Phule Shahu Ambedkar फुले - शाहू - आंबेडकर
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अस्पृश्यता और अराजकता  (भाग - 4)  - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

IX

    अस्पृश्य लोग साफ-सुथरे कपड़े नहीं पहन सकते, न ही वे सोने-चांदी के जेवर पहन सकते हैं। अगर अस्पृश्य इस नियम का पालन नहीं करते तब हिंदुओं को उनको सबक सिखाने में कोई संकोच नहीं होगा। अस्पृश्य इस नियम को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन इसका क्या नतीजा होता है, यह निम्नलिखित घटनाओं से स्पष्ट है, जो समाचार-पत्रों में अक्सर प्रकाशित होती रहती हैं:

    "1922 तक बूंदी के बरार जिले के बलाई नामक अस्पृश्य जाति को गेहूं का आटा खाना मना था। फरवरी 1922 को जयपुर के सकतगढ़ में एक चमार स्त्री को इसलिए मारा-पीटा गया कि उसने अपने पैरों में चांदी के जेवर पहन रखे थे। उसे बताया गया कि चांदी के जेवर केवल बड़ी जाति के लोग ही पहन सकते हैं और वे ही गेहूं का आटा खा सकते हैं। नीच जाति के लोग इनकी उम्मीद न करें। अब तक हम यही सोचते थे कि ये पुराने रीति-रिवाज समय के साथ-साथ बीत चुके हैं। "

    साफ-सुथरे कपड़े और सोने के गहने पहनने पर मध्य भारत की अस्पृश्य बलाई जाति के लोगों पर जो अत्याचार किया गया, उसके बारे में 'टाइम्स' आफ इंडिया' के 4 जनवरी, 1928 के अंक में निम्नलिखित समाचार प्रकाशित हुआ:

    "मई 1927 के महीने में इंदौर जिले के कनारिया, बिछौली हप्सी, बिछौली मरदाना और लगभग पंद्रह अन्य गांवों के सवर्ण हिंदुओं अर्थात् पाटिलों और पटवारियों सहित कलोतों, राजपूतों और ब्राह्मणों ने अपने-अपने गांवों में बलाई जाति के लोगों को यह चेतावनी दी कि अगर वे लोग गांव में उनके साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें निम्नलिखित नियमों का पालन करना पड़ेगा ।

    1. बलाई जाति के लोग जरी की किनारी वाली पगड़ी नहीं पहनेंगे,

    2. वे रंगीन या फैंसी किनारीदार धोती नहीं पहनेंगे,

    3. वे हिंदू की मृत्यु होने पर उसके रिश्तेदारों को खबर करने जाएंगे, चाहे वे कितने ही दूर क्यों न रहते हों,

    4. वे हिंदुओं के यहां विवाह के अवसर पर बरात के आगे और विवाह के दौरान गाने-बजाने का काम करेंगे,

    5. बलाई स्त्रियां फैंसी लहंगा व कुर्ता नहीं पहनेंगी,

    6. बलाई स्त्रियां हिंदू घरों में दाई वगरैह का काम करेंगी,

    7. बलाइयों को ये खिदमतगारी बिना उजरत करनी होगी और हिंदू खुशी से जो दें, उसे उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा, और

    8. अगर बलाई इन शर्तों को नहीं मानते हैं तो वे गांव छोड़ दें।

    जब बलाइयों ने इन शर्तों को मानने से इंकार कर दिया, तब हिंदुओं ने उनके विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर दी। बलाइयों का कुओं से पानी लेना बंद कर दिया गया। वे अपने जानवरों को चरा नहीं सकते थे। बलाइयों का हिंदुओं की जमीन पर से होकर गुजराना बंद कर दिया गया। अगर किसी बलाई के खेत के चारों ओर हिंदुओं के खेत थे, तो उसका अपने खेत तक जाना रोक दिया गया। हिंदुओं ने अपने जानवर बलाइयों के खेत में चरने के लिए छोड़ दिए  ।

