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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग २ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     यहां एक पहलू तो स्पष्ट हो जाता है। लेकिन इसका एक पहलू और है, जिसका स्पष्ट होना शेष है। इसका संबंध इसी के नजदीकी अंगों की जांच करने से है, और जिन शब्दों का प्रयोग मैं करूंगा, यह उनकी परिभाषाओं से संबद्ध है।

     मेरे विचार में धर्म के दर्शन के अध्ययन में तीन आयामों का होना आवश्यक है। मैं उन्हें आयाम कहता हूं, क्योंकि वे उन अज्ञात अंशों के समान हैं, जिनका उत्पादन के अंगों में समावेश होता है। यदि हम धर्म के दर्शन के परीक्षण का कोई नतीजा निकालना चाहते हैं, तब हमें उन आयामों की जांच करके उनकी व्याख्या निश्चित करनी होगी।

Hindutva Ka Darshan - Book by dr Bhimrao Ramji Ambedkar     इन तीन आयामों में प्रथम है- धर्म धर्म की परिभाषा से हम क्या समझते हैं, इसे निश्चित करना आवश्यक है, जिससे हम परस्पर विरोधी तर्क-वितर्कों को टाल सकें, उनसे बच सकें। यह बात धर्म के संबंध में विशेष रूप से आवश्यक है, क्योंकि उसकी निश्चित व्याख्या के बारे में सहमति नहीं है। वैसे इस प्रश्न पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता भी नहीं। इसलिए इस शब्द का प्रयोग मैं जिस अर्थ में यहां कर रहा हूं, उसे स्पष्ट करने से ही मेरा समाधान हो जाएगा।

     धर्म शब्द का प्रयोग मैं ब्रह्मविज्ञान के रूप में करता हूं। शायद व्याख्या की दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि ब्रह्मविज्ञान भी अलग-अलग तरह का है और मुझे वह सब स्पष्ट करना चाहिए। प्राचीनकाल से ही ऐतिहासिक दृष्टि से जिनकी चर्चा की जाती रही है, ऐसे ब्रह्मविज्ञान दो तरह के हैं : पौराणिक ब्रह्मविज्ञान और लौकिक ब्रह्मविज्ञान। लेकिन ग्रीक लोगों ने इन दोनों की व्याख्या इस प्रकार से की है। पौराणिक बह्मविज्ञान से उनका अर्थ है, देवी-देवता और उनके कार्य-कलाप की कहानियां, जिन्हें प्रचलित काल्पनिक साहित्य में दर्शाया गया है। दूसरे, यानी लौकिक ब्रह्मविज्ञान में विभिन्न त्योहार तथा समारोह और उनसे संबंधित रीति-रिवाजों की जानकारी का समावेश होता है। मैं इन दोनों अर्थों के अनुरूप ब्रह्मविज्ञान¹ शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं। मेरे अनुसार ब्रह्मविज्ञान का अर्थ है, नेसर्गिक ब्रह्मविज्ञान' जो ईश्वर और ईश्वरीय उपदेशों का सिद्धांत है। वह नैसर्गिक प्रक्रिया का ही एक अविभाजित अंग है। पारंपरिक और रूढ़ अर्थ में नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान तीन सिद्धांतों  का प्रतिपादन करता है- ( 1 ) ईश्वर का अस्तित्व है और वह विश्व का निर्माता है; (2) प्राकृतिक रूप में होने वाली सभी घटनाओं पर ईश्वर का नियंत्रण है, और (3) ईश्वर अपने सार्वभौमिक नैतिक नियमों द्वारा मानवजाति पर शासन करता है।


1. नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान के एक विशिष्ट अध्ययन विभाग के रूप में उत्पत्ति प्लेटो द्वारा हुई। देखें : 'लाज'



     मैं इस बात से अवगत हूं कि साक्षात्कारी दैवी सत्य का स्वेच्छा से प्रकटन नाम का ब्रह्मविज्ञान अलग है, और इसे नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान से भिन्न किया जा सकता है, लेकिन यह भेद हमारे लिए महत्व नहीं रखता, क्योंकि जैसा बताया गया है¹, साक्षात्कार की फलश्रुति बिना किसी परिवर्तन के नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान में होती है और मानवीय प्रयासों से जो ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे केवल उसके साथ जोड़ा जाता है अथवा नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान में ऐसा परिवर्तन होता है कि उसका संपूर्ण सत्य स्वरूप जब उसके सही साक्षात्कार को ध्यान में रखते हुए देखा जाता है, तब वह अधिक स्पष्ट और अधिक समृद्ध बन जाता है। लेकिन ऐसा भी एक मत है कि मूल नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान और मूल साक्षात्कारी ब्रह्मविज्ञान, दोनों में परस्पर विसंगति है। यहां उसकी चर्चा टालना उचित ही होगा, क्योंकि ऐसी चर्चा संभव नहीं है।

