अपने मत की पुष्टि के लिए मैं जिन-जिन ग्रंथों के उदाहरण देना चाहता हूं, वे हैं: 1. भागवत्गीता, 2. वेदांतसूत्र, 3. महाभारत, 4. रामायण, और 5. पुराण। इस साहित्य का विश्लेषण करते हुए मैं उन तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहता हूं, जिनसे बौद्ध धर्म के पतन के कोई कारण या कारणों का अनुमान किया जा सके।
इस साहित्य-संपदा की विषय-वस्तु का परीक्षण शुरू करने से पहले इस प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक है कि इनकी रचना कब हुई होगी। संभवत: सभी इस तथ्य से सहमत नहीं होंगे कि उपर्युक्त साहित्य की रचना पुष्यमित्र की क्रांति के बाद हुई थी। उलटे, अधिकतर हिंदू, वे चाहे परंपरावादी हों या उदारतावादी, शिक्षित हों या अशिक्षित, सभी की यह धारण है कि काल की दृष्टि से उनका उपर्युक्त पवित्र साहित्य अत्यंत पुराना है। इस पर उनकी अगाध श्रद्धा है। इस कारण वह अपने इस साहित्य को कालातीत मान बैठते हैं।
आइए, हम भागवत्गीता से शुरू करें। इसके रचना काल के बारे में विवाद है। श्री तेलंग¹ ईसा पूर्व दूसरी सदी को अंतिम सदी मानते हैं, जिसके पूर्व गीता की रचना अवश्य हो गई होगी। स्वर्गीय तिलक² का दृढ़ मत था कि वर्तमान गीता का रचना-काल हर हालत में शक संवत् के 500 वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। प्रो. गार्बे³ के अनुसार गीता का रचना-काल सन् 200 से 400 के बीच माना जाना चाहिए । श्री कोसांबी का मत इनसे अलग है जो विवाद रहित तथ्यों पर आधारित है। प्रो. कोसांबी यह बात जोर देकर कहते हैं कि गीता की रचना गुप्तवंशीय नरेश बालादित्य के शासन काल में हुई थी । बालादित्य उस गुप्त वंश से संबंधित था जिसने आंध्रवंश को सत्ताच्युत कर दिया था । बालादित्य सन् 467 में सत्तारूढ़ हुआ। गीता के रचना - काल को इतने बाद का बताने के उन्होंने दो कारण दिए हैं: 1. शंकराचार्य का जन्म सन् 788 और मृत्यु सन् 820 में हुई थी। उन्होंने भागवत्गीता का भाष्य लिखा। इससे पहले गीता को कोई नहीं जानता था। शांतरक्षित के तत्वसंग्रह में इसका कहीं उल्लेख नहीं आया है जब कि शंकराचार्य के आविर्भाव के लगभग 50 वर्ष पहले यह ग्रंथ लिखा गया था। दूसरा कारण उन्होंने बताया है कि वसुबंधु
1. सेक्रेड बुक ऑफ दि ईस्ट सीरीज में भवगद्गीता (अनुवाद श्री तेलंग) में उनकी भूमिका देखें।
2. गीता रहस्य (अंग्रेजी अनुवाद, खंड 2). पृ. 800, श्री तिलक के मतानुसार मूल गीता इससे कुछ शताब्दी पूर्व लिखी गई होगी
3. प्रो. उटगीकर के अंग्रेजी अनुवाद 'इंट्रोडक्शन टू दि भागवत्गीता में प्रो. गार्बे की भूमिका
'विज्ञानवाद' नामक एक संप्रदाय का प्रवर्तक था। ब्रह्म सूत्र भाष्य में इस विज्ञानवाद की वसुबंधु कृत आलोचना मिलती है। गीता में एक जगह ब्रह्म सूत्र भाष्य का उल्लेख आया है।¹ इसलिए गीता की रचना वसुबंधु और ब्रह्मसूत्र भाष्य के बाद ही हुई होगी। वसुबंधु गुप्तवंशीय नरेश बालादित्य का गुरु था। इसी आधार पर पूरी भागवत्गीता का लेखन या कम से कम उसके कुछ अंशों का मूल गीता में जोड़ा जाना निश्चय ही बालादित्य के शासनकाल में या उसके बाद, अर्थात सन् 467 के लगभग हुआ होगा ।
यद्यपि भागवत्गीता के रचना - काल के बारे में तो मतभेद पाया जाता है, किंतु इस बारे में किसी तरह का मतभेद नहीं मिलता कि भागवत्गीता के कालांतर में अनेक संस्करण हुए थे। सभी इस बारे में सहमत हैं कि आज हमें भगवद्गीता जिस स्वरूप में उपलब्ध है, वह उसका मूल रूप नहीं है। अलग-अलग समय में अलग-अलग संपादकों के हाथों इसमें क्षेपक जुड़ते रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि जिन-जिन संपादकों के हाथों इसमें रूपांतर होता रहा है, उन सबकी क्षमता समान नहीं थी। प्रो. गाबें कहते है²:
गीता निश्चय ही कोई ऐसी कलात्मक कृति नहीं जिसकी रचना किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति ने की हो। इसमें कल्पना की उड़ान तो बहुत बार दिखाई पड़ जाती है, किंतु वह भी कभी-कभी ही। इसमें केवल आडंबरपूर्ण और अर्थहीन शब्दावली के माध्यम से बार-बार किसी एक ही विचार की आवृत्ति दिखाई पड़ती है। कभी-कभी तो साहित्यिक अभिव्यक्तियां भी प्रचुर मात्रा में दोषपूर्ण पाई जाती हैं। अनेक छंद उपनिषदों से ज्यों के त्यों उठाकर रख दिए गए लगते हैं। और यही बात ऐसी है, जिसकी अंत:प्रेरणा से युक्त हर कवि सदा बचना चाहेगा। सत्व, रजस् और तमस् का व्यवस्थित विवेचन पांडित्य प्रदर्शन भर के लिए हुआ है। इनके अतिरिक्त, कई ऐसी बातें और हैं जिनके आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि गीता किसी सच्चे और सृजनात्मक कविहृदय की उपज नहीं है.....
