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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग ११  ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     हिंदु तथा गैर-हिंदू आपराधिक न्याय - शास्त्र में कितना विलक्षण अंतर है ? अपराध के लिए दंड देते हुए हिंदू धर्म शास्त्रों में कितनी विशाल असमानता लिखी गई है ? न्यायदान की भावना-भरे कानून में हमें दो बातें मिलती हैं। एक भाग, जिसमें अपराध की व्याख्या तथा उसे भंग करने वाले को न्यायोचित दंड देने की व्यवस्था है और दूसरा, वह नियम कि एक ही प्रकार का अपराध करने वाले को एक समान दंड होगा। परंतु हम मनु में क्या देखते हैं? पहला, अविवेकी दंड देने की पद्धति । मनुष्य के शरीर के अवयवों जैसे पेट, जबान, नाक, आंखें कान, जननेन्द्रिय आदि को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व मानकर तथा यह कहकर कि वे आज्ञा पालन नहीं करते, अपराध के लिए इन अवयवों को काटने की सजा दी जाती है, मानों वे अपराध में शामिल हों, मनु के अपराध कानून की दूसरी विशेषता है सजा देने का अमानवीय स्वरूप, जिसका अपराध की गंभीरता से कोई संबंध नहीं है। परंतु इन सबसे अधिक मनु के कानून की विलक्षण विशेषता, जो पूर्ण रूप से नग्न होकर उभरती है, वह है एक अपराध के लिए सजा देने में असमानता । यह असमानता केवल अपराधी को सजा देने के लिए ही तैयार नहीं की गई है, परंतु जो लोग न्याय प्राप्त करने के लिए न्याय - मंदिरों में जाते हैं, उनके अस्तित्व तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए भी उसका निर्माण किया गया है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक असमानता, जिस पर इसकी संपूर्ण योजना स्थित है, उसे बनाए रखने के लिए कानूनों का निर्माण किया गया है।

Hindutva Ka Darshan - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar     अब तक मैंने केवल ऐसे उदाहरण ही लिए हैं, जो यह दर्शाते हैं कि मनु ने किस प्रकार से सामाजिक असमानता बनाने और उसे जारी रखने में मदद की। परंतु अब मैं मनु द्वारा प्रयुक्त किए गए ऐसे मसले उठाना चाहूंगा, जो यह स्पष्ट करते हैं कि मनु ने धार्मिक असमानता का निर्माण भी किया। यह ऐसे मसले हैं, जिनका संबंध उन बातों से है, जिसे आश्रम तथा धर्म - विधि (संस्कार) कहा जाता है।

     हिंदुओं का ईसाइयों की तरह धर्म-संस्कारों पर विश्वास है। उनमें केवल एक ही अंतर है कि हिन्दुओं में इतने अधिक धर्म - संस्कार हैं जिसे उनकी संख्या देकर रोमन कैथेलिक ईसाई भी आश्चर्यचकित हो जाएंगे। आरंभ में इन धार्मिक विधियों की संख्या केवल 40 थी और उनका मनुष्य के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों से लेकर, छोटी-छोटी बातों से संबंध था। पहले उनकी संख्या बीस तक कम की गई। बाद में घटाकर सोलह कर दी गई और उस संख्या पर हिंदुओं के धर्म - संस्कार स्थिर हो गए हैं ।

     इन धार्मिक संस्कारों के मूल में असमानता की भावना किसी हद तक अभिव्यक्त हुई है, इस बात को स्पष्ट करने के पूर्व पाठकों को इस बात का ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि यह नियम क्या हैं। सभी नियमों का परीक्षण करना असंभव है। उनमें से कुछ नियमों को जानना ही पर्याप्त होगा । मैं केवल तीन प्रकार के नियमों का ही उल्लेख करूंगा, जिनका संबंध दीक्षा, गायत्री तथा दैनिक हवन से है।

     पहले दीक्षा-संस्कार को देखते हैं। किसी व्यक्ति का पवित्र धागे से अभिषेक (जनेऊ पहनना) कर दीक्षा - संस्कार सम्पन्न किया जाता है। इस अभिषेक - संस्कार के मनु के कुछ महत्वपूर्ण नियम हैं-

     2.36. जन्म के बाद ब्राह्मण पिता को आठवें वर्ष में, क्षत्रिय पिता को ग्यारहवें वर्ष में, और वैश्य पिता को बारहवें वर्ष में अपने पुत्र को उसके वर्ग प्रतीक का अभिषेक करना चाहिए।

     2.37. ब्राह्मण अपने बालक के ज्ञानवर्धन के लिए पांचवे वर्ष में क्षत्रिय अपने बालक का पराक्रम बढ़ाने के लिए छठे वर्ष में और वैश्य अपने बालक के धन-धान्य की समृद्धि के लिए आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार कराए ।

     2.38. ब्राह्मण को सोलह वर्ष, क्षत्रिय की बाईस और वैश्य की चौबीस वर्ष की अवस्था होने से पहले गायत्री मंत्र द्वारा उपनयन कराना चाहिए।

     2.39. इसके बाद, इन तीनों वर्णों के सभी युवक, जिनका उचित समय पर अभिषेक न हुआ हो, जाति से बहिष्कृत बन जाते हैं, उनका गायत्री से पतन होता है और गुणवान लोग उनकी निंदा करते हैं और वे ब्रात्य कहलाते हैं।

