Phule Shahu Ambedkar फुले - शाहू - आंबेडकर
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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग ६ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     नाओमी रूथ से कहता है, 'तुम्हारी बहन उसके अपने लोगों में और अपने देवताओं में चली गई है। '

     और रूथ उत्तर देता है, 'तुम्हारे लोग मेरे लोग होंगे और तुम्हारा ईश्वर मेरा ईश्वर होगा।'

     यह बात सर्वथा स्पष्ट है कि प्राचीन संसार में राष्ट्रीयता में परिवर्तन के लिए संप्रदाय (पंथ) में परिवर्तन अनिवार्य था। सामाजिक एकरूपता का मतलब धार्मिक एकरूपता था।

Hindutva Ka Darshan -  Dr Babasaheb Ambedkar     आधुनिक समाज में सामाजिक एकरूपता के लिए किसी एक धर्म का त्याग करना अथवा दूसरे धर्म को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। यह बात आधुनिक व्याख्या में, जिसे स्वाभाविकरण कहा जाता है, स्पष्ट होती है, जिसमें एक राज्य का नागरिक अपनी नागरिकता का त्याग करता है और किसी नए राज्य का नागरिक बनता है। स्वाभाविकरण की इस प्रक्रिया में धर्म का कोई स्थान नहीं है। कोई भी व्यक्ति धार्मिक एकरूपता प्राप्त कर सकता है और इसी का दूसरा नाम स्वाभाविकरण है।

     आधुनिक समाज के प्राचीन समाज से भिन्नता स्पष्ट करने के लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है कि आधुनिक समाज केवल मनुष्यों का बना है। उसके साथ, यह बात भी माननी होगी कि आधुनिक समाज उन मनुष्यों का बना है, जो भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं।

     मत-भिन्न्ता का पांचवां मुद्दा धर्म के एक भाग के रूप में देवताओं के स्वरूप के ज्ञान से संबंधित है।

     “प्राचीन दृष्टिकोण से देवता स्वयं क्या है, यह प्रश्न धार्मिक नहीं किन्तु काल्पनिक है। धर्म के लिए यह आवश्यक है कि देवता जिन नियमों का पालन करते हैं, उनके उपासकों को उनकी व्यावहारिक जानकारी हो, और वे उनसे तदनुसार आचरण करने की अपेक्षा करते हैं। इसे 2 किंग्स के पाठ 17, श्लोक 26 में धरती के 'आचार' अथवा प्रायः 'पारंपरिक नियम' (मिस्फात) कहा गया है। यह बात इजराइल के धर्म के लिए भी लागू है। जब धर्मोपदेशक अपनी सरकार के कानूनों तथा सिद्धांतों के ज्ञान की बात करते हैं और पूरे धर्म का सार स्पष्ट करते हैं, तब वह 'जहोवा का ज्ञान तथा भय' ही है अर्थात् जहोवा ने क्या निर्देश दिए हैं, वे निर्देश और उनका आदरयुक्त पालन । धर्मोपदेशकों के ग्रंथों में सभी धार्मिक सिद्धांतों के प्रति अत्यधिक संदेह व्यक्त किया गया है जो धर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए उचित है, क्योंकि कितनी भी चर्चा की जाए, वह मनुष्य को इस सरल नियम के आगे नहीं ले जा सकती है कि वह 'ईश्वर से डरे और उसकी आज्ञा का पालन करे।' यह उपदेश लेखक ने सोलोमन के मुख से दिया है और इसलिए वह, अन्यायपूर्ण पद्धति से नहीं, बल्कि धर्म के प्रति प्राचीन दृष्टिकोण का निश्चित ही प्रतिनिधित्व करती है, जिसका दुर्भाग्य से आधुनिक काल में महत्व धीरे-धीरे कम हो गया । "

     मत-भिन्नता का छठा मुद्दा धर्म में आस्था का जो स्थान है, उससे संबंधित है। प्राचीन समाज में-

