हिंदुत्व में हीनता की भावना किस प्रकार व्याप्त है, उसे एक अन्य उदाहरण देते हुए मैं हिंदु बालकों के नामकरण के नियमों के द्वारा स्पष्ट करूंगा।
हिंदुओं के नाम चार प्रकार के होते हैं इसका संबंध या तो -
(1) पारिवारिक देवता के साथ होता है,
(2) जिस माह में बच्चा जन्म लेता, उसके साथ,
(3) जिन ग्रह-नक्षत्रों में बच्चा जन्म लेता है उसके साथ, अथवा,
(4) पूर्ण रूप से प्रासंगिक अर्थात् व्यवसाय के साथ होता है ।
मनु के अनुसार, हिंदु का प्रासंगिक नाम दो भागों का होना चाहिए और मनु यह भी निर्देश देता है कि पहला भाग तथा दूसरा भाग किन बातों को दर्शाए । ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग ऐसा शब्द हो जो आनंद व्यक्त करे, क्षत्रिय का ऐसा हो जो रक्षा व्यक्त करे, वैश्य के लिए ऐसा शब्द हो जो संपन्नता व्यक्त करे और शूद्र के लिए ऐसा शब्द हो जो सेवा व्यक्त करे। इसके अनुसार ब्राह्मणों के लिए शर्मा (प्रसन्नता ) अथवा देव (ईश्वर), क्षत्रिय के लिए राजा (अधिकार) अथवा वर्मा (शस्त्र), वैश्यों के लिए गुप्ता (दान) अथवा दत्ता ( दानकर्ता) और शूद्रों के लिए दास (सेवा)। ये शब्द नामों का दूसरा भाग बने हैं। नाम के पहले भाग के संबंध में मनु कहता है किस ब्राह्मण के लिए वह शुभ सूचक हो और वैश्य के लिए संपत्ति का सूचक हो । परंतु शूद्र के लिए मनु कहता है कि उसके नाम का पहला भाग कोई ऐसा शब्द होना चाहिए, जो घृणा योग्य हो। जो लोग ऐसा दर्शन अविश्वसनीय मानते हैं, वे शायद इन बातों के वास्तविक संदर्भ जानना चाहेंगे। मैं मनुस्मृति से निम्नलिखित कुछ श्लोकों के उदधृत करता हूं।
नामकरण समारोह के लिए मनु कहता है :
2.30. पिता को बच्चे के जन्म के बाद दसवें अथवा बारहवें दिन, शुभ ग्रह के अवसर पर अथवा शुभ तिथ पर नामधेय (बच्चे का नामकरण संस्कार) करना चाहिए ।
2.31. ब्राह्मण के नाम का पहला भाग शुभ सूचक होना चाहिए, क्षत्रिय के नाम का शक्ति के साथ संबंध हो और वैश्य का संपत्ति के साथ, परंतु शूद्र के नाम का पहला भाग कोई ऐसा हो जो घृणा व्यक्त करे ।
2.32. ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग ऐसा शब्द हो जो प्रसन्नता व्यक्त करें। क्षत्रिय का नाम रक्षा व्यक्त करे, वैश्य का समृद्धि और शुद्र का सेवा व्यक्त करे ।
किसी शूद्र का नाम उच्च भावना का प्रतीक हो, यह बात मनु सहन नहीं कर सकता। शूद्र वास्तविक स्थिति में तथा नाम से भी घृणित होना चाहिए।
हिंदु धर्म किस प्रकार से सामाजिक तथा धार्मिक, दोनों ही समानताओं को नकारता है, और यह किस प्रकार के मानव-व्यक्तित्व के अधःपतन का प्रतीक है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमने बहुत कुछ कहा है।
क्या हिंदु धर्म स्वतंत्रता को मान्यता देता है ?
