ज्योतिबा फुले के शिक्षा सम्बन्धी विचार

     आधुनिक दृष्टि से जिसे हम शिक्षा कहते हैं, वह शिक्षा जोतीराव के जन्म से पूर्व अस्तित्व में ही नहीं थी। जहाँ उच्चवर्णीयों की अधिक बस्ती होती थी, वहाँ कुछ शास्त्री निजी पाठशालाएँ चलाते थे। इन पाठशालाओं में संस्कृत, व्याकरण, विधि, चिकित्साशास्त्र, ज्योतिष, वेद, अलंकार और धर्मशास्त्र जैसे विषय पढ़ाये जाते थे। लोगों में यह धारणा बनी हुई थी कि समाज के निम्न जाति के लोगों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उन्हें शिक्षा प्रदान करने के लिए उच्चवण्र्ाीयों ने कभी विचार तक नहीं किया। कुछ कस्बों में बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने वाली पाठशालाएँ थी। वहाँ अध्यापक द्वारा व्यापारियों और धनवानों के बच्चों को शिक्षा दी जाती थी। क्र्लकी, साहूकारी अथवा व्यापार करने के लिए कुछ पढ़ना-लिखना आना चाहिए, इतने सीमित उद्देश्य से, ये पाठशालाएँ चलाई जाती थीं। ज्योतिबा फुले भी इस अन्धकारपूर्ण युग से गुजरे थे और कई कटु अनुभव उनको हुए थे।

Thoughts on Education of Mahatma Jyotiba Phule     ज्योतिबा स्पष्टतया जानते थे कि यहाँ के जटिल सामाजिक जीवन में सदियों की दासता और व्यापक गरीबी, धार्मिक कट्टरता, जाति-पाति संप्रदायवाद और छुआछूत की भावना ने दलितों और मेहनतकश जातियों में शिक्षानुराग की मूल कल्पना को ही मृतप्राय बना डाला है। न उनमें कोई चेतना है, न उनमें उत्साह।

     जोतिबा की पैनी नजर यह भाँप गयी थी। युगों से पिछड़े हुए अछूतों तथा स्त्रियों को ऊपर उठाना है, तो शिक्षा के अलावा दूसरा रास्ता नहीं। शिक्षा के सहारे ही वे यह जान लेंगे कि वे आज जहाँ हैं, वहाँ क्यों हैं ?

     फुले ने शिक्षा का महत्व समझ लिया था। केवल अविद्या के कारण शूद्र अतिशूद्र तथा नारी गुलामी का जीवन जी रही है ऐसा उनका स्पष्ट मत था। उनका निम्नलिखित वचन उनके शिक्षा सम्बन्धी दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है-

     फुले ने ‘किसान का कोड़ा’ पुस्तक के प्रारम्भ में शिक्षा के महत्व के बारे में तथा उसकी कमी के कारण शूद्रों को जो नुकसान उठाना पड़ा एवं अशिक्षा जनित अज्ञान के कारण उनकी जो अधोगति हुई है उसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया है, जो इस प्रकार है:-

     ‘‘विद्या बिना मति गई, मति गई तो नीति गई,
     नीति गई तब गति ना रही, गति ना रही तो वित्त गया
     वित्त बिना शूद्र धँसे-धँसाये
     इतने अनर्थ अकेली अविद्या ने ढ़ाये।’’

     विद्या के न होने से बुद्धि नहीं; बुद्धि न होने से नैतिकता न रही; नैतिकता के न होने से गतिमानता न आई; गतिमानता के न होने से धन-दौलत न मिली, धन-दौलत न होने से शूद्रों का विनाश हुआ। इतना अनर्थ एक अविद्या से हुआ।

