अनाज काटना और अकाल जैसे प्रसंगों पर समारोह क्यों मनाए जाते हैं, आदिम समाज के लिए जादू-टोना, प्रतिबंध मानना, प्रतीकों की पूजा करना, यह सब कुछ इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं? इसका एक ही उत्तर है कि इन सभी का जीवन की रक्षा पर प्रभाव होता है। इसलिए जीवन की प्रक्रिया और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य उद्देश्य बन जाता है। आदिम समाज के धर्म में जीवन और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य केंद्र बिंदु है। जैसा प्रो. क्राउले ने बताया है, आदिम समाज के धर्म का प्रारंभ और अंत, जीवन और उसके संरक्षण से होता है।
जीवन और उसकी रक्षा में ही आदिम समाज के धर्म का समावेश है। आदिम समाज के धर्म की यह जैसे सच्चाई है, वह सभी धर्मों पर लागू होती है, चाहे उसका अस्तित्व कहीं भी हो। सभी धर्मों का सार इसी सच्चाई में है यह सच है कि वर्तमान समाज में आध्यात्मिक सुधारों के कारण हम लोग धर्म के इस सार तत्व को नजरअंदाज कर देते हैं और कभी-कभी भूल भी जाते हैं, तथापि जीवन और उसकी रक्षा की धर्म का सार है, यह बात संदेह से बिल्कुल परे है। प्रो. क्राउले ने यह बात बहुत ही उत्तम ढंग से स्पष्ट की है। वर्तमान समाज में मनुष्य के धार्मिक जीवन के बारे में यह कहते हैं कि किस प्रकार-
"मनुष्य का धर्म, उसके सामाजिक अथवा व्यावसायिक कार्य में, उसके वैज्ञानिक अथवा कलात्मक जीवन में बाधक नहीं होता। वास्तव में उसके धर्म की आवश्यकताएं उस एक विशेष दिन पूरी की जाती हैं, जब वह सामान्य रूप से सभी भौतिक संबंधों से मुक्त होता है। वास्तव में उसका जीवन दो हिस्सों में बंटा हुआ है, परंतु उसका जो आधा हिस्सा धर्म के साथ जुड़ा है, वह प्राथमिक है। उसका सैबथ का दिन (चर्च में विश्राम दिवस) जीवन और मृत्यु जैसे गंभीर प्रश्न पर विचार करने में बीतता है। साथ ही प्रार्थना करने की आदत, भोजन करते समय ईश्वर को धन्यवाद देना, और मृत्यु, जीवन और विवाह आदि सर्वथा धर्मानुष्ठान की क्रियाएं हैं, यह सब कुछ अभिन्न रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। संभवतः व्यवसाय अथवा विषयसुखों को अत्सर्गित किया जाना चाहिए, परंतु उसमें भी परिवर्तित धार्मिक भावना का आदेश होता है।"
वर्तमान समाज के मनुष्य की धार्मिक भावनाओं की आदिम समाज के उपरोक्त वर्णन के साथ तुलना की जाए, तब इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि सैद्धांतिक और आचरण, दोनों दृष्टियों से धर्म का मौलिक स्वरूप एक ही है, चाहे कोई आदिम समाज के धर्म की बात करता है अथवा सभ्य समाज की ।
इसलिए यह बात स्पष्ट है कि आदिम समाज और सभ्य समाज, दोनों एक बात पर सहमत हैं। दोनों में धर्म के हित का केंद्र बिंदु, यानी जीवन की वह प्रक्रिया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा होती है और उसके वंश का संचालन होता है, एक ही है। इस बात में दोनों में ही कोई वास्तविक अंतर नहीं है। परंतु अन्य दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनमें भेद है।
प्रथम, आदिम समाज के धर्म में ईश्वर की कल्पना का कोई भी अंश नहीं है। दूसरे, आदिम समाज के धर्म में नैतिकता और धर्म इन दोनों में कुछ भी संबंध नहीं है। आदिम समाज में ईश्वर के बिना धर्म है। आदिम समाज में नैतिकता है, परंतु वह धर्म से स्वतंत्र है।
