इन आक्रमणों के समय बंगाल दो राज्यों, पूर्वी तथा पश्चिम में विभक्त हो गया था। पश्चिम बंगाल पर पाल वंश के राजाओं का शासन था और पूर्वी बंगाल पर सेन वंश के राजाओं का शासन था।
पाल क्षत्रिय थे। वे बौद्ध धर्मावलंबी थे, परंतु श्री वैद्य¹ के शब्दों में, 'शायद वे केवल प्रारंभ में या नाममात्र के लिए बौद्ध थे।' सेन राजाओं के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ. भंडारकर का कहना है कि ये सब ब्राह्मण थे, जिन्होंने क्षत्रियों के सैनिक व्यवसाय को अपना लिया था। श्री वैद्य इस बात को बलपूर्वक कहते हैं कि सेन राजा आर्य क्षत्रिय या चंद्रवंशी राजपूत थे । कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं है कि राजपूतों की भांति सेन सनातन या रूढ़िवादी धर्म के समर्थक थे। ²
नर्मदा नदी के दक्षिण में मुस्लिम आक्रमण के समय चार राज्य विद्यमान थे - (1) पश्चिमी चालुक्यों का दक्कन राज्य, (2) चोलों का दक्षिण राज्य, ( 3 ) पश्चिमी तट पर कोंकण में सिलहाड़ा राज्य, तथा (4) पूर्वी तट पर त्रिकलिंग का गंग राज्य। ये राज्य सन् 1000-1200 के दौरान समृद्ध हुए । यही समय मुस्लिम आक्रमणों का था। उनके अधीन कुछ सामंती राज्य थे। ये राज्य 12वीं शताब्दी में पुनः शक्तिशाली हो गए और 13वीं शताब्दी में स्वतंत्र तथा शक्ति - संपन्न हो गए थे। ये राज्य हैं - (1) देवगिरि जिस पर यादवों का शासन, (2) वारंगल जिस पर काकतीय वंश का शासन, (3) बिड पर होयसल वंश का शासन, (4) मदुरा पर पांड्य वंश का शासन, तथा (5) त्रावणकोर पर चेर वंश के राजाओं का शासन था ।
ये सब शासक रूढ़िवादी ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे।
भारत पर मुस्लिम आक्रमण सन् 1001 में आरंभ हो गए थे। इन आक्रमणों की अंतिम लहर सन् 1296 में दक्षिण भारत में पहुंची, जब अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि राज्य को अपने अधीनस्थ बनाया। भारत पर मुस्लिम विजय वास्तव में सन् 1296 तक पूरी नहीं हुई थी। अधीन बनाने के लिए ये युद्ध मुस्लिम विजेताओं तथा स्थानीय शासकों के बीच चलते रहे, जो यद्यपि पराजित हो गए थे, पर अधीन नहीं हुए थे। परंतु जिस बात को ध्यान में रखने की आवश्यकता है, वह यह है कि मुसलमानों के इन विजय- युद्धों की 300 वर्ष की इस अवधि के दौरान सारे भारत पर ऐसे राजाओं का शासन था, जो ब्राह्मण धर्म के रूढ़िवादी व सनातन मत को मानते थे। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा आहत ब्राह्मण धर्म सहायता तथा समर्थन के लिए शासकों की ओर देख सकता था और वह मिला भी। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा पराजित तथा आहत बौद्ध धर्म के पास ऐसी कोई आशा की किरण नहीं थी । वह अनाथ बन चुका था। उसका कोई संरक्षक नहीं था। वह देशी शासकों की उपेक्षा के शीत झोंकों में मुरझा गया और विजेताओं द्वारा आक्रमणों की प्रज्ज्वलित अग्नि में जलकर नष्ट हो गया ।
1. हिस्ट्री आफ मैडिवल हिंदू इंडिया, खंड 2, पृ. 142
2. वही, खंड 3 अध्याय 10
मुसलमान आक्रमणकारियों ने जिन बौद्ध विश्वविद्यालयों को लूटा, इनमें कुछ नाम नालंदा, विक्रमशिला, जगद्दल, ओदंतपूरी के विश्वविद्यालय हैं। उन्होंने बौद्ध मठों को भी तहस-नहस कर दिया, जो सारे देश में स्थित थे। हजारों की संख्या में भिक्षु भारत से बाहर भागकर नेपाल, तिब्बत और कई स्थानों में चले गए। मुसलमान सेनापतियों ने बहुत बड़ी संख्या में भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। बौद्ध भिक्षुओं को मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपनी तलवार से किस प्रकार नष्ट किया, उसका वर्णन स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों ने किया है। मुसलमान सेनापति ने बिहार में सन् 1197 में अपने आक्रमण के दौरान बौद्ध भिक्षुओं की किस प्रकार हत्याएं कीं, इसका संक्षिप्त वर्णन करते हुए विन्सेंट स्मिथ लिखते हैं :¹
