प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में जो दूसरा भेद है, उसका संबंध समाज तथा देवता के बीच रिश्तों से है। प्राचीन संसार में विभिन्न जातियां-
"अनेक देवताओं के अस्तित्व में विश्वास रखती थीं, क्योंकि वे अपने स्वयं के तथा अपने शत्रुओं के देवताओं को भी स्वीकार किया करती थीं । परंतु जिनसे इन्हें किसी लाभ की अपेक्षा नहीं होती थी और जिन पर चढ़ाई गई भेंट तथा दान लाभदायक नहीं मानती थी। ऐसे अपरिचित देवताओं की वे पूजा नहीं करती थी। प्रत्येक समुदाय का अपना एक देव, अथवा शायद देव तथा देवियां हुआ करते थे और उनका अन्य देवताओं के साथ किसी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं होता था । "
प्राचीन समाज के देवता एक निराला देवता था।¹ उस देवता का केवल एक ही जाति के साथ संबंध होता था और उस पर उसी एक जाति का अधिकार होता था । यह बात निम्न प्रकार से स्पष्ट होती है :
“देवता अपने उपासकों के झगड़ों तथा युद्धों में भाग लेते थे। देवता के शत्रु और उसके उपासकों के शत्रु एक ही हुआ करते थे। इतना ही नहीं ओल्ड टेस्टामेंट में ‘जहोवा के शत्रु' मौलिक रूप से वही हैं, जो इजराइल के शत्रु थे। युद्ध में प्रत्येक देवता अपने लोगों के लिए ही लड़ता है, और उसकी सहायता से ही सफलता मिलती है, ऐसा माना जाता है। चेमोश ने मोआव की, और एशर ने असीरिया की सफलता का कारण बताया और कई बार इन दैवी प्रतिमाओं को अथवा चिह्नों को लड़ने वाले युद्ध में साथ ले जाते थे । जब आर्क को इजरालत के डेरे में लाया गया, तब फिलीस्टाईन ने कहा, 'आर्क के रूप में देवता का हमारे डेरे में आगमन हुआ है और वह निश्चित ही अपनी सामर्थ्य से हमें सफलता हासिल करा देगा, क्योंकि जब डेविड उनका बालापेराजिम में पराभव किया, तब लूट के माल में उन देवताओं की प्रतिमाए शामिल थीं, जो वे युद्ध भूमि में अपने साथ ले गए थे। मेसीडोन के फिलिप राजा के साथ 'कार्थजिनियस' लोगों का जो समझौता हुआ था, उसमें उन लोगों ने इस तरह उल्लेख किया है- 'अभियान में भाग लेने वाले देवता' का निस्संदेह उन पवित्र शिविरों के वासियों से संबंध है, युद्ध भूमि में जिनका शिविर मुख्य सेनापति के शिविर के साथ लगाया गया था और जिसके सामने विजय के बाद कैदियों की बलि दी गई थी। उसी प्रकार से किसी अरब कवि ने कहा था, 'युगूथ हमारे साथ मोराद के विरुद्ध आया।' इसका मतलब है कि युगूथ देवता की प्रतिमा युद्ध में साथ लाई गई थी। "
1. दि रिलीजन ऑफ सैमाइट्स
इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि देवता और समाज में दृढ़ सामंजस्य था।
'अतः देवता और उनके उपासकों के बीच सामंजस्य के इस तत्व के आधार पर बने राजनीतिक समाज के विशेष गुण धार्म के क्षेत्र में परिलक्षित होते हैं। इसी प्रकार से, जब किसी भी समुदाय अथवा गांव के देवता का उन लोगों की आराधना तथा सेवा पर निर्विवाद अधिकार होता है जिनका वह देवता होता है, तब वह उनके शत्रुओं का शत्रु भी होता है और उन लोगों के लिए अनजान होता है, जिन्हें वे लोग नहीं जानते। ¹"
इस तरह देवता का एक समुदाय के साथ और समुदाय का अपने देवता के साथ संबंध स्थापित हो गया। देवता उस समुदाय का देवता और वह समुदाय उस देवता का मनोनीत समुदाय बन गया।