धर्म में ईश्वर की कल्पना का उदय कब और कैसे हुआ, यह कहना संभव नहीं है। यह तो हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना का मूल समाज के महान व्यक्ति की पूजा में हो, जिससे मनुष्य की जीवित ईश्वर में श्रद्धा का यानी किसी सर्वश्रेष्ठ को देखकर ईश्वर मानने के आस्तिकवाद का उदय हुआ होगा। यह हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना, यह जीवन किसने बनाया है, जैसे दार्शनिक विचार के फलस्वरूप अस्तित्व में आई होगी, जिससे एक सृष्टि के निर्माणकर्ता के रूप में, उसे बिना देखे मानने से ईश्वरवाद का उदय हुआ होगा । चाहे कुछ भी हो, ईश्वर की कल्पना धर्म का एक अभिन्न अंग नहीं है। उसका संबंध धर्म के साथ कैसे जुड़ गया, यह बताना मुश्किल है। जहां तक धर्म और नैतिकता का संबंध है, यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है। यद्यपि धर्म और ईश्वर का सर्वथा अभिन्न संबंध नहीं है, परंतु धर्म और नैतिकता, दोनों का अभिन्न संबंध है। जीवन, मृत्यु और विवाह, इन मानव-जीवन की मौलिक वास्तविकताओं से धर्म और नैतिकता, दोनों का संबंध है। जीवन की उन मौलिक वास्तविकताओं तथा उनकी क्रियाओं-प्रक्रियाओं को उत्सर्गित करने के साथ-साथ उसने उनकी रक्षा के लिए समाज द्वारा बनाए गए नियमों को भी उत्सर्गित किया है। इस प्रश्न को इस दृष्टिकोण से देखने के बाद इस बात की व्याख्या आसान हो जाती है कि धर्म और नैतिकता का संबंध कैसे स्थापित हुआ । यह संबंध धर्म और ईश्वर के बीच स्थापित संबंध से भी अधिक स्वाभाविक और दृढ़ है। परंतु फिर भी धर्म और नैतिकता, इन दोनों का मिलन निश्चित रूप से कब हुआ, यह बताना कठिन है।
1. यह कि ईश्वर की कल्पना का उदय इन दोनों दिशाओं से हुआ है, इसे हिंदू धर्म द्वारा भली-भांति दर्शाया गया है। इंद्र और ब्रह्मा की कल्पना की तुलना ईश्वर से करें।
चाहे कुछ भी हो, यह वस्तुस्थिति है कि सभ्य समाज का धर्म और आदिम समाज के धर्म दो महत्वपूर्ण कारणों से भिन्न-भिन्न हैं। सभ्य समाज में ईश्वर का धर्म की योजना में समावेश है । सभ्य समाज में नैतिकता को धर्म के कारण पवित्रता प्राप्त होती है।
मैं जिस धार्मिक क्रांति की बात कर रहा हूं, उसकी यह प्रथम अवस्था है। धार्मिक क्रांति की प्रक्रिया धर्म के विकास में इन दो तत्वों के उभरने के साथ ही समाप्त हो गई, ऐसा मानना उचित नहीं है। यह दोनों विचारधाराएं सभ्य समाज के धर्म का एक हिस्सा बन जाने के बाद और अधिक परिवर्तित हुई, जिसके कारण उनके अर्थों में तथा उनके नैतिक महत्व में क्रांति हो गई । धार्मिक क्रांति की दूसरी स्थिति में बहुत मौलिक परिवर्तन हो गए। यह भेद इतना विशाल है कि उसके कारण सभ्य समाज, प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में विभाजित हो गया और जब हम सभ्य समाज के धर्म की बात करते हैं, तब प्राचीन समाज और आधुनिक समाज के धर्म की चर्चा करना आवश्यक बन जाता है।
प्राचीन समाज को आधुनिक समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति, सभ्य समाज को आदिम समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति से बहुत ही विशाल है। उसकी व्यापकता, ईश्वर, समाज और मनुष्य के बीच संबंधों के बारे में इसके द्वारा जो धारणाएं बनीं, उनके भेदों से स्पष्ट होती है।
इस भेद का पहला मुद्दा समाज की रचना से संबंधित है।
