रानाडे, गांधी और जिन्ना - लेखक - डॉ. भीमराव अम्बेडकर
18 जनवरी, 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में
के 101 वें जयंती समारोह में दिया गया भाषण
1943 में पहली बार प्रकाशित
1943 में संस्करण का पुनर्मुद्रण
पूना की दकन सभा ने मुझे स्वर्गीय न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे के 101वें जन्मदिन पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। जन्मदिन 18 जनवरी 1940 को मनाया जाना था। मैं आमंत्रण को स्वीकार करने के लिए अधिक उत्सुक नहीं था। इसका कारण था। मैं जानता था कि रानाडे संबंधी किसी भाषण में सामाजिक या राजनीतिक समस्याओं पर मेरे विचारों को टाला नहीं जा सकता था और वे श्रोताओं को और शायद दकन सभा के सदस्यों को भी बहुत प्रीतिकर नहीं लगेंगे। पर अंततः मैंने उसे स्वीकार कर लिया। जब मैंने यह भाषण दिया था तो उस समय इसे प्रकाशित करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। महापुरुषों की जयंतियों पर दिए गए भाषण साधारणतया अवसर - विशेष के लिए होते हैं। उनका अधिक स्थायी मूल्य नहीं होता। मैंने यह नहीं सोचा था कि मेरा भाषण इसका अपवाद है, परंतु मेरे कुछ उत्पाती मित्र हैं। वे इस समूचे भाषण को छपा हुआ देखने के लिए उत्सुक रहे हैं और इसे छपवाने के लिए आग्रह करते रहे हैं। मैं इस विचार के प्रति तटस्थ व उदासीन हूं। इसका जो प्रचार-प्रसार हुआ है उससे मैं पूर्णतया संतुष्ट हूं। उससे अधिक की मुझे कोई आकांक्षा व इच्छा नहीं है। साथ ही, यदि कुछ लोग ऐसे हैं जो यह सोचते हैं कि इसे गुमनामी के अंधेरे में गुम होने से बचाना आवश्यक है, तो उनको निराशा करने का कोई कारण मुझे नहीं दीख पड़ता ।
प्रकाशित भाषण में और दिए गए भाषण में दो प्रकार से अंतर है। पहला तो यह कि भाषण का खंड X भाषण देते समय छोड़ दिया गया था, ताकि उसे नियत समय के अंदर पूरा किया जा सके। इस खंड के बिना भी इस भाषण को देने में डेढ़ घंटा लगा था। दूसरा अंतर यह है कि खंड VIII के एक बड़े हिस्से को छोड़ दिया गया है। इसमें रानाडे की फुले के साथ तुलना की गई थी। इसे छोड़ देने के दो कारण हैं। एक तो यह कि तुलना पर्याप्त रूप से इतनी पूर्ण तथा विस्तृत नहीं थी कि दोनो व्यक्तियों के साथ न्याय किया जा सके। दूसरा कारण यह है कि उस समय पर्याप्त कागज के मिलने में कठिनाई थी। उससे मुझे भाषण के कुछ अंश को छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। अतः मुझे इस अंश का त्यागना ही सबसे उपयुक्त प्रतीत हुआ ।
भाषण को विचित्र परिस्थितियों में प्रकाशित किया जा रहा है। साधारणतया समीक्षाएं प्रकाशन के बाद होती हैं। इस मामले में स्थिति उल्टी है। कोढ़ में खाज यह है कि समीक्षाओं में भाषण की अत्यंत कठोर शब्दों में निंदा की गई है। मुख्यतः यह प्रकाशकों का सिरदर्द है। मुझे खुशी है कि प्रकाशक जोखिम को जानता है और उसे उठा रहा है। इसके बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है केवल यह कहना है कि यह भाषण मेरे मित्रों के इस विचार की पुष्टि करता है कि इसमें ऐसी सामग्री है, जिसका क्षणिक से अधिक मूल्य है। जहां तक मेरा संबंध है, मैं समाचार-पत्रों में प्रकाशित इस भाषण की निंदा से तनिक भी दद्विग्न नहीं हूं। इसकी निंदा का आधार क्या है ? और इसकी निंदा करने के लिए कौन आगे आया है?
