हैं। ऐसा उन्होंने कई दिनों तक किया । इसका नतीजा यह हुआ कि अस्पृश्य पीने के पानी के लिए तरसने लगे। जब नौबत यहां तक पहुंच गई तो उन्होंने सोचा कि इस बारे में क्यों न मजिस्ट्रेट के यहां फौजदारी का मामला दायर कर दिया जाए। उन्होंने यह मुकदमा 17 अक्टूबर को दायर कर दिया। यह मुकदमा कुछ सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ दायर किया गया है । "
" इस मामले में सबसे अजीब पक्ष श्री गांधी और उनके सहयोगी सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका का है। श्री गांधी ने यह पूरी घटना जानते हुए कि सवर्ण जाति के लोगों ने कवीथा गांव के अस्पृश्यों पर क्या-क्या अत्याचार और जुल्म किए अस्पृश्यों को केवल यही सलाह देना ही काफी समझा कि वे गांव को छोड़ दें। उन्होंने इन बदमाशों पर अदालत में मुकदमा दायर करने की सलाह तक नहीं दी। उनके सहयोगी श्री वल्लभभाई पटेल ने जो भूमिका अदा की वह तो और भी ज्यादा अजीब थी। वह सवर्ण हिंदुओं को यह समझाने कवीथा गए कि वे अस्पृश्यों पर जुल्म न करें। पर उन्होंने पटेल की एक न सुनी। इसके बावजूद इस व्यक्ति ने अस्पृश्यों की इस बात का विरोध किया कि उन लोगों पर मुकदमा दायर किया जाए और अदालत से उन्हें सजा दिलवाई जाए। उनके इस विरोध के बावजूद अस्पृश्यों ने शिकायत दर्ज कराई। लेकिन उन्होंने अस्पृश्यों पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वे सवर्ण हिंदुओं के विरुद्ध की गई इस शिकायत को उनके द्वारा यह भरोसा दिलाने पर वापस ले लें कि वे उन पर अब आगे ज्यादती नहीं करेंगे। लेकिन अस्पृश्य इस समझौते को कभी भी लागू नहीं करा सके। अस्पृश्यों ने अत्याचार को भोगा और श्री गांधी के मित्र श्री वल्लभभाई पटेल की सहायता से अत्याचारी साफ-साफ बच गए। "