     "यदि स्पष्ट कहा जाए, तो संस्कार तथा व्यावहारिक परंपराएं, यही प्राचीन धर्म का कुल मिलाकर सार था प्राचीन काम में धर्म व्यावहारिक रूप से आस्था की पद्धति नहीं थी, इसे एक स्थिर पारंपरिक क्रिया की संस्था माना जाता था, जिसमें समाज का प्रत्येक सदस्य निर्भय सहमति व्यक्त करता था। मनुष्य मनुष्य नहीं होगा यदि वह बिना किसी तर्क के कोई कार्य करने के लिए सम्मति दे; परंतु प्राचीन धर्म में पहले तर्कों की सिद्धांत रूप में रचना करके बाद में उस पर आचरण नहीं किया गया। इसके विपरीत, पहले आचरण किया गया और बाद में सिद्धांतों की रचना की गई। मनुष्यों ने सर्वसाधारण तत्वों को शब्दों में व्यक्त करने के पहले आचार संहिता के नियम बनाए। राजनीतिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं और इसी प्रकार धार्मिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं। इस तुलना का चयन किसी ने अपनी मर्जी से नहीं किया है, क्योंकि प्राचीन समाज में वास्तव में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्थाओं में परिपूर्ण समानता थी । प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व प्रथा तथा संस्कारों का भारी महत्व था। परंतु इस पूर्व परंपरा का पालन क्यों किया जाता है, इसका स्पष्टीकरण केवल उसकी प्रथम स्थापना की किंवदंती बताकर दिया जाता था। कोई भी प्रथा, एक बाद स्थापित हो जाए, उसे अधिकार- युक्त माना जाता था, और उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती थी। समाज के नियम पूर्व निर्णयों पर आधारित होते थे और समाज का अस्तित्व निरंतर बना रहा है, और इस बात को न्यायसंगत ठहराने के लिए यही कारण पर्याप्त था कि एक प्रथा स्थापित हो जाने के बाद उसे जारी क्यों न रखा जाए। "

     मत-भिन्न्ता का सातवां मुद्दा धर्म से व्यक्तिगत विश्वास से संबंधित है। प्राचीन समाज में-

     "मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उस समाज के संगठित सामाजिक जीवन का धर्म एक हिस्सा था और मनुष्य अपने जीवन में उसका अवचेतनावस्था में उसी प्रकार पालन करता रहता था, जिस प्रकार किसी समाज में रह रहा व्यक्ति उसकी व्यावहारिक प्रथाओं का पालन करता है। जिस प्रकार व्यक्ति राज्य की अनेक प्रथाओं को मानकर उनका अनुसरण करता है, उसी प्रकार देवताओं तथा उनकी उपासना को भी स्वीकार करता है और यदि उन्होंने उस पर कोई बहस की अथवा संदेह प्रकट किया तो वह भी इसी धारणा पर आधारित होता था कि पारंपरिक प्रथाएं स्थिर हैं और उससे परे हटकर कोई भी बहस नहीं की जानी चाहिए और उन्हें किसी भी तर्क के आधार पर बदलने की स्वतंत्रता नहीं थी। हमारे लिए आधुनिक धर्म सर्वप्रथम वैयक्तिक विश्वास तथा तर्कपूर्ण श्रद्धा की बात है, किन्तु प्राचीन लोगों के लिए वह प्रत्येक नागरिक के सार्वजनिक जीवन का भाग था, जो किन्ही निश्चित रूपों में बंधा था और जिसे समझाने की उसे जरूरत नहीं थी और न ही उसे उसकी आलोचना अथवा उपेक्षा करने की स्वतंत्रता थी। धार्मिक अवज्ञा शासन के विरुद्ध अपराध माना जाता था। अगर पवित्र परंपराओं से खिलवाड़ किया जाए तो समाज का आधार भी टूट जाता है, और ईश्वर की कृपा से भी वंचित होना पड़ता है। परंतु जब तक मनुष्य निर्देशित आज्ञाओं का पालन करता था, तब तक उसे सच्चे धार्मिक मनुष्य के रूप में मान्यता थी और उसे किसी से यह नहीं पूछना पड़ता था कि धर्म उसके अंतःकरण में कितना बस गया है अथवा उसके विवेक पर उसका क्या प्रभाव पड़ा है। राजनीतिक कर्तव्यों की तरह, जिसका वह एक अविभाजित भाग था, धर्म भी पूर्णतः बाह्य आचरण के कुछ निश्चित नियमों के पालन से ही ग्रहण किया जाता था । "