मेरी निंदा इसलिए की जाती है कि मैंने श्री गांधी और श्री जिन्ना की उस गड़बड़ी के लिए आलोचना की, जो उन्होंने भारतीय राजनीति में फैलाई। अतः मुझ पर यह आरोप लगाया जाता है कि ऐसा करके मैंने उनके प्रति घृणा और अनादर की भावना व्यक्त की है। इस आरोप के उत्तर में मुझे यह कहना है कि मैं एक आलोचक रहा हूं और आलोचक ही मुझे रहना चाहिए। हो सकता है कि मैं गलती कर रहा हूं, परंतु मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि गलती करना बेहतर है, बजाए इसके कि दूसरों से मार्गदर्शन प्राप्त किया जाए या चुपचाप बैठा जाए तथा स्थिति को बिगड़ने दिया जाए। जो लोग मुझ पर यह आरोप लगाते हैं कि मैं उनके प्रति घृणा की भावना से प्रेरित हूं, वे दो बातों को भूल जाते है। पहली बात तो यह है कि यह कथाकथित घृणा किसी ऐसी बात से उत्पन्न नहीं हुई है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके। यदि मैं उनके विरुद्ध हूं तो उसका कारण यह है कि मैं समझौता चाहता हूं। मैं कोई न कोई समझौता चाहता हूं। मैं किसी एक आदर्श समझौते की प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं हूं। न मैं किसी ऐसे व्यक्ति को सहन कर सकता हूं, जिसकी इच्छा तथा सहमति पर समझौते की मान-मर्यादा व प्रतिष्ठा निर्भर करे और जो मुगले आजम की तरह व्यवहार करे। दूसर बात यह है कि यदि व्यक्ति का प्रेम तथा घृणा प्रबल नहीं है तो वह यह आशा नहीं कर सकता कि वह अपने युग पर कोई प्रभाव छोड़ सकेगा और ऐसी सहायता प्रदान कर सकेगा, जो महान सिद्धांतों तथा संघर्ष की अपेक्षी ध्येयों के लिए उचित हो । मैं अन्याय, अत्याचार, आडंबर तथा अनर्थ से घृणा करता हूं और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें करते हैं। वे इनके दोषी हैं। मैं अपने आलोचकों को यह वास्तविक बल व शक्ति मानता हूं। वह बताना चाहता हूं कि मैं अपने घृणा - भावों को केवल उस प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, जो मैं उन ध्येयों व उद्देश्यों के लिए प्रकट करता हूं, जिनके प्रति मेरा विश्वास है। उसके लिए मुझे किसी प्रकार की शर्म महसूस नहीं होती। अतः श्री गांधी तथा श्री जिन्ना की मैंने जो आलोचना की है, उसके लिए मैं कोई क्षमा-याचना या खेद प्रकट नहीं करता, क्योंकि इन दोनों महानुभावों ने भारत की राजनीतिक प्रगति को ठप्प कर दिया है।
मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार - पत्रों द्वारा की जाती हैं। मैं कांग्रेसी समाचार - पत्रों को भलीभांति जानता हूं। मैं उनकी आलोचना को कोई महत्व नहीं देता। उन्होंने कभी भी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया है। वे तो केवल मेरे हर कार्य की आलोचना, भर्त्सना व निंदा करना जानते है। वे तो मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करता है और उसका गलत अर्थ लगाते हैं। मेरे किसी भी कार्य से कांग्रेसी पत्र प्रसन्न नहीं होते। यदि मैं कहूं कि मेरे प्रति कांग्रेसी पत्रों का यह द्वेष व बैर भाव अछूतों के प्रति हिन्दुओं के घृणा भाव की अभिव्यक्ति ही है, तो अनुचित नहीं होगा । उनका यह द्वेष मेरे प्रति वैयक्तिक हो गया है, यह इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेसी पत्रों को तब भी कष्ट होता है, जब मैं उस जिन्ना की आलोचना करता हूं, जो विगत अनेक वर्षों से कांग्रेस की आलोचना का विषय तथा लक्ष्य रहा है। कांग्रेसी पत्र इन गालियों की बौछार मुझ पर करते हैं। वे कितनी भी तीखी तथा गंदी क्यों न हों, मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना है। मैं मूर्तिपूजक नहीं हूं। मैं तो मूर्तिभंजक हूं। मेरा आग्रह है कि मैं यदि श्री गांधी तथा श्री जिन्ना से घृणा करता हूं तो मैं उन्हें केवल पसंद नहीं करता, मैं उनसे घृणा नहीं करता। उसका कारण यह है कि मैं भारत से अधिक प्रेम करता हूं। यह एक राष्ट्रवादी की सच्ची निष्ठा है। मुझे आशा है कि मेरे देशवासी किसी न किसी दिन यह सीख लेंगे कि देश व्यक्ति से कहीं महान होता है। श्री गांधी या जिन्ना की पूजा और भारत के सेवा में आकाश-पाताल का अंतर है और वे परस्पर विरोधी भी हो सकती हैं।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर
22, पृथ्वीराज रोड, नई दिल्ली 15 मार्च, 1943