     अंग्रेज भारत में साम्राज्यवाद की पकड़ मजबूत बनाने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए कृत संकल्प थे, लेकिन उनकी अधिक चिंता अपने राजकाज चलाने में अंग्रेजी पढ़े-लिखे सहायक नौकरशाहों, लिपिकों के समुचित प्रशिक्षण की थी। यूरोपीय देशों में जो औद्योगिक तकनीकी क्रान्ति आई थी, जो विचार-स्वातंत्र्य की लहर उठी थी उसे भी नजर अंदाज नहीं कर सकते थे।

     हिन्दुस्तान के शिक्षा संबंधी सवालों की छानबीन करके उसमें सुधार के सुझाव देने के लिए सरकार ने 1882 में विलियम हंटर नामक व्यक्ति की अध्यक्षता में ‘हंटर कमीशन’ नामक एक आयोग बनाया। यह आयोग सार्वजनिक क्षेत्रों के प्रमुख व्यक्तियों से मिलने, उनसे पूछताछ और चर्चा करने के लिए सारे देश में घूम रहा था। इस आयोग की सहायता के लिए ब्रिटिश भारत के सभी प्रान्तों में एक समिती स्थापित की गई। अपने प्रान्त की शिक्षा-सम्बंधी परिस्थिति की जानकारी इस आयोग को प्रस्तुत करना इन प्रान्तीय समितीयों का काम था।

     इसके अनुसार आयोग ने प्रत्येक प्रान्त के शिक्षा-संबंधी सवालों की जानकारी लेकर शिक्षाविदों से विचार-विमर्श किया। कुछ लोगों ने लिखित रूप में अपने विचार आयोग के पास भेजे। जोतीराव इन्हीं लोगों में से एक थे। ‘किसान का कोड़ा’, ‘गुलामगिरी’, ग्रन्थों में ज्योतिबा फुले के शैक्षणिक विचार मिलते हैं। ‘हन्टर शिक्षा आयोग’ को पेश किए निवेदन में ज्योतिबा फुले के शिक्षा से सम्बन्धित सभी विचारों का समावेश हुआ है।

     महात्मा फुले ने 19 अक्टूबर 1882 को प्रस्तुत किये अपने निवेदन में अपना वर्णन करते हुए यह कहा है कि मैं एक व्यापारी, किसान और नगरपिता हूँ। उनके द्वारा स्थापित विद्यालयों का और अपने शैक्षिक कार्य का भी उन्होंने इस निवेदन में उल्लेख किया है। शिक्षक के रूप में इतने वर्षो तक किये कार्य के साथ ही शिक्षा क्षेत्र में अपने अनुभव के बारे में भी उन्होंने इसमें जानकारी दी है। ‘गुलामगिरी’ नामक अपने ग्रन्थ के कुछ परिच्छेद देकर उन्होंने निवेदन का आरम्भ किया है। प्रस्तुत प्रतिवेदन के आरम्भ में जोतीराव ने स्त्रियों तथा शूद्रों की शिक्षा के लिए स्कूलों के नितांत अभाव की चर्चा की है। इस अभाव की पूर्ति के लिए स्वयं तथा उनकी पत्नी द्वारा आरम्भ किए गए कार्यो एवं उनसे प्राप्त अनुभवों का इसमें विवरण दिया गया है।

     उस समय शिक्षा-क्षेत्र में अंग्रेजों का आयात किया हुआ ‘फिल्टर डाउन’ सिद्धान्त प्रचलित था। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत माना जाता था कि सरकार नगरों में रहने वालें ऊँचें वर्गो को अंग्रेजी के माध्यम से ऊँची शिक्षा दे और गॉव खेड़ों में रहने वालें बहुजन समाज को उसकी मातृभाषा में शिक्षा देने का दायित्व ऊँचे वर्गो को सौंप दिया जाए लेकिन जाति भेदों के कारण यह सिद्धान्त विफल हो गया। जोतीराव ने इस सिद्धान्त का कड़ा विरोध किया, उसकी विफलता बताई और खतरों की भी चर्चा की। उन्होनें आयोग से निडरता से कहा- ‘‘आप शिक्षा का प्रारम्भ नीचे से ऊपर करे, ऊपर से नीचे नही।’’

