इतिहास के विद्यार्थी एक धार्मिक क्रांति से परिचित हैं। यह क्रांति धर्म के कार्यक्षेत्र और उसके अधिकार की सीमा से संबंधित है। एक समय ऐसा भी था, जब धर्म ने मानवीय ज्ञान के संपूर्ण क्षेत्र को ढक लिया था और जो भी शिक्षा उसने प्रदान की, वह अमोघ मानी गई। इसमें खगोल शास्त्र का भी समावेश था जिसने ब्रह्मांड ने सिद्धांत की शिक्षा दी जिसके अनुसार पृथ्वी विश्व के मध्य में स्थिर थी, जब कि सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और अन्य सभी तारे आकाश में अपने निश्चित क्षेत्र में पृथ्वी की परिक्रमा करते थे। इसमें जीव - शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र का भी समावेश था। साथ ही इस मत का प्रतिपादन किया था कि पृथ्वी पर जो जीव सृष्टि है, वह एक ही साथ उत्पन्न हुई और उसकी रचना के समय से ही उसमें सभी प्राणीमात्र और स्वर्ग के देवताओं का समावेश है। उसने वैद्यक शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था, जिसमें यह शिक्षा दी गई कि रोग या बीमारी एक दैवी प्रकोप अथवा पाप के लिए दंड है अथवा वह शैतानों का कार्य है और उसे संतों द्वारा अपने पवित्र संस्कार से अथवा प्रार्थनाओं से अथवा धार्मिक यात्राओं से अथवा भूत-प्रेत हटाने से अथवा ऐसे उपायों से जो भूतों को त्रस्त करें दूर किया जा सकता है। उसने शरीर - शास्त्र तथा मानव - शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था और उसके अंतर्गत यह सिखाया कि शरीर तथा आत्मा, दो अलग-अलग तत्व हैं।
धीर-धीरे धर्म का यह विशाल साम्राज्य नष्ट हो गया। कोपरनिक्स की क्रांति ने खगोल विद्या को धर्म के प्रभुत्व से मुक्त किया। डार्विन की क्रांति ने जीव - शास्त्र तथा भूगर्भ शास्त्र को धर्म के जाल से बाहर निकाला। वैद्यक शास्त्र के क्षेत्र में ब्रह्मविज्ञान का अधिकार अभी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुआ है। वैद्यकीय समस्याओं में उसका हस्तक्षेप आज भी जारी है। परिवार नियोजन, गर्भपात तथा जीव में शारीरिक दोष के कारण ही ऐसे लोगों का बंध्याकरण करना, आदि विषयों पर ईश्वरपरक मान्यताओं का प्रभाव आज भी है। मनोविज्ञान अब तक धर्म की जकड़ से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर सका । परंतु फिर भी डार्विन के सिद्धांत ने ब्रह्मविज्ञान को इतनी गहरी चोट पहुंचाई और उसके अधिकार को यहां तक नष्ट किया कि उसके बाद ब्रह्मविज्ञान ने अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किए।
इस तरह धर्म के साम्राज्य के विनाश को एक महान क्रांति माना जाना पूर्णत: स्वाभाविक है। विज्ञान ने पिछले चार सौ वर्षों में धर्म के साथ जो संघर्ष किया, उसी का यह परिणाम है। इसके लिए दोनों में अनेक गंभीर संघर्ष हुए, जिसके परिणामों से जो क्रांति हुई, उसकी ज्योति से प्रभावित होने से कोई भी नहीं बच सका।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह धार्मिक क्रांति एक महान वरदान साबित हुई। उसने विचारों की आजादी को स्थापित किया। उसने समाज को इस योग्य बनाया कि वह अपना नियंत्रण स्वयं कर सके, अपना संसार बना सके जो समाज कभी अंधविश्वास से घिरा हुआ था, अपनी रहस्यात्मक सत्ता से बाहर निकलकर अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाए, जहां स्वतंत्र विचारों का अपना महत्व हो । सभ्यता के निर्माण के लिए लौकिकता की इस प्रक्रिया का, जो संस्कृति से भिन्न है, केवल वैज्ञानिकों ने ही स्वागत नहीं किया, बल्कि सामान्य धार्मिक लोग भी यह सोचने लगे कि ब्रह्मविज्ञान के नाम पर जो कुछ भी सिखाया जाता रहा, उसमें बहुत-सी बातें अनावश्यक ही हैं।