     2.147. मनुष्य को विचार करना चाहिए कि उसके माता-पिता ने अपनी परस्पर संतुष्टि के लिए उसे जो जन्म दिया है और जो वह अपनी मां के गर्भ से प्राप्त करता है, वह केवल मानव - जन्म है।

     2.148. परंतु संपूर्ण वेदों का ज्ञानी आचार्य जिस बालक को विधिपूर्वक उसकी दैवी माता सावित्री से उत्पन्न करता है वह बालक सत्य, अजर और अमर है।

     2.169. पहला जन्म नैसर्गिक माता से, दूसरा जन्म अपनी परिधि के बंधन से और तीसरा जन्म यज्ञ - संस्कारों के उचित पालन से होता है। वेदों के अनुसार, जिसे सामान्य रूप से द्विज कहा गया है, उनके ऐसे जन्म होते हैं।

     2.170. इनमें से उसका दैवी जन्म वह है जो परिधि के बंधन से तथा यज्ञ के धागे (जनेऊ) से होता है और इस जन्म में उसकी माता गायत्री होती है और पिता आचार्य होता है।

     अब हम गायत्री को देखते हैं। वह एक मंत्र अथवा एक विशेष आध्यात्मिक शक्ति की प्रार्थना है । मनु ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है।

     2.76. ब्रह्मा ने एक पटक आदि तीनों वेदों से, 'अ' 'उ' तथा 'म' यह तीन अक्षर पिरोकर निकाले, जिनके मिश्रण से तीन अर्थ एक ही पद्यांश के तीन गूढ़ शब्द भूः, भुवः, स्वः बन गए, जिसका अर्थ है, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग ।

     2. 77. प्राणियों के स्वामी ने तीनों वेदों से, अचिन्त्य रूप में, एक के बाद एक तीन अवर्णनीय शब्द उन्नत किए, जो तत् शब्द से शुरू होते थे और उन्हें सावित्री अथवा गायत्री शीर्षक दिया गया।

     2.78. जो पुरोहित, वेद जानता है और उसका सुबह- शाम पाठन करता है तथा उस पवित्र पाठ के पहले उन तीन शब्दों का उच्चारण करता है, उसे वेदों में निहित पुण्य प्राप्त होगा ।

     2.79. और एक द्विज व्यक्ति, जो इन तीनों (अथवा ओम, व्याहृति एवं गायत्री) का एक हजार बार उच्चारण करेगा, उसे एक माह के भीतर उसी प्रकार घोर अपराध से मुक्ति मिलेगी, जिस प्रकार सांप केंचुली से मुक्त होता है।

     2.80. पुरोहित, क्षत्रिय तथा वैश्य, जो भी इन गूढ़ पाठों की उपेक्षा करेगा, और उचित समय पर अपनी विशेष धार्मिक विधि नहीं करेगा, उसे सदाचारी लोग निन्दनीय मानेंगे।

     2.81. महान अपरिवर्तनीय शब्दों के पहले उन तीन अर्थी अक्षरों को और उसके बाद गायत्री को, जिससे त्रिपदा बनती है, वेदों का मुख अथवा मुख्य भाग माना जाना चाहिए।

     2.82. जो कोई भी प्रतिदिन, तीन वर्षों तक बिना उपेक्षा किए उन पवित्र पाठों का पठन करेगा, उसे दैवी सार प्राप्त होगा और वह वायु की तरह मुक्त संचार कर सकेगा तथा उसे आकाश का रूप प्राप्त होगा ।

     2.83. तीन अक्षरों का वह पद उस सर्वश्रेष्ठ का प्रतीक है। श्वास रोककर ईश्वर पर मन केंद्रित करना, यह सर्वोच्च भक्ति है। परंतु गायत्री से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। सत्य को घोषित करना मौन को धारण करने से श्रेष्ठ है।

     2.84. वेदों में निहित सभी संस्कार अग्नि को आहुति और पवित्र त्याग में समाप्त होते हैं। परंतु जो अमर्त्य है वह अक्षर ओउम है, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतीक है, और जो प्रजापति है।

     2.85. उस पवित्र नाम का स्मरण करना या दोहराना किसी यज्ञ करने से दस गुना श्रेष्ठ है और जब यह नाम स्मरण कोई दूसरा व्यक्ति नहीं सुनता हो, तब यही कार्य सौ गुना श्रेष्ठ बन जाता है और जब इस नाम का मन-ही-मन में मानसिक रूप से स्मरण किया जाए तब वह एक हजार गुना श्रेष्ठ होता है।

     2.86. विधि यज्ञों के सहित भी जो चार पाक यज्ञ हैं, वे भी जप यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर नहीं है।

     अब दैनिक यज्ञ - संस्कार देखें।

     3.69. अनजाने में किए गए अपराधों का प्रायश्चित करने के लिए विद्वान ऋषियों ने प्रतिदिन घर में करने के लिए पांच महायज्ञ बताए हैं।

     3. 70. धर्म - शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन वेदों के अनुसार यज्ञ हैं अन्न और जल अर्पण करना पितृ यज्ञ है। अग्नि को आहुति देना देवों के लिए यज्ञ है। सजीव प्राणी यज्ञ को चावल अथवा अन्य भोजन देना भूत यज्ञ है और अतिथि का आदर-सत्कार करना यज्ञ है।

     3.71. इन पंचमहायज्ञों को यथाशक्ति नहीं छोड़ने बाबा ग्रहस्थाश्रम में रहता हुआ भी द्विज पंचसूना ( पांच पापों) के दोष से निष्कलंक रहता है।



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