     मतभेद का आठवां मुद्दा, देवता के समाज तथा मनुष्य के साथ संबंध और देवता के अधिकारों के संदर्भ में समाज के साथ संबंधों के बारे में है।

     पहले हम देवता के समाज के साथ संबंधों में मत - भिन्न्ता को देखें। इस संबंध में हमारे लिए तीन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

     प्राचीन विश्व की श्रृद्धा ने-

     "भगवान से प्राकृतिक सुखों से अधिक कुछ नहीं मांगा।..... भगवान के सम्मुख जो उत्तम मनोकामनाएं रखी जाती थीं, वह सुखी संसारिक जीवन, विशेषकर भौतिक आवश्यकताएं ही होती थीं।"

     प्राचीन समाज जो चीजें मांगता था और विश्वास रखता था कि वह उसे अपने देवता से मिलेंगी, वे मुख्य रूप से निम्नलिखित होती थीं :

     'भरपूर उपज, शत्रु के विरुद्ध सहायता और नैसर्गिक आपत्तियों में देववाणी द्वारा उपदेश अथवा किसी वक्ता द्वारा सलाह। "

     प्राचीन संसार में-

     " धर्म एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि सारे समाज का विषय था। पूरे समाज को, न कि एक व्यक्ति को देवता के स्थिर और कभी असफल न होने वाली भूमिका में विश्वास था । "

     अब हम देवता के साथ संबंधों के अंतर को देखें।

     "प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण की ओर विशेष रूप से ध्यान देना मूर्तिपूजा के देवताओं का कार्य नहीं था। यह सच है कि लोग अपनी निजी बातें देवता के सामने रखते और उससे प्रार्थना तथा इच्छा व्यक्त करके व्यक्तिगत आशीर्वाद मांगते थे। लेकिन ऐसा वे इस प्रकार करते थे जैसे किसी राजा से कोई निजी उपहार की मांग करता है अथवा जैसे कोई पुत्र अपने पिता से कुछ उपहार मांगते हैं और यह अपेक्षा नहीं करता कि वह सब मिल जाएगा, जिसकी वह मांग कर रहा है। ऐसे प्रसंगों पर देवता यदि कुछ दे भी दे तो उसे एक निजी उपहार ही माना जाता था और देवता के समाज के प्रमुख के रूप में जो योग्य कर्तव्य थे, उसका यह भाग नहीं था ।

     मनुष्य के नागरिक जीवन पर देवताओं का नियंत्रण था। वे उसे सार्वजनिक लाभ, अनाज की वार्षिक उपज तथा भरपूर फसल, राष्ट्रीय शांति अथवा शत्रु पर विजय आदि लाभ पहुंचाते थे। परंतु वे प्रत्येक निजी आवश्यकता में सहायता करेंगे ही, यह आवश्यक नहीं था, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि देवता किसी भी व्यक्ति की उन कामों में मदद नहीं करते थे, जो समूचे समाज के हितों के विरुद्ध होते थे। इसलिए उन सभी संभावित आवश्यकताओं तथा इच्छाओं का, जिन्हें धर्म पूरा करेगा अथवा नहीं करेगा। एक अलग क्षेत्र बना हुआ था। "