     जोतिबा का कहना था कि उच्च वर्ग अपनी शिक्षा की व्यवस्था खुद कर लेगा। सरकार को उसकी ओर अधिक ध्यान देने की जरूरत नहीं। इसकी जगह अगर वह प्राथमिक शिक्षा की ओर ज्यादा ध्यान देती है, तो अन्य वर्गो से उन्हें असंख्य प्रामाणिक और भले लोग कामकाज चलाने के लिए मिल जाएंगे।

प्राथमिक शिक्षा -

     फुलें ने प्राथमिक शिक्षा को विशेष महत्व दिया था। जोतिबा ने स्पष्टतया यह कहा कि जनता को दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की हालत बहुत ही खराब है। सरकार की शिक्षा विषयक नीति ही मूलत: अव्यावहारिक और अदूरदश्र्ाी होने के कारण यह हुआ है। प्राथमिक स्कूल है लेकिन उनकी तादात पूरी नहीं है।

     जोतीराव ने आगे कहा है कि मुम्बई क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा की काफी उपेक्षा हुई है। प्राथमिक विद्यालयों को उचित साधन महैया कराये नही जाते। सरकार शिक्षा के लिए विशेष ‘कर’ वसूल करती है और वे रूपये जिस कार्य के लिए लिये जाते है, उस कार्य पर खर्च नहीं किये जाते। इस बात पर बड़ा दु:ख होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस प्रान्त के अनेक गॉवों के लगभग 10 लाख बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा की कोई सुविधा उपलब्ध कराई नहीं गई है। शिक्षा का अभाव ही उनकी दरिद्रता, स्वावलंबन का अभाव और शिक्षित तथा बुद्धिमान लोगों पर निर्भर रहने की उनकी आदत का कारण है। किसान और दूसरे गरीब लोग प्राथमिक शिक्षा से कोई लाभ उठा नहीं पाते। उनमें से कुछ गिने-चुने लोगों के बच्चें ही प्राथमिक और मध्यमिक विद्यालयों में दिखाई पड़ते है, परन्तु वे विद्यालयों में अधिक समय तक नहीं रह पाते क्योंकि उनके माता-पिता अपनी दरिद्रता के कारण उन्हें जानवरों की रखवाली और खेती के काम मे लगा देते है। वे विद्यालय में आकर नियमित रूप से पढ़े, इसलिए सरकार ने उनके लिए कोई छात्रवृत्ति या इनाम की व्यवस्था नही की है। इस बारे में शिकायत करते हुए जोतीराव कहते है, ‘‘मेरी ऐसी राय है कि लोगों को प्राथमिक शिक्षा कुछ हद तक अनिवार्य ही की जाए। कम से कम 12 वर्ष की उम्र तक तो अनिवार्य करनी ही चाहिए। मराठी और अंग्रेजी में रूचि न होने के कारण मुसलमान भी इससे दूर ही रहे है। उनकी भाषा पढ़ाने वालें विद्यालयों की संख्या ऊँगलियों पर गिनी जा सकती है।

     जोतीराव ने शिकायत की है कि पाठशालाओं में अतिशूद्र जातियों के छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है और उन्हें ऊँची जातियों के छात्रों के पास बैठने नही दिया जाता। वे यह भी बताते है कि सरकार ने उनके लिए अलग पाठशालाएँ खोली तो है, लेकिन ऐसी पाठशालाएँ सिर्फ बड़े नगरों में है। उन्होनें सुझााव दिया है कि जिन गॉवों में अतिशूद्रों की संख्या बड़ी होगी, वहॉ उनके लिए अलग पाठशालाएँ खोली जाएँ।