प्रत्येक मनुष्य अपनी पसंद से नहीं, बल्कि अपने जन्म तथा पालन-पोषण के कारण किसी समाज का, जिसे नैसर्गिक समाज कहा जाता है, सदव्य बनता है। वह किसी विशिष्ट परिवार से तथा किसी विशिष्ट राष्ट्र से संबंधित होता है। इस सदस्यता के कारण उस पर कुछ निश्चित सामाजिक उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य भी लादे जाते हैं। उनकी पूर्ति करना उसके लिए अनिवार्य होता है और उनके उल्लंघन से उसे सामाजिक दृष्टि से अयोग्य मानकर दंड दिया जाता है, जब कि उसी के साथ उसे कुछ अधिकार तथा सुविधाएं भी प्रदान की जाती हैं। इस संदर्भ में प्राचीन तथा आधुनिक, दोनों समाज समान हैं। परंतु जैसा कि प्रो. स्मिथ ने कहा है¹ :
“यहां यह महत्वपूर्ण भेद है कि संसार की आधुनिक व्याख्या के संदर्भ में प्राचीन संसार का आदिम समाज अथवा राष्ट्रीय समाज वस्तुतः एक नैसर्गिकसमाज नहीं था, क्योंकि मनुष्यों के समान देवताओं की भूमिका और अस्तित्व था। जिस समुदाय में मनुष्य का जन्म होता था, वह केवल उसके सगे-संबंधियों तथा अन्य सहयोगी नागरिकों का समुदाय ही नहीं होता था, बल्कि उसे कुछ दिव्य विभूतियों, जैसे कि परिवार तथा राज्य के देवताओं को भी अंगीकार करना पड़ता था। प्राचीन मत के अनुसार यह सब कुछ किसी विशेष समुदाय का एक अभिन्न भाग होता था, जैसा कि कोई मानव सदस्य किसी सामाजि समुदाय का एक भाग होता है। प्राचीन काल के देवताओं और उनके उपासकों का आपसी संबंध मानवी संबंधों की भाषा से व्यक्त किया जाता था, जिसका काव्यात्मक नहीं, बल्कि शाब्दिक अर्थ होता था। यदि किसी देवता को पिता, और उसके उपासकों को उसकी संतान कहा जाए, तब उसका शब्दशः अर्थ यही होता था कि ये उपासक उसकी उत्पत्ति हैं, और उस देवता तथा उसके उपासकों का एक नैसर्गिक परिवार बन जाता जिसमें उसके एक-दूसरे के प्रति परस्पर पारिवारिक कर्तव्य हैं। अथवा, यदि किसी देवता को राजा के रूप में और उसके उपासकों को उसके सेवकों के रूप में संबोधित किया जाए, तब उसका अर्थ यही होता था कि शासन चलाने के सर्वोच्च अधिकार उस देवता के हाथों में ही हैं और उसके अनुसार शासन पद्धति में सभी महत्वपूर्ण मामलों पर उसकी राय जानने, उसके आदेश प्राप्त करने और इसके साथ ही उसके प्रति राजा के समान आदर-सम्मान व्यक्त करने का प्रबंध होता था ।
1. दि रिलीजन ऑफ सैमाइट्स
"इस प्रकार से किसी भी मनुष्य का किन्हीं विशेष देवताओं के साथ जन्म से ही उसी प्रकार का संबंध होता था, जिस प्रकार का उसका अन्य सहयोगी मनुष्यों के साथ होता है और उसके इन देवताओं के साथ संबंधों के आधार पर उसका धर्म निश्चित होता था जो उसके आचरण का एक भाग है। यह आचरण उस सर्वसाधारण आचार संहिता का एक भाग माना जाता था, जो उस समाज के सदस्य के रूप में उस पर लागू होती थी। धर्म का क्षेत्र और सामान्य जीवन दोनों के साथ संबंध होता था, क्योंकि सामाजिक रचना केवल मनुष्य से ही नहीं, बल्कि मनुष्य और देवता, दोनों से मिलकर की गई थी।"
"इस प्रकार से प्राचीन समाज में मनुष्य तथा उसके देवता, दोनों को मिलाकर समाज की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक संरचना की जाती थी। धर्म की स्थापना देवता और उसके उपासकों की घनिष्ठता के आधार पर की जाती थी । आधुनिक समाज ने देवताओं को अपनी सामाजिक संरचना से अलग कर दिया है। अब उसमें केवल मनुष्यों का समावेश है।"