Phule Shahu Ambedkar फुले - शाहू - आंबेडकर
Phule Shahu Ambedkar
Youtube Educational Histry
यह वेबसाईट फुले, शाहू , आंबेडकर, बहुजन दार्शनिको के विचार और बहुजनसमाज के लिए समर्पित है https://phuleshahuambedkars.com

हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग ७ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     "अपने देवताओं के सामने प्रसन्न होते समय मनुष्य अपने सगे-संबंधियों, पड़ोसियों के साथ उनके तथा देश के लिए प्रसन्न होता था। वह अपनी उपासना से देवता के साथ अपने बंधन का एक प्रतिज्ञा के रूप में नवीकरण करता था और साथ ही अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के बंधनों का भी स्मरण कर उन्हें दृढ़ आधार प्रदान करता था । "

     प्राचीन संसार में मनुष्य ने कभी भी अपने विधाता से उपासना करते समय यह नहीं कहा कि वह उसके प्रति न्यायसंगत व्यवहार करे।

Hindutva Ka Darshan - author B R Ambedkar     धर्म में यह दूसरी क्रांति ऐसी है ।

     इस प्रकार से दो धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। एक बाहरी क्रांति थी, दूसरी आंतरिक क्रांति थी। बाह्य क्रांति का संबंध धर्म के अधिकार क्षेत्र से संबंधित था। आंतरिक क्रांति, धर्म में मानव समाज को नियंत्रित करने की दैवी योजना के रूप में जो परिवर्तन हुए, उससे संबंधित थी। बाह्य क्रांति को वास्तव में धार्मिक क्रांति नहीं माना जा सकता है। वह एक प्रकार से, जो क्षेत्र धर्म के अधीन नहीं थे, उनका अनधिकृत विस्तार था, उनके विरुद्ध विज्ञान का विद्रोह था। आंतरिक क्रांति को सही रूप में क्रांति माना जा सकता है और उसकी तुलना किसी भी अन्य राजनीतिक क्रांति के साथ की जा सकती है, जैसे फ्रांसीसी क्रांति अथवा रूसी क्रांति। उसमें संवैधानिक बदलाव का अंतर्भाव था। इस क्रांति से दैवी नियंत्रण की योजना में सुधार हुआ, बदलाव आया और उसकी संवैधानिक पुनर्रचना हुई।

     इस अंदरूनी क्रांति ने प्राचीन समाज के दैवी प्रशासन की योजना में कितने व्यापक बदलाव किए, यह बात सहजता से देखी जा सकती है। इस क्रांति से देवता समाज का सदस्य नहीं रहा, इस कारण वह समदर्शी बन गया। संसार के व्यावहारिक अर्थ में देवता मनुष्य का पिता नहीं रहा, वह विश्व का निर्माता बन गया। खून का यह रिश्ता टूटने से यह धारणा बनाना संभव हो गया कि देवता उत्तम है। इस क्रांति के कारण मनुष्य देवता का अंधभक्त नहीं रहा, जो उसकी आज्ञा का पालन करने के अलावा कुछ नहीं करता। इसके कारण मनुष्य एक ऐसा जिम्मेदार व्यक्ति बन गया, जिस देवताओं की आज्ञाओं के प्रति अपनी विवेकपूर्ण श्रद्धा के औचित्य को सिद्ध करना पड़ता था। इस क्रांति के कारण, देवता समाज का संरक्षणकर्ता है, यह धारणा नहीं रही और सामाजिक हितसंबंध ठोस रूप में दैवी व्यवस्था का केंद्र नहीं रहे । इसके स्थान पर मनुष्य उसका केंद्र बिंदु बन गया।