     फुले के अनुसार सरकारी विद्यालयों में जो प्राथमिक शिक्षा दी जाती है, उसे मजबूत और संतोषप्रद नींव पर खड़ा करना चाहिए। विद्यार्थियों को वह शिक्षा भविष्य में उचित और व्यवहारोंपयोगी साबित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम और शिक्षा-प्रणाली में पूरी तरह सुधार किया जाना चाहिए। शिक्षकों की नौकरी के नियम और शर्ते अधिक सुविधाजनक होनी चाहिए। उनके वेतन और स्तर में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए। अध्यापनशास्त्र की परीक्षा दिये हुए शिक्षकों को ही विशेषत: नियुक्ति की जानी चाहिए।

शिक्षकों की नियुक्ति तथा वेतन -

     फुलें के अनुसार प्राथमिक विद्यालय में फिलहाल जिन शिक्षकों की नियुक्ति की गई है, वे अधिकतर ब्राह्मण है। उनमें से कुछ सामान्य शिक्षक विद्यालय से उत्तीर्ण हुए है। बचे हुए अधिकतर शिक्षक अप्रशिक्षित है। उनका वेतन नगण्य है। उनका मासिक वेतन शायद ही कभी दस रूपयें से अधिक होता है। इसलिए उनका कार्य भी उसी के अनुसार अपर्याप्त और असंतोषजनक होता है। मेरी तो यह राय बनी है कि प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक सम्भवत: अध्यापन की परीक्षा उत्तीर्ण हुए हो। अच्छे तथा योग्य लोग पढ़ाई के क्षेत्र में रहे इसलिए शिक्षकों का वेतन बढ़ाना जरूरी है। वह किसी भी हालत में 12 रूपया से कम न हो। बड़े गाँवों में वह 15 से बीस तक हो। जिन स्कूलों के छात्र अधिक संख्या में उत्तीर्ण होगे, उन स्कूलों के अध्यापकों को वेतन के अलावा खास भत्ता दिया जाए।

     इस प्रकार हम देखते है कि फुलें का दृष्टिकोण बहुत व्यवहारिक है। अच्छे शिक्षक को तैयार करने के लिए उसकी व्यक्तिगत और व्यवहारिक समस्याओं की तरफ भी ध्यान देना अत्यन्त जरूरी है जिससे वो अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सके।

पाठ्यक्रम में सुधार -

     जोतीराव ने अपने प्रतिवेदन में पाठ्यक्रम में परिवर्तन लाने के भी सुझाव दिए थे। उनके विचारों में प्राथमिक स्कूल के पाठ्यक्रम में निम्नांकित विषय सम्मिलित किए जाने चाहिए- ‘मोडी’ व बाल-बोध (देवनागरी) में लेखन -वाचन, गणित, इतिहास-भूगोल, व्याकरण का प्राथमिक ज्ञान, कृषि का प्राथमिक ज्ञान, नीति और स्वास्थ्य से संबद्ध सरल पाठ। बड़े शहरों की तुलना में ग्रामीण स्कूलों का पाठ्यक्रम कुछ कम होना चाहिए किन्तु व्यवहारों-पयोगिता की द ृष्टि से उसमें कोई कमी नहीं होनी चाहिए। विद्यार्थियों को कृषि-संबंधी पाठों के साथ-साथ उसका प्रत्यक्ष व्यवहारिक प्रशिक्षण देने से सम्पूर्ण देश का बहुत लाभ होगा।134 प्राथमिक और ऐंग्लोवर्नाक्युलर विद्यालयों में जो किताबें है, उनका सुधार और पुनर्रचना की जानी चाहिए क्योंकि वे व्यवहारोंपयोगी नहीं है। उनसे उनकी प्रगति को गति नहीं मिल पाएगी। तकनीकी, नैतिक, स्वास्थ्य-सम्बन्धी, खेती-सम्बन्धी और कुछ उपयोगी कला के विषयों की भी इसमें बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी हो, ऐसी योजना बनानी चाहिए।