    बलाइयों ने इंदौर दरबार में इन अत्याचारों के खिलाफ गुहार की, परंतु उन्हें समय पर मदद नहीं मिली और अत्याचार बढ़ता गया। सैकड़ों बलाइयों को अपने बाल-बच्चों सहित अपने - अपने गांव छोड़ने पड़े, जहां उनके पुरखे पीढ़ियों से रहते थे और उन्हें पड़ोस की धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर नाम रियासतों के गांव में रहने के लिए जाना पड़ा।

    हाल में रेवती गांव के हिंदुओं द्वारा जो इंदौर शहर के उत्तर में सिर्फ आठ मील दूर है, बलाइयों के बारे में अन्य हिंदुओं द्वारा बनाए गए नियमों के आध र पर स्टाम्स लगे शर्तनामा पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया, जिसे करने से बलाइयों ने इंकार कर दिया। कहा जाता है कि उनमें से कुछ बलाइयों की हिंदुओं ने पिटाई की, एक बलाई को खंबे से बांध दिया गया और उससे कहा गया कि उसे तभी छोड़ा जाएगा जब वह समझौते पर हस्ताक्षर के लिए राजी हो जाएगा।

asprushyata aur arajakta dr Bhimrao Ramji Ambedkar

    एक अन्य घटना 21 जनवरी, 1928 के 'आर्य गजट' में छपी है:

    'अब तक लोग यही समझते थे कि हरिजनों पर अत्याचार की घटनाएं अधिकतर मद्रास में होती हैं, लेकिन अब शिमला के महाराणा का व्यवहार सुनकर लोगों का भ्रम दूर हो गया है। अब इन घटनाओं के लिए इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं। शिमला जिले में एक जाति है 'कोली' जिसके लोग काफी सुंदर और मेहनती होते हैं। उस इलाके के हिंदू इन्हें अस्पृश्य मानते हैं, हालांकि वे ऐसा कोई काम नहीं करते, जिसके कारण उन्हें हिंदू धर्म में अस्पृश्य कहा जाए। इस जाति के लोग न केवल बलिष्ठ और सुडौल होते हैं, बल्कि वे बुद्धिमान भी होते हैं। शिमला की पहाड़ियों और उसके आसपास रहने वाले लोगों द्वारा जो भी गीत गाए जाते हैं। वे इन्हीं कोलियों के ही रचे हुए हैं। ये लोग दिन-भर मेहनत करते हैं और ब्राह्मणों को बहुत सम्मान देते हैं, लेकिन तो भी वे ब्राह्मणों के घरों के पास से होकर नहीं जा सकते। उनके बच्चे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं पढ़ सकते। उनकी स्त्रियां सोने के आभूषण नहीं पहन सकतीं। कहा जाता है कि कुछ कोली पंजाब गए और वहां उन्होंने पैसा कमाया, जिससे उन्होंने सोने की अगूठियां और कानों की बालियां खरीदीं। जब वे इन वस्तुओं को लेकर अपने- अपने घर लौटे तब उन्हें जेल भेज दिया गया ओर उन्हें तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक कि उन्होंने ये सारी चीजें रियासत के अधिकारियों की नजर नहीं कर दीं।

    तेईस जून 1926 के 'प्रताप' समाचार पत्र में निम्नलिखित पत्र छपा है:

    स्वामी रामानंद सन्यासी लिखते हैं। 23 मार्च, 1926 की शाम को मेरे पास जाटों के चंगुल से छूटकर एक चमार आया। उसने मुझे गुड़गांव जिले में फरीदाबाद के पास खेड़ी गांव में अपनी जाति के लोगों पर किए गए अत्याचार की एक बड़ी दर्दभरी घटना सुनाई। मैं 24 मार्च को सवेरे फरीदाबाद पहुंचा, ताकि मैं इस मामले की छानबीन खुद कर सकूं। मैंने जो कुछ छानबीन की, उससे निम्नलिखित तथ्यों का पता चला -