     अब, देवता तथा समाज की मनुष्य के प्रति जो भावना है, उसके अंतर को देखते हैं।

     प्राचीन संसार में समाज का व्यक्तिगत कल्याण से लगाव नहीं होता था । निस्संदेह देवता समाज से बंधा होता था। परंतु -

     "देवता तथा उसके उपासकों में ऐसा कोई समझौता नहीं था कि समाज में प्रत्येक सदस्य की निजी चिंता को देवता अपनी चिंता मानें।

     विशेष रूप से फलदायी मौसम, पशुधन में वृद्धि तथा युद्ध में विजय, ऐसे सार्वजनिक लाभ, जो सारे समाज को प्रभावित करते हैं, इनकी देवताओं से अपेक्षा की जाती थी और जब तक समाज फल-फूल रहा है, तब तक किसी का व्यक्तिगत दुख दिव्य देवता की किसी भी प्रकार अवमानना नहीं करता था।"

     इसके विपरीत, प्राचीन संसार किसी मनुष्य के दुख को प्रमाण मानता था-

     "कि ऐसे व्यक्ति ने कुकर्म किया था और देवताओं की घृणा न्यायपूर्ण थी। ऐसे मनुष्य के लिए उन लोगों के बीच कोई स्थान नहीं होता था, जो किसी उत्सव को मनाने के लिए देवता के समक्ष खड़े हों। "

     इस दृष्टिकोण के अनुसार ही कोढ़ से पीड़ित तथा शोकग्रस्त लोगों को धर्म के पालन से तथा सभी सामाजिक सुविधाओं से बाहर रखा जाता था और ऐसे व्यक्ति को उस देवस्थान पर नहीं लाया जाता था, जहां प्रसन्न तथा धनी लोगों की भीड़ समारोह मनाने के लिए एकत्र होती थी।

     जहां तक व्यक्ति-व्यक्ति और व्यक्ति तथा समाज के बीच का विवाद है, देवता का उसके साथ कोई संबंध नहीं होता। प्राचीन संसार में-

     "मनुष्य के कार्यों में होने वाली भूलों को सुधारने में देवता निरंतर व्यस्त रहें, ऐसी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती थी। सामान्य बातों में मनुष्यों का यह कर्तव्य था कि वे अपनी और सगे-संबंधियों की सहायता करें, यद्यपि यह धारणा कि देवता हमेशा हमारे साथ हैं और आवश्यकता पड़ने पर उसे बुलाया जा सकता है, समाज को एक प्रकार की नैतिक शक्ति प्रदान करती थी और उससे हमेशा समाज में सदाचार और नैतिक व्यवस्था बनी रहती थी। किन्तु सही अर्थ में देखा जाए तो इस नैतिक शक्ति का प्रभाव बहुत ही अनिश्चित हुआ करता था क्योंकि प्रत्येक अनाचारी के लिए खुशफहमी की यह भावना बनी रहती थी कि उसका अपराध अनदेखा कर दिया जाएगा। प्राचीन संसार में मनुष्य की देवता से न्यायसंगत रहने की अपेक्षा नहीं थी। चाहे कोई नागरिक समस्या हो अथवा अनाचार की बात हो, प्राचीन लोगों की प्रवृत्ति समाज के बारे में ज्यादा सोचने की और व्यक्ति के बारे में कम सोचने की होती थी, और कोई भी व्यक्ति उसे अन्यायपूर्ण नहीं मानता था, यद्यपि यह बात स्वयं उससे संबंधित होती थी। देवता पूरे राष्ट्र का अथवा पूरे कबीले का हुआ करता था और वह किसी व्यक्ति की चिंता समुदाय के एक सदस्य के रूप में ही करता था । "

     'अपने निजी दुर्भाग्य के लिए' मनुष्य की प्रवृत्ति प्राचीन संसार में इसी प्रकार थी। मनुष्य देवता के समक्ष प्रसन्न होने के लिए जाता था और-



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