परंतु धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए नियमों को निश्चित करने के उद्देश्य से हमें भिन्न प्रकार की एक दूसरी ही क्रांति को जानना होगा, जो धर्म में हुई है। यह क्रांति मनुष्य के साथ ईश्वर के समाज और अन्य मनुष्यों के संबंधों का स्वरूप तथा उसके मान्यता प्राप्त सिद्धांतों से संबंधित है। यह क्रांति कितनी महान थी, यह बात हम सभ्य और आदिम समाज को विभाजित करने वाले भेदों से देख सकते हैं। यह बात भी आश्चर्यजनक महसूस होती है कि आज तक इस धार्मिक क्रांति का सुनियोजित अध्ययन नहीं किया गया। यद्यपि यह क्रांति इतनी महान तथा विशाल थी कि इसने असभ्य समाज के धर्म के स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर दिया । परंतु इस क्रांति के बारे में लोगों को बहुत कम ज्ञान
हम असभ्य समाज और सभ्य समाज की तुलना आरंभ करते हैं।
आदिम समाज के धर्म में दो बातें हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। पहली बात है, संस्कार और समारोहों का आयोजन, जादू-टोने की प्रथा और संबंध सूचक प्रतीकों अथवा चिह्नों की पूजा । ध्यान में रखने योग्य एक अन्य बात यह है कि संस्कार, समारोह, जादू-टोना, निर्जीव चिह्न वस्तु इन सभी का कुछ प्रसंगों के साथ विशेष संबंध है। यह ऐसे प्रसंग हैं, जो मुख्य रूप से मानव जीवन की संकटकालीन स्थिति को दर्शाते हैं। जन्म, पहली संतान का जन्म, पुरुषत्वम प्राप्ति, स्त्री का बालिग होना, विवाह, बीमारी, मृत्यु और युद्ध जैसी घटनाएं, सामान्य रूप से ऐसे प्रसंग होते हैं, जिस समय संस्कार-समारोह आयोजित किए जाते हैं, जादू-टोना किया जाता है और प्रतीकों की पूजा की जाती है।
धर्म की उत्पत्ति तथा उसके इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों ने धर्म की उत्पत्ति का मूल हमेशा जादू-टोना, प्रतिबंध और प्रतीक तथा उससे संबंधित संस्कार और समारोह के संदर्भ में स्पष्ट करने के प्रयास किए हैं और उनका जिन प्रसंगों के साथ संबंध है, उसे महत्वपूर्ण नहीं माना। परिणामस्वरूप हमारे सामने कुछ ऐसे सिद्धांत प्रकट हुए जो यह बताते हैं कि धर्म की उत्पत्ति जादू-टोना और प्रतीकों की पूजा से हुई है। इससे बड़ी दूसरी गलती कोई और हो नहीं सकती। यह सच है कि आदिमानवों का समाज जादू-टोना करता था, प्रतिबंधों पर विश्वास रखता था और प्रतीकों की पूजा करता था । परंतु यह मानना गलत है कि इससे धर्म बनता है अथवा यही धर्म की उत्पत्ति के मूल स्रोत हैं। ऐसा दृष्टिकोण अपनाना, एक प्रकार से जो बात आकस्मिक है, उसको ही स्थायी तत्व मानने के बराबर है। आदिम समाज के धर्म की मुख्य बात है मानवीय अस्तित्व की मूल वास्तविकता, जैसे कि जीवन, मृत्यु, विवाह, आदि। जादू टोना-टोटके ऐसी चीजें हैं। जो आकस्मिक हैं। जादू-टोना, प्रतिबंध, प्रतीक, यह सब कुछ साध्य नहीं हैं, केवल साधन हैं। इनका उद्देश्य जीवन की रक्षा है। एक बात यह देखने में आई है कि असभ्य समाज में जादू-टोना, प्रतिबंध, आदि का अंगीकार अपने स्वयं के लिए नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा के लिए, और बुरी बातों से खतरों के बचाव के लिए किया गया। इस प्रकार से हमें यह समझना होगा कि आदिम समाज का धर्म, जीवन तथा उसकी सुरक्षा से संबंधित था और जीवन की इस प्रक्रिया से ही असभ्य समाज के धर्म की उत्पत्ति हुई है और इसमें ही उसका सार है। आदिम समाज को जीवन और प्रवास की इतनी अधिक चिंता थी कि उसी को ही उसने अपने धर्म के आधार बनाया। जीवन की प्रक्रियाएं उनके धर्म की इतनी अधिक केंद्र बिंदु बन गई थीं कि उस पर जिन-जिन बातों का प्रभाव होता है, उन सभी को उन्होंने अपने धर्म का अंग बना दिया। आदिम समाज के धार्मिक समारोह केवल जन्म, पुरुषत्व, यौवन, विवाह, रोग, मृत्यु और युद्ध तक ही सीमित नहीं थे। उनका संबंध भोजन या खाद्यान्न से भी था । पशुपालक पशुओं को पवित्र मानते थे। कृषक भूमि की बुआई और फसल की कटाई धार्मिक समारोहों के साथ करते थे। इसी प्रकार अकाल, महामारी तथा अन्य प्राकृतिक अनहोनी घटनाओं के समय भी धार्मिक समारोह किए जाते थे।