     ब्रह्मविज्ञान के तीन सिद्धांत हैं- ( 1 ) ईश्वर का अस्तित्व, (2) ईश्वर का विश्व पर दैवी शासन, और (3) ईश्वर का मनुष्य जाति पर नैतिक शासन इन सभी को ध्यान में रखते हुए मेरी मान्यता है कि धर्म का अर्थ दैवी शासन की आदर्श योजना का प्रतिपादन करना है, जिसका उद्देश्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाना है, जिसमें मनुष्य नैतिक जीवन व्यतीत कर सके। धर्म से मैं यही भाव ग्रहण करता हूं और इस परिचर्चा में मैं 'धर्म' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग करूंगा।

     दूसरा आयाम है, धर्म जिस आदर्श योजना का समर्थन करता है, उसे जानना । किसी भी समाज के धर्म में स्थापित, स्थायी और प्रभावशाली अंग क्या हैं, उन्हें निश्चित करना और उनके आवश्यक गुणों को अनावश्यक गुणों से अलग करना। यह कभी-कभी बहुत कठिन होता है। संभवत: इस कठिनाई का कारण उस कठिनाई में छिपा हुआ है, जिसके बारे में प्रो. राबर्टसन स्मिथ² कहते हैं।

     "धर्म की परंपरागत प्रथाओं में अनेक शताब्दियों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है और उसका मनुष्य की वैचारिक प्रकृति तथा उसके बौद्धिक और नैतिक विकास की प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिमानव से लेकर आज तक सभ्यता की प्रत्येक अवस्था में मूर्ति पूजा वंश परंपरा से उनके सभी मिश्रित संस्कारों और समारोहों के साथ चली आ रही है। लेकिन इस आधार पर ईश्वर के किसी भी रूप की कल्पना करना संभव नहीं । मानवजाति के धार्मिक विचारों को इतिहास, जिसे धार्मिक संस्थाओं ने साकार किया है, पृथ्वी के भौगोलिक इतिहास के समान ही है, जिसमें नवीन और प्राचीन को साथ-साथ अथवा एक तह पर दूसरी तह के समान रखा गया है। "


1. दि फेथ ऑफ एक मोरेलिस्ट, ए.ई. टाइलर, पृष्ठ 19
2. दि रिलीजन ऑफ सैमाइटस (1927)



     भारत में ठीक ऐसा ही हुआ है। इस देश में धर्म का जो प्रचार-प्रसार हुआ है, इस संदर्भ में प्रो. मैक्समूलर ने कहा है :

     "हमने धर्म को चरणबद्ध छोटे-छोटे बच्चों की सरल प्रार्थनाओं से लेकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की गहन तपस्या तक फलते-फूलते देखा है। वेदों की अधिकांश ऋचाओं में हमें धर्म की बाल्यावस्था का पता चलता है, तो ब्राह्मण ग्रंथों में उनके यज्ञादि, पारिवारिक तथा नैतिक आर्दशों में व्यस्त यौवन परिलक्षित होता है। उपनिषद में वैदिक धर्म का वृद्धत्व नजर आता है। भारतीय ज्ञान की ऐतिहासिक प्रगति में जब वे ब्राह्मण शास्त्रों की परिपक्वता तक पहुंचे, तभी पूर्णत: बाल सुलभ प्रार्थनाओं का त्याग करना आवश्यक था। भारतीय मेधा ऐतिहासिक प्रगति के साथ-साथ यज्ञ के खोखलेपन और पुरातन देवताओं की सही पहचान हो गई। तब उनको उपनिषदों के अधिक परिपूर्ण देवताओं से बदलना भी आवश्यक था। परंतु ऐसा नहीं हो सका। भारत में प्रत्येक धार्मिक विचार, जिसे एक बार व्यक्त किया गया, उसे कायम रखा गया और एक पवित्र वसीयत मानकर सौंपा गया है, और साथ ही भारतीय राष्ट्र की बाल्यवस्था, यौवन तथा वृद्धावस्था, इन तीनों अवस्थाओं के विचारों को प्रत्येक व्यक्ति की तीनों अवस्थाओं का स्थायी भाव बना दिया गया है। एक ही आचार संहिता, वेद, जिसमें न केवल धार्मिक विचारों के विभिन्न पहलुओं का समावेश है, बल्कि ऐसे सिद्धांत भी हैं, जिन्हें परस्पर विरोधी कहा जा सकता है। "