इस दृष्टिकोण के दो परिणाम हुए। प्राचीन समाज ने यह सिद्धांत कभी भी इस धारणा के रूप में स्वीकार नहीं किया कि देवता विश्वव्यापी है और वह सभी का देवता है। प्राचीन समाज में कमी थी यह धारणा नहीं बनी कि इस सबके अलावा समाज में मानवता नाम की कोई वस्तु है ।
प्राचीन और आधुनिक समाज में जो तीसरा मतभेद है, उसका संबंध देवता के पितृत्व की संकल्पना के साथ है। प्राचीन समाज में देवता को लोगों का पिता माना जाता था, परंतु इस पितृत्व की संकल्पना का आधार शारीरिक माना गया था।
"मूर्ति पूजक धर्मों में देवताओं के पितृत्व के रूप में माना जाता था। उदाहरण के लिए, ग्रीक लोगों की यह कल्पना कि जिस प्रकार से कुम्हार माटी से प्रतिमाएं बनाता है, उसी प्रकार से देवताओं ने मनुष्यों को मिट्टी से आकार प्रदान किया है; यह एक प्रकार से आधुनिक कल्पना है। पुरानी धारणा यह है कि मनुष्य दोनों की माता है और इस तरह मनुष्य वास्तव में देवताओं के वंश के अथवा उनके स्वजन बन जाते हैं। यही धारणा पुराने सेमाइट्स लोगों में बनी थी, ऐसा बाइबिल से स्पष्ट होता है। जैरेमिह लोग इन मूर्तियों का अपने पूर्वजों के रूप में वर्णन करते हैं जैसे, तुम मेरे पिता हो; और उस पत्थर को कहते हैं, तुम मुझे इस संसार में लाए। प्राचीन कविता नुम 21-29 में, मोआब लोगों को चेमोश देवता के पुत्र-पुत्री कहा गया है, और बहुत ही
1. दि रिलीजन ऑफ सैमाइट्स
आधुनिक समय में मलाचि नाम के धर्मोपदेशक ने किसी मूर्तिपूजक स्त्री को 'विलक्षण देवता की पुत्री कहा है। निस्संदेह यह सभी संबोधान उस भाषा का एक भाग है, जो इजराइल के पड़ोसी लोग अपने लिए प्रयोग करते थे। सीरिया और पेलेस्टिनियन देशों में प्रत्येक जाति अथवा अनेक छोटी जातियों का एक जमघट भी अपने-आपकों स्वतंत्र जाति के रूप में मानता है, और अपनी मूल उत्पत्ति का संबंध उस प्रथम पितामह (देवता) के साथ जोड़ता है। ग्रीक देश के लोगों की तरह उनके लिए भी यह पितामह अथवा वंश का उत्पत्तिदाता वंश का देवता ही होता है। बहुत से नवीनतम अन्वेषकों के अनुमान से ईसाई धर्म की पुस्तक के पहले खंड में प्रांतों की पुरानी वंशावली में अनेक देवताओं के नाम पाए जाते हैं। यह बात इस विचार के अनुरूप ही है। उदाहरण के तौर पर, एडोमाईट लोगों के उत्पत्तिदाता एडम की हिब्र लोगों ने जेकब के भाई ईशु के साथ पहचान बताई है, परंतु मूर्तिपूजकों के लिए वह देवता था। यह बात 'ओबेडेडम' लोगों से स्पष्ट होती है, जो 'एडम के उपासक' हैं। फोयनिशियन और बेबिलयन वंशों के वर्तमान वंशों की उत्पत्ति तब हुई, जब प्राचीन धर्म और प्रत्येक देवता को किसी जाति विशेष के साथ संबंधित होने की बात लोग भूल गए थे अथवा यह बात महत्वहीन बन गई थी परंतु सर्वसाधारण रूप में यह धारणा आज भी प्रचलित है कि मनुष्य देवताओं की संतान है। फिलो बेबलिस वंश के लोगों के विश्व निर्माण के फोयनिशियन सिद्धांत में यही धारणा कुछ अस्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। इसका कारण लेखक का संकेच था । इस सिद्धांत के अनुसार, देवता दैवी पुरुष होते हैं, जो अपनी जाति के लिए महान उद्धारक का कार्य करते हैं। उसी प्रकार से बेरोसस लोगों की चाल्डियन पौराणिक कथा में यह धारणा कि मनुष्य भी देवों के रक्त संबंध के ही होते हैं, बहुत ही अपरिपक्व रूप से व्यक्त की गई है। यह कथा बहुत प्राचीन समय की नहीं है। इसमें यह कहा गया है कि पशु-पक्षी तथा मनुष्य, सभी को उस मिट्टी से बनाया गया, जिसमें किसी सिर कटे देवता का रक्त मिलाया गया था । ¹"