प्राथमिक शालाओं की निरीक्षण योजना में सुधार -

     इन स्कूलों की निरीक्षण व्यवस्था सदोष है। साल में एकाध बार ही स्कूल की जाँच की जाती है। उससे कोई लाभ नहीं। कम से कम हर तीन माह के बाद स्कूलों की जॉच की जाय। बिना पूर्वसूचना दिए अगर इन्स्पेक्टर जाँच के लिए जाते है, तो और भी ठीक होगा। प्राथमिक शिक्षा पर खर्च होने वाली निधि पर शिक्षा विभाग के निदेशक का सामान्य तौर पर नियंत्रण हो। जिला या स्थानीय बोर्ड में शिक्षित और बुद्धिमान लोगों की यदि नियुक्ति की जाए, तो कलेक्टर के मार्गदर्शन के तहत उनकी शिक्षा की निधि उनके हवालें की जाए। अधिकतर अज्ञानी और अशिक्षित लोग जिला बोर्ड में नियुक्त किये जाते है। वे पाटिल, इनामदार, सरदार या दूसरें इस प्रकार के गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से होते है। वे उस निधि पर योग्य रूप से नियन्त्रण नहीं रख पाएँगे।

ज्योतिबा फुलें ने प्राथमिक स्कूलों की संख्या-वृद्धि के लिए भी सुझाव दिये थे जो इस प्रकार है-

     उन सभी स्कूलों को उदारमन से अनुदान प्रदान किया जाए, जिनमें प्रमाण-पतित शिक्षकों की नियुक्ति की जाएगी अथवा इस प्रकार के शिक्षक जिनमें पहले से ही विद्यमान हों।
     स्थानीय करो से उपलब्ध धन-राशि में से आधी रकम केवल प्राथमिक शिक्षा पर ही खर्च होनी चाहिए।
     नगर पालिकाओं की सीमा में स्थित सभी स्कूलों को निजी खर्च से चलाए जाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार द्वारा विधिवत एक कानून भी पास करना उचित होगा।
     प्रांतीय अथवा केन्द्रीय कोष से पूरा अनुदान प्राप्त करने की युक्ति निकालनी होगी।
     बड़े शहरो की नगरपालिकाओं को चाहिए वे अपनी सीमा में स्थित सभी स्कूलों का पूरा व्यय स्वयं वहन करें।

     इस प्रकार हम देखते है कि प्राथमिक शिक्षा पर फुले द्वारा दिये विचार आज भी महत्वपूर्ण बने हुए है। चाहे वो पाठ्यक्रम मे सुधार की बात हो या निरीक्षण योजना।

     देशी पाठशालाओं की स्थिति पर विचार - जोतीराव ने अपने निवेदन में प्राथमिक पाठशालाओं की स्थापना उनके विकास-विस्तार तथा व्यवस्थित संचालन के लिए उपर्युक्त सुझावों को प्रस्तुत करने के उपरान्त देशी पाठशालाओं की परिस्थितियों पर भी गहराई से विचार किया। उस समय देशी पाठशालाएं परम्परागत प्राचीन ग्रामीण शिक्षा-प्रणाली पर चल रही थी। उसमें विद्यार्थियों को साधारण गणित, मोड़ीलिपि में लेखन-वाचन तथा धार्मिक ग्रंथों के श्लोक-उद्धरणों को रटनें मात्र का अभ्यास कराया जाता था। इन पाठशालाओं के शिक्षकों को शिक्षण-शास्त्र की तनिक भी जानकारी नहीं होती थी। अत: वे शिक्षा-पद्धति में सुधार लाने के लिए सामान्यत: अयोग्य सिद्ध होते थे। अत: फुले का मानना था कि ऐसे लोगों से शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने की आशा करना व्यर्थ होगा। पेट पालने का आखिरी रास्ता मानकर वे इस पेशे में आते है। जब तक विद्यमान शिक्षकों के स्थान पर प्रशिक्षण महाविद्यालयों से प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त नही किये जाते तब तक इन स्कूलों से कोई ठोस लाभ नहीं होगा। जहाँ ऐसे सुयोग्य शिक्षक हैं, उन्ही स्कूलों को अनुदान दिया जाय।