    "गोरखी नाम के एक चमार की लड़की का ब्याह 5 मार्च को हुआ । इस चमार की आर्थिक स्थिति अन्य चमारों की तुलना में अच्छी थी, और उसने अपने मेहमानों का स्वागत ठीक वैसे ही किया, जैसे ऊंची जातियों में किया जाता है। जब उसने अपनी बेटी को विदा किया, तो उसे सोने के तीन जेवर दे दिए। यह खबर जाटों में फैल गई और उनमें इस बात की खूब चर्चा रही। आखिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि नीची जाति के आदमी ने उनकी बराबरी करने की जो कोशिश की है, उससे ऊंची जाति के लोगों की तौहीन हुई है। 20 मार्च के सवेरे तक कोई वारदात नहीं हुई । लेकिन 21 तारीख को जाटों ने इस पर विचार करने के लिए एक पंचायत बुला ली। उसी दिन चमारों का एक दल जिसमें ज्यादातर लड़के, लड़कियां और औरतें थीं, मेहनत-मजदूरी करने फरीदाबाद जा रहा था। अभी वे कुछ ही दूरी पर धर्मशाला के आस-पास ही पहुंचे थे कि जाटों ने हमला बोल दिया। आदमियों को बुरी तरह मारा-पीटा गया और औरतों की जूतों से खबर ली गई। कुछ की कमर की हड्डी तोड़ दी गई और कुछ के हाथ-पैर तोड़े गए। यही नहीं हुआ, बल्कि उनके औजार तक छीन लिए गए। उस समय उधर से एक मुसलमान गुजर रहा था। जाटों ने उसे भी पकड़ लिया और उससे कानों की सोने की बालियां तथा 28 रुपये छीन लिए। 22 मार्च, को कुछ जाटों का एक दल चमारों के खेतों में घुस गया और उसने वहां सब कुछ तहस-नहर कर दिया। इसमें लगभग एक हजार रुपये तक की फसल का नुकसान था। उसी समय कोरी का बेटा ननुआ खेत में काम कर रहा था। जाटों ने उसे भी मारा-पीटा। इसके बाद 22 मार्च को ही जाटों का एक और दल निकल आया, जो मिट्टी के तेल में भिगोई हुई जलती मशालें लिए हुए था। उनका इरादा चमारों के घरों में आग लगाने का था, लेकिन वे लोग लौट आए। 23 मार्च की आधी रात को उस लड़की के दादा के मकान में आग लगा दी गई, जिसका विवाह उक्त 5 मार्च को हुआ था । इस समय यह मकान राख का ढेर हो चुका है। यहां लगभग 90 रुपये मूल्य की जूते बनाने की छत तैयार खालें रखी हुई थी। मकान में रखे अन्य सामान के साथ ये खालें भी जल गईं। अब हालत यह है कि जाटों ने कस्बे को घेर रखा है, जिससे कोई चमार बाहर न जा सके। जाटों के डर के मारे बनियों ने भी चमारों को सौदा बेचना बंद कर दिया है। तीन दिन से चमार और उनके मवेशी भूख से मर रहे हैं। "

    अभी हाल ही में एक घटना मलाबार में हुई। इस घटना का ब्यौरा मलाबार में वहां के एम. एल. ए. श्री के कन्नन की अध्यक्षता में 5 जून को चेरुकुन्न में हुई प्रथम चिराकल तालुका हरिजन कांफेस में पारित निम्नलिखित प्रस्ताव में मिलता है:

    यह कांफ्रेंस हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा मलाबार की अनुसूचित जातियों पर अमानवीय दमन की बढ़ती हुई घटनाओं, विशेष रूप से पोन्नानी तालुका के नत्तिका फिरका गांव की अनुसूचित जातियों पर बेरोक-टोक किए जा रहे भयंकरतम दमन की घटनाओं की और सरकार और जनता से तुरंत ध्यान देने का अनुरोध करती है, जहां लगभग नियमित रूप से हरिजनों का प्रतिदिन आखेट इसलिए किया जा रहा है कि वे सोने के आभूषण और साफ - सुथरे कपड़े पहनने तथा छाते रखने की कोशिश करने लगे हैं। मारपीट की अनेक घटनाओं के अतिरिक्त, एक हरिजन बरात को लूटा गया और बरातियों को मारा-पीटा गया, आदमियों के कुर्ते वगैरह और औरतों की साड़ियां जबरदस्ती उतरवा ली गईं तथा 27 मई, 1945 को वदनपिल्ली में एक हरिजन विद्यार्थी को निर्दयतापूर्वक पीटा गया। यह कांफ्रेंस यहां के प्रगतिशील थिया नवयुवकों के प्रति आभार प्रकट करती है, जिन्होंने सर्वश्री सी. एस. गोपालन, एम. एस. संकरनारायणन और पी. सी रामकृष्ण वाडियार के प्रबुद्ध नेतृत्व में हरिजनों की सहायता करने का अपूर्व प्रयास किया। लेकिन साथ ही स्थानीय अधिकारियों, विशेष रूप से पुलिस विभाग के प्रति उनकी घोर लापरवाही के लिए गंभीर अंसतोष भी व्यक्त करती है, जिसके कारण इन उत्पीड़ित हरिजनों को उनसे समय पर कोई भी सुरक्षा नहीं मिली।

    यह कांफ्रेंस यह भी सूचित करती है कि उक्त दमन के लगभग हर मामले में पीड़ित हरिजनों को पुलिस से न तो कोई सुरक्षा ही मिली है और न उससे कोई न्याय ही मिला। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें इन बेचारे हरिजनों को इन मामलों की गवाही देने के लिए आगे आने पर पुलिस द्वारा मारा-पीटा तक गया। इन घटनाओं के कारण मलाबार के हरिजनों की काफी दुर्दशा है और अगर इन घटनाओं को ऐसे ही होने दिया गया, तब यह बहुत बड़ा संकट हो जाएगा, जिससे उन सभी प्रगतिशील हरिजनों की जान-माल को खतरा उत्पन्न हो सकता है, जो मलाबार में जात-पांत और स्वार्थी लोगों द्वारा आर्थिक शोषण की बेड़ियों को तोड़ने में लगे हुए हैं। यह कांफ्रेंस भारत सरकार, आनरेबुल, डॉ. भीमराव अम्बेडकर और देश के अन्य प्रबुद्ध व्यक्तियों से यह हार्दिक अनुरोध करती है कि वे कृपया यह सुनिश्चित करें कि इस देश में हरिजनों को लोकतंत्रात्क देश के स्वतंत्र नागरिक की भांति रहने दिया जाए, वे किसी के भी द्वारा सताए न जाएं और जब कभी औरों के द्वारा उनका दमन हो, तब प्रशासनिक तंत्र द्वारा उनको तुरंत सुरक्षा प्रदान की जाए। "


X


    साधन संपन्न होने पर भी अस्पृश्य को स्वादिष्ट भोजन नहीं करना चाहिए । अगर वह अपने जीवन में इस स्थिति से ऊपर उठना चाहता है, तब वह अपराध करता है । 'प्रताप' के 26 फरवरी, 1928 के अंक में निम्नलिखित घटना छपी है:

    "जोधपुर रियासत में एक जगह है, चंदयाल । यहां आपको अभी भी ऐसे लोग मिलेंगे, जो यह सोचते हैं कि हरिजनों को हलवा खाने तक का अधि कार नहीं है। यहां अनुसूचित जातियों में एक जाति है, सरगारो । कुछ दिनों पहले वहां दो-तीन लड़कियों की शादी के मौके पर बरातियों के लिए हलवा बनवाया गया था। इस काम के लिए ठाकुर साहब के यहां से मैदा लाया गया। खाना खाने के वक्त पर बराती खाना खाने आए, तभी चंदयाला के कुंवर साहब ने सरगारो के लिए यह हुकुम कहलवा भेजा कि वे हलवा नहीं खा सकते हैं। इस पर कुछ दरबारी चापलूसों ने बातचीत कर यह तय किया कि कुंवर साहब को दो सौ रुपये नजर किए जाएं और तब हलवा खाने की इजाजत दे दी जाएगी। इस पर सरगारो लोग भड़क उठे और उन्होंने रुपया नजर करने से इंकार कर दिया । "


XI


    हर सवर्ण हिंदू को गांव की प्रधान गलियों से बरात ले जाने का अधिकार है। इस बात का भी प्रमाण है कि जिस जाति को यह अधिकार मिला हुआ है, वह जाति आदर का पात्र समझी जाती है। अस्पृश्यों को इस प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन वे अपनी बरातें गांव की प्रधान गलियों से निकालते हैं, और ऐसा कर वे इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए अपना हक जताते रहते हैं, जिसका उद्देश्य समाज में अपनी सत्ता स्थापित करना होता है । उनके इस हक के बारे में हिंदुओं की प्रतिक्रिया क्या होती है, यह निम्नलिखित घटना से स्पष्ट है।

    जुलाई 1927 के ' आदि हिंदू' से:

    "बंगलौर 27 मई, 1927 प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट ने सात ब्राह्मणों पर सौ-सौ रुपये का जुर्माना किया। इन लोगों ने सर्वविदित पेरिया अस्पृश्य जाति के एक जुलूस पर, जब वह माजकोट रोड से गुजर रहा था, जहां केवल ब्राह्मण रहते हैं, मनमाने से हमला किया। "

पच्चीस अक्तूबर 1931 के 'प्रताप' से :

“गढ़वाल जिले के हरगांव नामक एक गांव में ऊंची जाति के हिंदुओं ने जब यह सुना कि अस्पृश्यों की एक बरात आ रही है और दूल्हा पालकी में आ रहा है तो वे बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए और उन्होंने बरात को घेर लिया तथा लोगों की जमकर पिटाई की। उन्होंने कड़कड़ाती ठंड में बरात को 24 घंटे तक भूखा रोके रखा। बरातियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया और पुलिस के आने पर ही उन्हें इस कठिन परिस्थिति से मुक्ति दिलाई जा सकी।"

    लाहौल के 3 नवंबर, 1931 के 'सत्य संवाद' से:

    "एक बरात दिल्ली के पास से गुजर रही थी, जिसमें दूल्हा पालकी में बैठा हुआ था। इस पर ऊंची जाति के लोगों की भौंहें चढ़ गईं और उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने दो दिन तक बरात को भूखा-प्यासा रोके रखा। आखिर में पुलिस आई और उसने इन अत्याचारियों को खदेड़ दिया तथा बरात को मुक्ति दिलाई। "

    जून 1938 की 'जीवन' पत्रिका से:

    1.  “सैवड़ा गांव में गोला (पूर्व ठाकुर) लोगों ने जो कांग्रेसी होने का गर्व करते हैं, इस गांव के निहत्थे जाटवों को भालों और लाठियों से इस कदर बेरहमी से मारा-पीटा कि इनमें से पांच अस्पताल में घायल पड़े हैं, उनके हाथ-पांव और पसलियां तोड़ दी गई हैं। बंसी नाम के एक आदमी की खोपड़ी की हड्डियां टूट गई हैं और वह अब तक बेहोश पड़ा है। इस घटना का कारण यह था कि गांव में जब इन लोगों की बरात आई तो दूल्हे ने चमकीना मौर पहन रखा था। इससे ठाकुरों को मिर्चं लग गईं और उन्होंने बरात पर हमला करना चाहा। लेकिन वे इसलिए पीछे हट गए, क्योंकि बरातियों की संख्या ज्यादा थी। उन्हें अपनी जमींदारी में बरातियों को गालियां देकर ही संतोष कर लेना पड़ा।"