मनुष्य और देवताओं के इस खून के रिश्ते की कल्पना का एक महत्वपूर्ण परिणाम हुआ। प्राचीन संसार के लिए देवता भी मानव ही था और इसलिए वह परिपूर्ण सद्गुण तथा उत्तमता के योग्य नहीं था। देवताओं का स्वभाव भी मनुष्यों से मिलता-जुलता था, इसलिए मनुष्यों में जो भावनाएं, बीमारी तथा दुर्गुण पाए जाते हैं, वे उनमें भी होते थे। प्राचीन संसार के देवताओं की मनुष्यों के समान वासनाएं तथा आवश्यकताएं थीं और कई बार वे भी उन दुर्गुणों में व्यस्त हुआ करते थे, जिनसे अनेक लोग ग्रस्त थे। उपासकों को अपने देवताओं की इस बात के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी कि कहीं वे भी उन्हें लालच की ओर न ले जाएं।
1. दि रिलीजन ऑफ सैमाइट्स
आधुनिक समाज में दैवी पितृत्व की कल्पना का प्राकृतिक आधार पर नैसर्गिक पितृत्व से पूर्ण रूप से संबंध विच्छेद हो गया। उसके स्थान पर यह कल्पना प्रचलित हो गई कि मनुष्य की देवता के रूप में निर्मिति होती है, वह वास्तव में देवता से उत्पन्न नहीं होता । देवता के पितृत्व की कल्पना में आए इस परिवर्तन को यदि नैतिक दृष्टि से देखा जाए, तो उसके कारण देवता के सृष्टि के संचालनकर्ता रूप में बहुत भारी परिवर्तन आया है। देवता को उसके प्राकृतिक रूप में परिपूर्ण उत्तमता और सद्गुणों के योग्य नहीं माना जाता था और जब देवता ही अपने सदाचार में परिपूर्ण नहीं था, तब उसके अनुसरण से यह सृष्टि भी सदाचार से परिपूर्ण हो, ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। देवता के मनुष्य के साथ शारीरिक संबंधों के विच्छिन होने के कारण अब यह कल्पना की हो सकती है कि देवता उत्तमता एवं सद्गुणों से परिपूर्ण हो ।
मतभेद का चौथा मुद्दा, जब राष्ट्रीयता में परिवर्तन होता है, तब धर्म को जो भूमिका निभानी पड़ती है, उससे संबंधित है।
प्राचीन संसार में जब तक धर्म परिवर्तन न किया जाए, राष्ट्रीयता में परिवर्तन नहीं हो सकता था। प्राचीन संसार में-
"किसी व्यक्ति के लिए अपनी राष्ट्रीयता में परिवर्तन किए बगैर धर्म परिवर्तन करना असंभव था और संपूर्ण जाति के लिए धर्म परिवर्तन करना तब तक असंभव था जब तक कि उन्हें किसी जाति में अथवा राष्ट्र में पूर्ण रूप से समाहित न कर लिया जाए। राजनीतिक संबंधों की तरह धर्म भी पुत्र को अपने पिता से प्राप्त होता था, क्योंकि मनुष्य अपनी इच्छाओं से नए देवता का चयन नहीं कर सकता था। अपने रिश्ते-नातों का त्याग करके उसे दूसरे नागरिक जीवन तथा धार्मिक जीवन के समुदाय में जब तक स्वीकार न किया जाए, तब तक उसके लिए उसके पिता के देवता ही एकमात्र ऐसे देवता होते थे, जिन पर वह मैत्री के लिए निर्भर रह सकता था और जो उसकी पूजा को स्वीकार कर सकते थे। "
सामाजिक एकरूपता के लिए धर्म परिवर्तन की कसौटी कि तरह आवश्यक होती थी, यह बात ओल्ड टेस्टामेंट के 'नाओमी' और 'रूथ' के बीच संवाद से स्पष्ट होती है ।