     परंतु जो धर्म परिपूर्ण धर्म हैं, उनके संबंध में ऐसी कठिनाई अधिक परिलक्षित नहीं होती । परिपूर्ण धर्मों की मौलिक विशेषता यह है कि उनकी आदिकालीन धर्मों की तरह किसी अनजान ताकतों की गतिविधि के अंतर्गत वृद्धि नहीं होती, जो युगों-युगों से मौन रूप से कार्यरत हैं, यद्यपि उनकी मूल उत्पत्ति उन महान धर्म गुरुओं के उपदेशों से होती है, जो एक दैवी साक्षात्कार के रूप में बोलते है । जाग्रत प्रयासों से उत्पन्न होने के कारण परिपूर्ण धर्म का दर्शन जानना और उसका वर्णन करना सरल है। हिंदू धर्म यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम धर्मों के समान ही मुख्य रूप से एक परिपूर्ण धर्म है। उसके दैवी शासन को तलाश करने की आवश्यकता नहीं है। दैवी शासन ही हिंदुत्व की योजना को एक लिखित संविधान में स्थापित किया गया है। यदि कोई भी उसे जानना चाहे तो वह उस पवित्र पुस्तक को देख सकता है, जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है। यह एक दैवी आचार-संहिता है, जिसमें हिन्दुओं के धार्मिक, शास्त्रोक्त तथा सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने वाले नियमों का सूक्ष्म विवरण है, जिसे हिन्दुओं की बाइबिल माना जाना चाहिए और जिसमें हिंदू धर्म के दर्शन का समावेश है।

     धर्म के दर्शन का तीसरा आयाम है, एक ऐसी कसौटी¹ निश्चित करना, जो धर्म का समर्थन-प्राप्त दैवी शासन की योजना मूल्यांकन करने के लिए उपयुक्त हो । धर्म को उस जांच की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उसका मूल्यांकन किस कसौटी से होगा? इससे हम नियमों की परिभाषा निश्चित कर सकते हैं। इन तीनों आयामों में इस तीसरे आयाम की जांच करना और उसे निश्चित करना बहुत ही कठिन है ।

     हालांकि धर्म के दर्शन पर बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन दुर्भाग्य से इस प्रश्न पर अधिक चिंतन नहीं किया गया और निश्चित रूप से इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय नहीं ढूंढा गया। इस प्रश्न के समाधान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना रास्ता स्वयं तलाश करने को कहा गया है।

     जहां तक मेरा संबंध है, मेरे विचार से इस मत का अनुसरण करके आगे बढ़ना उचित होगा कि यदि किसी भी आंदोलन अथवा संस्था का दर्शन जानना है, तब उस संस्था और आंदोलन के अंतर्गत जो क्रांतियां आई हैं, उनका आवश्यक रूप से अध्ययन किया जाए। क्रांति दर्शन की जननी है, चाहे उसे दर्शन की जननी न भी माना जाए, फिर भी वह ऐसा दीप है जो दर्शन को प्रकाश युक्त बनाता है। धर्म भी इस नियम का अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए मेरी दृष्टि से सबसे अच्छा तरीका यही है कि यदि हम किसी धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करना चाहते हैं और इसके लिए कोई कसौटी निश्चित करना चाहते हैं, तब उस धर्म में जो क्रांतियां आई हैं, उनका अध्ययन करें। यही एक तरीका है, जिसे मैं अपनाना चाहता हूं।


1. धर्म-दर्शन के कुछ विद्यार्थी प्रथम दो परिमाणों के अध्ययन को उसी प्रकार संबद्ध करते है, जिस प्रकार धर्म-दर्शन के क्षेत्र में आवश्यक होता है। वे ऐसा महसूस करते प्रतीत नहीं होते कि तीसरा परिमाण धर्म-दर्शन के अध्ययन का आवश्यक भाग है। उदाहरणार्थ, हेस्टिंग्ज इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स, खंड 12, पृष्ठ 393 पर एडम्स के 'अध्यात्मकवाद' शीर्षक के अंतर्गत लेख को देखे। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं। मतभेद इसलिए है, क्योंकि मैं धर्म-दर्शन को एक सामान्य अध्ययन तथा एक व्याख्यात्मक अध्ययन मानता हूं। मैं नहीं समझता कि यहां सामान्य हिंदुत्व का दर्शन जैसी कोई वस्तु हो सकती है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक धर्म का अपना विशेष दर्शन होता है। मेरे लिए धर्म का कोई दर्शन नहीं है। यहां एक धर्म का एक दर्शन है।



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