    2. " आगरा जिले की तहसील फतेहगढ़ के गांव दोर्रा में मोती राम जाटव के यहां रामपुर गांव से बरात आई। दूल्हे ने चमकीना मौर पहन रखा था और बरात के साथ बैंड-बाजा चल रहा था, साथ ही आतिशबाजी भी हो रही थी। इस पर सवर्ण हिंदुओं ने एतराज किया कि बरात के साथ बाजा नहीं बज सकता और आतिशबाजी नहीं हो सकती। मोती राम ने इसका विरोध किया। उसने कहा कि हम भी उसी तरह के इंसान हैं, जैसे और लोग हैं। इस पर सवर्ण हिंदुओं ने मोती राम को पकड़ लिया और उसकी पिटाई की तथा बरात पर भी हमला किया। मोती राम की पगड़ी में पंद्रह रुपये और एक आना बंधा हुआ था, वह भी छीन लिया गया । "

    3. " जब एक बरात प्रेम सिंह दिलवर सिंह नाम के जाटवों के यहां गांव खुर्वा जा रही थी जो अलीगढ़ के सासनी थाने के अंतर्गत पड़ता है, तो इस बरात को सवर्ण हिंदुओं ने रास्ते में ही रोक दिया और कहा कि जब तक तुम बाजा बजाना बंद नहीं करोगे, आगे नहीं बढ़ सकते। बरातियों को जान से मार देने और लूट लेने की धमकी दी गई। सवर्ण हिंदू जाटवों से पहले ही चिढ़े बैठे थे, क्योंकि उन्होंने बेगार करना बंद कर दिया था, ऊपर से उन्होंने गाजे-बाजे से बरात चढ़ाकर आग में घी डाल दिया। जब बरात ने बाजा बजाना नहीं रोका तो हिंदुओं को इतना क्रोध आया कि उन्होंने बरात पर पथराव किया। "

    चौबीस मार्च 1945 के 'हिंदुस्तान टाइम्स' में भी इसी विषय पर एक समाचार छपा है:

    "लैंड्स डाउन सब-डिवीजन में धनौरी गांव के शिल्पकार की एक बरात दूल्हे को पालकी में ठिकाकर मालधंगु गांव में दुल्हन के घर जा रही थी। रास्ते में एक आदमी ने जो अपने आपको मालधंगु गांव के पटवारी का एजेंट कहता था, बरातियों को यह सलाह दी कि वे सवर्ण हिंदुओं के लड़ाई-झगड़े से बचने के लिए दूसरे रास्ते से जाएं।

    उसकी सलाह मानकर बरात जंगल के रास्ते चल दी। जब वे एक बियाबान जगह में पहुंचे, तब एक सीटी के बजे ही लगभग दो सौ सवर्ण हिंदू इकट्ठा हो गए। कहा जाता है कि इन हिंदुओं ने बरातियों पर हमला बोल दिया और वे पालकी उठाकर ले गए।

    शिल्पकार की बरात दो दिन बाद दुल्हन के घर पहुंची। कहा जाता है कि विवाह सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट तथा पुलिस की देख-रेख में हुआ। इस सिलसिले में पटवारी को निलंबित कर दिया गया है।"

    लाहौर के 'सिविल एंड मिलीटरी गजट' के 24 जून, 1945 के अंक में निम्नलिखित रिपोर्ट छपी है:

    "कल ग्वालियर रियासत के एक गांव में फरसा, लाठियां और कटारे लिए हुए राजपूतों का एक दल वहां के कुछ हरिजनों पर टूट पड़ा, जिसमें एक हरिजन की मृत्यु हो गई और चार गंभीर रूप से घायल हो गए।