     इस प्रकार से जोतीराव ने पाठशालाओं को वास्तविक सुधार योग्य तथा सुशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति पर ही मुख्य रूप से निर्भर माना है।

उच्च शिक्षा-

     उच्च शिक्षा के बारे में जोतिबा का कहना था कि सरकार खुले हाथ से उच्च शिक्षा के लिए खर्च करती है, लेकिन इससे बहुजन समाज की शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो रही है। मैं यह नहीं चाहता कि जिन लोगों को यह मदद मिल रही है, उन्हें वह न मिले। लेकिन दुर्लक्षित होने वाले एक पूरे वर्ग की ओर अगर सरकार ध्यान दे तो ठीक होगा। अभी इस देश की शिक्षा बाल्यावस्था में है। अगर उच्च शिक्षा के लिए किया जाने वाला अनुदान रोका गया तो शिक्षा प्रसार की दृष्टि से वह घातक सिद्ध होगा।
जोतीराव के विचारों में मध्यम तथा कनिष्ठवर्ग के लोगों में शिक्षा की उल्लेखनीय प्रगति अब तक भी नही हो सकी है। ऐसी अवस्था में इस वर्ग को अनुदान से वंचित रखना बहुत विपत्तिजनक होगा। यदि इन लोगों के लिए अनुदान बंद कर दिया जाएगा तो उन्हें अयोग्य तथा संकीर्ण दृष्टि के व्यक्तियों द्वारा संचालित स्कूलों मे प्रवेश लेने के लिए विवश होना पड़ेगा। फलत: शैक्षणिक कार्य की हानि हुए बिना नहीं रहेगी। जोतीराव का सुनिश्चित मत था कि किसी भी स्तर की शिक्षण-व्यवस्था को निजी प्रबंधकों को सौपना अभीष्ट नहीं होगा। आगे आने वाले बहुत समय तक सभी स्तरों पर दी जा रही शिक्षा और उसकी प्रबन्ध-व्यवस्था को चाहे वह औद्योगिकी हो, चाहे प्रशासनिक, सरकारी नियन्त्रण में रखना ही उचित होगा। प्राथमिक तथा उच्च दोनों स्तरों की शिक्षा के संवर्द्धन में अपेक्षित आस्था और कृपा-दृष्टि केवल सरकार ही दिखा सकती है।

     मुम्बई विश्वविद्यालय का गौरव करके जोतीराव ने कहा कि ‘‘मुम्बई विश्वविद्यालय निजी तौर पर शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने की अनुमति देता है और यह लोगों के लिए एक वरदान ही है। उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में भी विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा, लोगों को इसी प्रकार का वरदान प्राप्त होगा, ऐसी आशा है। बी0ए0, एम0ए0 की उपाधि के लिए निजी तौर पर की गई पढ़ाई को विश्वविद्यालय यदि मान्यता देता है, तो कई युवा विद्याथ्र्ाी निजी तौर पर पढ़ाई करने का प्रयास करेंगे। उनके द्वारा ऐसा करने से शिक्षा का प्रसार तेजी से होगा।’’

     एक प्रकार से देखे तो फुले का यह विचार आज की दूरस्थ शिक्षा की तरह है। इससे यह पता चलता है कि उनके शिक्षा सम्बन्धी विचार कितने महत्वपूर्ण हैं और वह अपने समय से कितना आगे थे।
छात्रवृत्ति देने की सरकार की पद्धति के सम्बन्ध में जोतीराव ने कहा कि ‘‘छात्रवृत्ति कुछ इस प्रकार दी जाए कि जिस वर्ग में शिक्षा की प्रगति नहीं हुई है, उस वर्ग के बच्चों को कुछ छात्रवृत्तियॉ मिले छात्रवृत्ति के लिए होड़ लगातार छात्रवृत्ति देने की पद्धति योग्य होने पर भी इससे निम्न वर्ग में शिक्षा प्रसार के लिए सहायता न होगी’’।