“बार-बार लूटमार और आक्रमणों के कारण बिहार में जिस मुसलमान सेनापति का नाम पहले ही आतंक बन चुका था, उसने एक झटके में ही यहां राजधानी पर कब्जा कर लिया। लगभग उन्हीं दिनों एक इतिहासकार की भेंट सन् 1243 में आक्रमण करने वाले दल के एक व्यक्ति से हुई। उससे उसको यह पता चला था कि बिहार के किले पर केवल दो सौ घुड़सवारों ने बेखटके, निधड़क होकर पिछले द्वार से धावा बोला और उस स्थान पर अधिकार कर लिया था। उन्हें लूट में भारी मात्रा में माल मिला और 'सिरमुंडे ब्राह्मणों' अर्थात बौद्ध भिक्षुओं की इस प्रकार से हत्या करके उनका सफाया कर दिया था कि जब विजेता ने मठों व विहारों के पुस्तकालयों में पुस्तकों की विषय-वस्तु को समझाने व स्पष्ट करने के लिए किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति की तलाश की, तो ऐसा कोई भी जीवित व्यक्ति नहीं मिला जो उनको पढ़ सकता। हमें यह बताया गया कि बाद में यह पता चला था कि समूचा दुर्ग तथा नगर एक महाविद्यालय (कॉलिज ) था। हिंदी भाषा में महाविद्यालय को वे विहार कहते थे।"
1. अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया (1924), पृ. 419-20
इस प्रकार बौद्ध पुजारियों का मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा संहार किया गया। उन्होंने जड़ पर ही कुल्हाड़ी मारी। धम्मोपदेष्टा की हत्या कर इस्लाम ने बौद्ध धर्म की ही हत्या कर दी। यह एक घोर संकट था, जो भारत में बौद्ध धर्म के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। किसी अन्य विचारधारा की भांति धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही की जा सकती है। यदि प्रचार असफल हो जाए तो धर्म भी लुप्त हो जाता है। पुजारी वर्ग, वह चाहे जितना भी घृणास्पद हो, धर्म के प्रवर्तन के लिए आवश्यक होता है। धर्म-प्रचार के आधार पर ही रह सकता है। पुजारियों के बिना धर्म लुप्त हो जाता है। इस्लाम की तलवार ने पुजारियों पर भारी आघात किया । इससे वह या तो नष्ट हो गया या भारत के बाहर चला गया। बौद्ध धर्म के दीपक को प्रज्ज्वलित रखने के लिए कोई भी जीवित नहीं बचा।
कहा जा सकता है कि वही बात ब्राह्मणवादी पौरोहित्य के संबंध में भी हुई होगी। ऐसा होना संभव है, भले ही उस सीमा तक नहीं हो। परंतु यह अंतर इन दोनों धर्मों के संगठन में रहा और यह अंतर इतना बड़ा है कि इसी कारण ब्राह्मण धर्म तो मुसलमानों के आक्रमण के बाद भी बचा रहा, परंतु बौद्ध धर्म नहीं बच सका। ये अंतर पुरोहित वर्ग से संबंधित है। ब्राह्मणवादी पौरोहित्य का एक बहुत ही विस्तृत व व्यापक संगठन रहा है। इसका स्पष्ट किंतु संक्षिप्त विवरण स्वर्गीय सर रामकृष्ण भंडारकर ने (इंडियन एटिक्वैरी) में दिया है।¹ उन्होंने लिखा है:
'प्रत्येक ब्राह्मण परिवार में किसी न किसी वेद या वेद की एक विशेष शाखा का नियमपूर्वक वास होता है और उस परिवार के घरेलू संस्कार उस वेद से संबंधित सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार संपन्न किए जाते हैं। उसके लिए उस विशेष वेद की ऋचाओं को कंठस्थ करना अनिवार्य होता है। उत्तरी भारत में मुख्यतः शुक्ल यजुर्वेद की प्रधानता है। यहां की शाखा मध्यंदिन है। लेकिन इसका पाठ आदि लगभग समाप्त हो चुका है। अब यह केवल बनारस में ही रह गया है। यहां पर भारत के सभी भागों से आकर ब्राह्मण परिवार बस गए हैं। कुछ सीमा तक यह पद्धति गुजरात में प्रचलित है। परंतु ये उससे अधिक महाराष्ट्र में प्रचलित है और तेलंगाना में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज भी इसके अध्ययन में लगे हुए हैं। इनमें से बहुत से ब्राह्मण देश के सभी भागों में दक्षिणा (शुल्क - भिक्षा) लेने के लिए जाते हैं और देश के खाते-पीते संपन्न लोग अपने साधनों के अनुसार उनको सहायता प्रदान करते हैं। वे उनसे अपने से संबंधित वेद के अंशों को सुनते हैं। यह अधिकांशतः कृष्ण यजुर्वेद और सूत्र आपस्तम्ब होता है। वहां बंबई में कोई भी सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब तेलंगाना से कोई ब्राह्मण मेरे पास दक्षिणा मांगने के लिए न आता हो। प्रत्येक अवसर पर मैं उन लोगों से जो कुछ उन्होंने पढ़ा है, उसका पाठ सुनता हूं और अपने पास रखे मुद्रित मूल पाठ के साथ उसका मिलान व तुलना करता हूं।'
1. इंडियन एंटिक्वैरी (1874), पृ. 132 मैक्स मूलर द्वारा उद्धृत हिब्बर्ट लेक्चर्स (1878), पृ. 162-66