होपकिन्स का भगवद्गीता के बारे में कथन है कि यह कृति अपनी उदात्तता और अपने बचकानेपन, अपनी तार्किकता और उसके अभाव, दोनों के बारे में विशिष्ट है, अपनी यत्र-तत्र अभिव्यक्ति शक्तिमता और रहस्यात्मक प्रशंसा के बावजूद भगवद्गीता काव्यात्मक कृति की दृष्टि से संतोषजनक नहीं है। एक ही बात को बार-बार दोहराया गया है। आवृत्ति दोष के साथ ही साथ इसमें पदावली और अर्थ में परस्पर विरोध के असंख्य उदाहरण मिलते हैं। इन सब बातों को देखते हुए यदि इसके बारे में यह कहा जाए कि 'यह एक अद्भुत गीत है जो रोमांचित कर देता है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा।
यह कहकर कि यह सब विदेशियों के विचार हैं, इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा
1. गीता अध्याय 13 श्लोक 4
2. वही, पृ. 3
सकता। प्रो. रोजवाडे¹ भी इनसे पूर्णत: सहमत लगते हैं। वह कहते हैं कि जिन लोगों का भागवत्गीता की रचना में हाथ रहा होगा, उन्हें व्याकरण के नियम भी मालूम नहीं थे।
सभी इस तथ्य से तो सहमत हैं कि अलग-अलग संपादकों के हाथों में पड़कर गीता के अलग-अलग संस्करण तैयार हुए, किंतु उनमें इस बात को लेकर असहमति है कि गीता में कौन से अंश जोड़े गए हैं। स्वर्गीय राजाराम शास्त्री भागवत के अनुसार मूल गीता में केवल साठ श्लोक थे। हम्बोल्ट का यह विचार रहा कि मूलतः गीता में केवल आरंभिक ग्यारह अध्याय ही थे। बारहवें से लेकर अट्ठारहवें अध्याय तक की समस्त सामग्री बाद में जोड़ी गई थी। होपकिन्स के अनुसार गीता के आरंभिक चौदह अध्याय ही उसका मर्म है। प्रो. राजवाडे दसवें और ग्यारहवें अध्यायों को प्रक्षिप्त मानते हैं। प्रो. गार्बे कहते हैं कि भागवत्गीता के 146 छंद नए हैं, जो मूल गीता के अंश नहीं थे। इसका अर्थ यह है कि गीता का लगभग पांचवां हिस्सा नया है ।
गीता का लेखक कौन है, इसके बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। गीता तो समरभूमि में अर्जुन और कृष्ण का संवाद है, जिसमें कृष्ण ने अपने दर्शन का प्रतिपादन अर्जुन के समक्ष किया था। इस संवाद का प्रत्याख्यान संजय ने कौरवों के पिता धृतराष्ट्र के सम्मुख किया था। गीता को तो महाभारत का अंश होना चाहिए था, क्योंकि जिस अवसर पर यह संवाद हुआ था, वह महाभारत की एक घटना का स्वाभाविक अंश है। किंतु गीता महाभारत का अंश नहीं है, यह तो एक अलग से स्वतंत्र रचना है। फिर भी इसके लेखक का नाम इसमें नहीं मिलता। हम तो केवल इतना जानते हैं कि व्यास ने संजय को आदेश दिया कि युद्ध-भूमि में अर्जुन और कृष्ण के बीच जो संवाद हुआ, उसे वह धृतराष्ट्र को सुनाए। इसलिए यह माना जा सकता है कि व्यास ही गीता के लेखक रहे होंगे।