स्वतंत्रता को वास्तविक बनाने के लिए उसके साथ कुछ सामाजिक शर्तें भी जुड़ी होनी चाहिएं।¹
प्रथम, सामाजिक समानता का होना आवश्यक है।
"विशेष अधिकार से सामाजिक कार्यों का संतुलन उन पर अधिकार रखने वालों के पक्ष में झुका जाता है। नागरिकों के सामाजिक अधिकारों में जितनी अधिक समानता होगी, अपनी स्वतंत्रता का वे उतना ही अधिक उपभोग कर सकेंगे। .. अगर स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है, तो यह आवश्यक है कि समानता हो । "
दूसरे, आर्थिक सुरक्षा होनी चाहिए।
"मनुष्य को अपनी रुचि के व्यवसाय का चयन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, और यदि उसे रोजगार की सुरक्षा न हो तो वह मानसिक तथा शारीरिक गुलामी का शिकार बन जाता है, जो स्वतंत्रता की मूल भावना के ही प्रतिकूल है। भविष्य के प्रति निरंतर भय, होने वाली हानि की आशंका, सुख और सौंदर्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयास की विफलता, इस सबसे यह बात स्पष्ट होती है कि आर्थिक सुरक्षा के बिना स्वतंत्रता निरर्थक है । व्यक्ति स्वतंत्र होते हुए भी स्वतंत्रता के उद्देश्य को समझने में असमर्थ हो सकता है।"
1. लिबर्टी इन दि मार्डन स्टेट, लास्की
तीसरे, ज्ञान का सब लोगों के लिए उपलब्ध होना आवश्यक है। इस जटिल संसार में मनुष्य हमेशा संकटों से घिरा रहता है और उसके लिए अपनी स्वतंत्रता खोए बगैर अपना रास्ता तय करना जरूरी है।
"जब तक मन को स्वतंत्रता का उपयोग करने की शिक्षा न दी जाए, जब तक स्वतंत्रता का कोई मूल्य ही नही रहता । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्राप्त करने का मनुष्य का अधिकार उसकी स्वतंत्रता के लिए मूलभूत अधिकार बन जाता है। मनुष्य को ज्ञान से वंचित रखकर आप उसे अनिवार्य रूप से उन लोगों का गुलाम बना देंगे, जो उससे अधिक सौभाग्यशाली हैं।. .... ज्ञान से वंचित रखने का मतलब है, उस शक्ति को नकारना है, जिससे स्वतंत्रता का महान उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है। एक अज्ञानी मनुष्य स्वतंत्र हो सकता है ..... (परंतु ) वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर सकता, जिससे कि वह अपनी प्रसन्नता के प्रति आश्वस्त हो सके।"
हिंदु धर्म इनमें से कौन-सी कसौटियों की पूर्ति करता है? हिंदु धर्म किसी प्रकार से समानता को नकारता है, यह बात हमने पहले ही स्पष्ट की है। वह विशेष अधिकार और असमानता को स्वीकार करता है। इस प्रकार हिंदु धर्म में स्वतंत्रता की आवश्यक प्रथम कसौटी इसकी अनुपस्थिति प्रकट करना है।
आर्थिक सुरक्षा के संबंध में हिंदु धर्म में तीन बातें दिखाई देती हैं। प्रथम, हिंदू धर्म व्यवसाय की स्वतंत्रता को नकारता है। मनु की योजना में प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके जन्म के पहले ही व्यवसाय निश्चित कर दिया गया है। हिंदू धर्म में इसके चयन का कोई अवसर नहीं है जो व्यवसाय पूर्व निश्चित किए जाते हैं। उनका मनुष्य की योग्यता और पसंद के साथ कोई संबंध नहीं है।
दूसरे, हिंदू धर्म मनुष्य को दूसरों द्वारा चुने गए उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करने के लिए बाध्य करता हैं मनु शूद्र से कहता है कि उसका जन्म ऊंचे वर्णों की सेवा करने के लिए ही हुआ है। मनु उनको उसी को अपना आदर्श बनाने के लिए बाध्य करता है। मनु द्वारा बनाए निम्नलिखित नियमों को हम देखें :
10.121. अगर कोई शूद्र ब्राह्मण की सेवा करते हुए अपना पालन-पोषण नहीं कर सकता, तब वह क्षत्रिय की सेवा कर सकता है अथवा किसी धनी वैश्य की भी सेवा करके अपना पालन-पोषण कर सकता है।
10.122. परंतु शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए.........