     फुले का मानना था कि सरकारी महाविद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप सर्वसाधारण जीवन की जरूरतें पूरी कर सके ऐसा नहीं है। उसमें भी व्यावहारिकता की कमी है। वह छात्रों को स्वतंत्र जीवन जीना सिखा नहीं पाती। जोतीराव की धारणा में उच्च शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से की जानी चाहिए कि उसकी प्राप्ति सहज और सर्वजन सुलभ हो।

     इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम देखते है कि फुले ने हन्टर आयोग के सम्मुख जो सुझाव दिये थे वह बहुत महत्वपूर्ण थे। जिनका सारांश निम्न प्रकार है:-

     बम्बई विश्वविद्यालय ने परीक्षार्थियों को घर पर पढ़ाई कर प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित होने की अनुमति दी है। सभी विश्वविद्यालयों को अपनी उच्चतर परीक्षाओं में यह प्रथा अपनानी चाहिए। इससे युवक-युवतियां घर पढ़ाई करके स्नातक बन सकेगे। इससे व्यापक शिक्षा प्रचार-प्रसार होगा।

     सरकारी पाठशालाओं में सरकारी छात्रतृत्तियों की जो प्रणाली है उसे बदला जाए क्योंकि इससे कमजोर वर्ग के छात्रों की उपेक्षा होती है। जिस वर्ग में पहले से ही विद्या का चलन है, शिक्षा और जागृति आई हुई है उसे ही और प्रोत्साहन देने से उपेक्षित वर्गो का तिरस्कार होगा, इसे रोका जाए।

     व्यवहारिक रूप से जिन वर्गो को छात्रतृत्तियां नहीं मिल रही उन्हें अधिक प्रोत्साहित किया जाए।
     तकनीकी और व्यवहारोपयोगी शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए।
     रोजगारपरक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए क्योंकि केवल बाबू वर्ग पैदा करने वाली शिक्षा काफी नहीं। शिक्षितों की संख्या जब सौ गुनी हो जाएगी तब दफ्तरी रोजगार कहाँ से उपलब्ध होगे, इसलिए शिक्षा व्यवसायोन्मुखी होनी चाहिए।
     जाति निष्ठ विद्यालयों को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए, इससे अन्य वर्गो को उपेक्षा झेलनी पड़ती है।
     स्त्री-शिक्षा और विशेषतया वंचित वर्गो की महिलाओं के लिए शिक्षा का विशेष प्रबंध किया जाए।
     प्राथमिक शिक्षा को बंबई प्रेसीडेंसी और अन्य जगहो पर अनिवार्य किया जाए।
     हर जाति और वर्ग के शिक्षक नियुक्त किए जाएं ताकि एक ही वर्ग की प्रधानता न हो और समाज में तालमेल की कमी न आने पाए।
     शिक्षकों का वेतनमान सुधारा जाए क्योंकि शिक्षक ही बच्चें का चरित्र निर्माता होता है और यही आज के बच्चे भविष्य के निर्माता होते है।
     विदेशी मिशनरी शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य कर रहे है, उसका स्वागत; लेकिन यह शिक्षा धर्म परिवर्तन के लिए एक हथियार नहीं बनाई जानी चाहिए।

     उपरोक्त शिक्षा सम्बन्धी विचारो का अध्ययन करने के पश्चात यह पता चलता है कि फुले एक महान शिक्षाशास्त्री भी थे। उनके द्वारा 19 वीं सदी में प्रस्तुत किए गए शिक्षा संबंधी विचार आज 21वीं सदी में भी अनुकरणीय हैं और हमारे भारतीय समाज के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। भारतीय समाज के सर्वांगीण विकास के लिए उन्होंने इस दृष्टिकोण से विचार प्र्रस्तुत किए। फुले के यह विचार देश की गरीब जनता के कल्याण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है।

     फुले के अनुसार शिक्षा सीधे विकास व समृद्धि से जुड़ी है। भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने भी बाद में इसी तथ्य को उजागर किया।

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