    राजपूतों और हरिजनों के बीच यह तनातनी तभी से चल रही थी, जब वहां के हरिजनों ने ग्वालियर दरबार के एक उत्तराधिकारी का जन्म होने के उपलक्ष्य में एक जुलूस निकाला। राजपूतों ने इसका विरोध किया, क्योंकि उनका कहना था कि हरिजनों को ऐसे समारोह करने का कोई भी अधिकार नहीं है।

    पिछले महीने महाराजा ने एक आदेश जारी किया है, जिसके अनुसार हरिजनों को समान अधिकार दे दिए गए हैं। "

    जब कभी अस्पृश्य लोग हिंदुओं के रीति-रिवाज को अपनाने और कुछ ऊंचा उठने की कोशिश करते हैं, तब हिंदू उनके साथ कितना बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं, इस संबंध में उदाहरण स्वरूप 'बंबई समाचार' के 4 नवंबर, 1936 के अंक में यह घटना छपी है:

    "मलाबार में उत्तपलम में एझवा जाति का शिवरामन नाम एक एक 17 वर्षीय युवक एक सवर्ण हिंदू की दुकान से नमक खरीदने गया और उसने 'नमक' के लिए 'उप्पू' कहा, जो मलयालम भाषा का शब्द है । मलाबार में वहां के रीति-रिवाजों के अनुसार हिंदू ही नमक को 'उप्पू' कह सकते हैं। हरिजन होने के नाते उसे 'पुलिचाटन' शब्द का उच्चारण करना चाहिए था । इस पर ऊंची जाति के दुकानदार को बड़ा क्रोध आया और कहा जाता है कि उसने शिवरामन को इतना मारा कि वह परलोक सिधार गया । "

निम्नलिखित घटनाएं 'समता' से संकलित की गई हैं:

    1. "काठी (जिला पूना) में लोगों ने अस्पृश्यों को इसलिए सताना शुरू कर दिया है, क्योंकि वे अभिवादन करने के लिए 'राम-राम' और 'नमस्कार' कहने लग गए हैं। जो लोग यह नहीं जानते हैं, वे कृपया यह जान लें कि ऊंची जाति के लोग ही इस प्रकार अभिवादन कर सकते हैं। महार आदि जाति के लोगों को चाहिए कि वे अभिवादन करते समय 'जोहार' या 'पाय लागू' कहा करें।

    2. तनू (जिला पूना) के अस्पृश्यों ने स्पृश्य जाति के हिंदू लोगों की तरह व्यवहार करने की कोशिश की। इस धृष्टता के परिणामस्वरूप अधिकांश को गांव छोड़ देना पड़ा है और कुछ बावड़ा चले गए हैं।

    3. वलापुर ( जिला शोलापुर) में महारों पर इसलिए अत्यचार किया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने सवर्ण हिंदुओं को 'साहेब' और 'पाय लागू' कहने से मना कर दिया है।

    4. जमाबाद (जिला शोलापुर) के अस्पृश्यों ने अपने स्पृश्य जाति के मालिकों के मनोरंजनार्थ नाचने और तमाशा करने से इंकार कर दिया था। इसलिए उनको मारा-पीटा गया, उनकी झोपड़ियां जला दी गईं या मिटा दी गईं और उन्हें गांव की सीमा से बाहर निकाल दिया गया।

    5. बावड़ा (जिला पूना) में अस्पृश्यों ने अपनी बिरादरी वालों से कहा कि वे ऊंची जातियों की जूठन खाना छोड़ दें, मरे ढोर न उठाएं और अन्य गंदे काम न करें। गांव के मुखियाओं ने महारों से कहा कि उनका धर्म यही है कि वे अब तक जिस तरह खाना खाते वे जो काम करते आए हैं, वही वे आगे भी करते रहें। जिन महारों ने अपना पुराना और सदियों से चला आ रहा 'धर्म' छोड़ दिया, उन्हें लोगों ने मारा-पीटा और गांव से बाहर निकाल देने की धमकी दी। "



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