मनु ने शूद्रों के लिए कोई आदर्श बनाने की बात को ही नहीं छोड़ दिया, वह एक कदम और आगे बढ़ता है और कहता है कि उसके लिए नियत किए गए कार्य से वह भाग नहीं सकता और न ही उसे टाल सकता है क्योंकि मनु ने राजा के लिए जो कर्तव्य निश्चित किए हैं, उनमें से एक कार्य यह है कि राजा यह देखे कि शूदों सहित सभी जाति के लोग अपने निश्चित कर्तव्यों का पालन करें।
8.4.10. राजा प्रत्येक वैश्य को उसका व्यवसाय करने की अथवा पैसा उधार देने की अथवा खेती करने की अथवा पशु पालन की, और शूद्र जाति के प्रत्येक मनुष्य को द्विज की सेवा करने की आज्ञा दे ।
8.4.18. पूर्ण रूप से जाग्रत तथा सचेत होकर राजा आदेश दे कि वैश्य तथा शूद्र अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करें, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं, तब सारा संसार भ्रम में पड़ जाता है ।
कर्तव्य का पालन न करना अपराधा माना गया था, जिसके लिए कानून के अनुसार राजा दंड देता था ।
8.335. यदि पिता, शिक्षक, मित्र, माता, पत्नी, पुत्र, घरेलू पुरोहित अपने - अपने कर्तव्य का दृढ़ता व सच्चाई के साथ निष्पादन नहीं करते हैं तो इनमें से किसी को भी राजा द्वारा बिना दंड के नहीं छोड़ा जाना चाहिए ।
8.336. जिस अपराध में साधाण व्यक्ति एक पण से दंडनीय है, उसी अपराध के लिए राजा सहस्त्र पणा से दंडनीय है, ऐसा शास्त्र का निर्णय है। उसे यह दंड राशि पुरोहित को या नदी को भेंट करनी चाहिए ।
इन नियमों की आध्यात्मिक तथा आर्थिक, दो प्रकार की विशेषताएं हैं। आध्यात्मिक अर्थ से यह नियम गुलामी के दर्शने की रचना करते हैं। जिन लोगों को गुलामी के केवल बाह्य वैधानिक अर्थ की जानकारी है और इसके अंतर्निहित अर्थ का ज्ञान नहीं है, उन्हें संभवतः यह चीज स्पष्ट न हो। इसके आंतरिक अर्थ के अनुसार, प्लेटो ने जैसा परिभाषित किया है, गुलाम ऐसा व्यक्ति है जो दूसरों से उन उद्देश्यों को स्वीकार करता है, जो उसके आचरण को नियंत्रित करते हैं। इस अर्थ से एक गुलाम की अपनी कोई नियति नहीं है। वह केवल दूसरों की इच्छापूर्ति का एक साधन है। इस बात को समझने पर स्पष्ट हो जाता है कि शूद्र गुलाम है। नियमों के आर्थिक महत्व के संदर्भ में ये नियम शूद्रों की आर्थिक स्वतंत्रता पर बंधन डालते हैं। मनु कहता है कि शूद्र केवल सेवा करें। इस बात में शिकायत करने योग्य शायद ज्यादा कुछ न हो, परंतु गलती वहां हैं, जहां नियम नियम दूसरों की सेवा करने को कहते हैं। वह अपनी सेवा नहीं कर सकता, जिसका मतलब है, वह आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता, उसे हमेशा के लिए दूसरों पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर रहना पड़ेगा । क्योंकि मनु ने कहा है :
1.91. ब्रह्मा ने शूद्र को एक सबसे प्रमुख कार्य सौपा है, वह है, बिना किसी उपेक्षा भाव के उक्त तीनों वर्णों की सेवा करना ।
तीसरे स्थान पर शूद्रों के लिए हिंदू धर्म में संपत्ति संचित करने के लिए कोई अवसर नहीं है। शूद्रों को उसकी सेवा करने के लिए तीनों उच्च वर्गों द्वारा वेतन देने के संबंध में मनु के नियम बहुत ही आदर्शात्मक हैं। शूद्रों को वेतन देने के प्रश्न पर मनु कहता है :
10.124. शूद्र की क्षमता, उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगों की संख्या को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक संपत्ति से उचित वेतन दें।
10.125. शूद्र को जूठा भोजन, पुराने वस्त्र, अन्न का युआल तथा पुराने बर्तन आदि देने चाहिए।
यह मनु का वेतन संबंधी कानून है। यह न्यूनतम वेतन का कानून नहीं यह अधिकतम वेतन का कानून है। यह एक ऐसा लौहे - कानून भी था, जिसे इतने निम्न स्तर पर निश्चित किया गया था कि शूद्र के संपत्ति एकत्रित करने और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करने का कोई खतरा नहीं था। परंतु मनु किसी प्रकार की अनिश्चितता नहीं छोड़ना चाहता था और इसलिए उसने बहुत विस्तार में शूद्रों के संपत्ति एकत्रित करने पर प्रतिबंधा लगाया । वह दृढ़ता के साथ कहता है :
10. 129. शूद्र धन संचय करने की स्थिति में हो, फिर भी ऐसा न करे क्योंकि जो शूद्र धन-संचय करता है, वह ब्राह्मण को दुःख पहुंचाता है।