     एक दैवी प्रशासन के रूप में धर्म के प्रति स्थापित धारणाओं में जो क्रांति हुई, उसका इस प्रकार विश्लेषण करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए कुछ नियम खोजे जा सके। कोई उतावले स्वभाव का पाठक यह पूछ सकता है कि वह नियम कहां हैं और वे क्या हैं? उपरोक्त चर्चा में शायद पाठक को इन नियमों का उनके नाम से उल्लेख नहीं मिला होगा। परंतु यह बात उसके ध्यान में आएगी कि यह संपूर्ण धार्मिक क्रांति क्या सही है और क्या गलत है, इन मानदंडों को परखने के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी । यदि वह इस बात को नहीं समझता, तो मुझे उस बात को सुस्पष्ट करने दिया जाए, जो इस सारी चर्चा में अस्पष्ट है। हमने अपनी चर्चा प्राचीन समाज तथा आधुनिक समाज में जो अंतर है, उससे आरंभ की थी, और जैसा कि हमने देखा है, उन्होंने अपने धार्मिक आदर्श के रूप में दैवी शासन की जिस योजना को स्वीकार किया, उसमें भिन्नता है। क्रांति के एक सिरे पर वह प्राचीन समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य उसका समाज था। क्रांति के दूसरे सिरे पर वह आधुनिक समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य एक व्यक्ति था। इन्हीं तथ्यों को यदि हम नियमों में ढाल दें, तो हम कह सकते हैं। कि प्राचीन समाज के लिए सही अथवा गलत बात को परखने के लिए जो नियम अथवा कसौटी थी, वह थी " उपयोगिता", जब कि आधुनिक समाज के लिए यह 'न्याय' है। इस प्रकार, जिस समाज में केंद्रीय भावना समाज से व्यक्ति में बदल गई, वह एक प्रकार की नियमों की क्रांति थी।

     मैंने जो नियम सूचित किए हैं, शायद कुछ लोग उसका विरोध करें। कदाचित, यह उनके लिए एक नया रास्ता होगा। परंतु मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि धर्म के दर्शन को परखने के लिए यही वास्तविक नियम है। पहली बात, यह नियम लोगों को, मनुष्य के आचरण में क्या सही और क्या गलत है, यह परखने योग्य बनाए; दूसरे, यह नियम, नैतिक उत्तमता जिससे बनी है, उसकी वर्तमान धारणाओं के अनुरूप हो । इन दोनों दृष्टिकोणों से वे नियम सही दिखाई देते हैं। क्या सही है और क्या गलत है, ये नियम हमें यह परखने की योग्यता देते हैं। जिस समाज ने उनको स्वीकार किया है, यह नियम उसके अनुरूप ही हैं क्योंकि वहां लक्ष्य था। समाज और सामाजिक उपयुक्तता को ही नैतिक आचरण माना जाता था। न्याय, यह कसौटी आधुनिक समाज के अनुरूप है, जिसमें व्यक्ति को लक्ष्य माना गया है और उस व्यक्ति को न्याय मिले, इसे ही नैतिक उत्तमता माना गया है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि इन दो प्रकार के नियमों में से कौन-सा नियम नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है। परंतु मैं नहीं सोचता कि यह नियम नहीं है, इस बात पर कोई गंभीर विवाद हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह नियम श्रेष्ठ नहीं है। इस पर मेरा उत्तर यह है कि धर्म के दर्शन को परखने के नियम दैवी होने के साथ-साथ प्राकृतिक भी होने चाहिएं। कोई कुछ भी कहे, हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने के लिए मैं इन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहूंगा।



Share on Twitter

You might like This Books -

About Us

It is about Bahujan Samaj Books & news.

Thank you for your support!

इस वेबसाइट के ऊपर प्रकाशित हुए सभी लेखो, किताबो से यह वेबसाईट , वेबसाईट संचालक, संपादक मंडळ, सहमत होगा यह बात नही है. यहां पे प्रकाशीत हुवे सभी लेख, किताबे (पुस्‍तक ) लेखकों के निजी विचर है

Contact us

Abhijit Mohan Deshmane, mobile no 9011376209