'अपने व्यवसाय के अनुसार प्रत्येक वेद के ब्राह्मण सामान्यतः दो वर्गों में विभक्त हैं-गृहस्थ और भिक्षु । गृहस्थ स्वयं सांसारिक व्यवसाय में लगे रहते हैं, जब कि भिक्षु इन पवित्र पुस्तकों व ग्रंथों के अध्ययन में तथा धार्मिक अनुष्ठान करने में अपना समय व्यतीत करते है।'
'इन दोनों वर्गों के लोगों को प्रतिदिन संध्या वंदन अथवा सुबह-शाम प्रार्थना करनी होती है, इनके रूप विभिन्न वेदों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। परंतु ‘तत्सवितुर्वरेण्यम् गायत्री मंत्र' का पाठ पांच बार फिर अट्ठाईस बार या एक सौ आठ बार करना सबके लिए सामान्य बात है, यह पाठ प्रत्येक धर्मानुष्ठान का मुख्य अंग होता है । '
'इसके अलावा, बहुत से ब्राह्मण प्रतिदिन एक अनुष्ठान करते हैं, जिसे ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। यह कुछ अवसरों पर सबके लिए आवश्यक होता है। यह ऋग्वेद के लिए होता है। इसमें प्रथम मंडल का प्रथम स्त्रोत, ऐतरेय ब्राह्मण का उपोद्घात, ऐतरेय आरण्यक के पांच मंडल, यजुः संहिता, साम- संहिता, अथर्व-संहिता, आश्वलायन कल्प सूत्र, निरूक्त, खंड, निघंटु, ज्योतिष, शिक्षा, पाणिनि, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और कणाद, जैमिनि तथा बादरायण के सूत्र समिलित होते हैं। "
यह बात याद रखने की है कि अनुष्ठान के मामले में भिक्षु¹ तथा गृहस्थ में कोई अंतर व भेद नहीं होता। ब्राह्मण धर्म में दोनों ही पुरोहित हैं और एक गृहस्थ एक पुरोहित के रूप में अनुष्ठान करने के लिए भिक्षु से किसी भी तरह से कम सुपात्र नहीं होता । यदि कोई गृहस्थ एक पुरोहित के रूप में अनुष्ठान का कार्य नहीं करता, तो इसका कारण यह होता है कि उसने मंत्रों तथा धर्मिक अनुष्ठानों में विशेषता प्राप्त नहीं की है या वह इसकी अपेक्षा कुछ और अधिक लाभप्रद व्यवसाय करता है । ब्राह्मण धर्म में प्रत्येक ब्राह्मण में जो बहिष्कृत नहीं है, पुरोहित होने की क्षमता होती है। भिक्खु वास्तविक पुरोहित होता है और गृहस्थ संभावित पुरोहित होता है। प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित
1. भिक्षुओं का (ब्राह्मण धर्म में) आगे (1) वैदिक (2) याज्ञिक, (3) श्रोत्रिय, तथा (4) अग्निहोत्री में उप-विभाजन किया गया है। वैदिक वे होते हैं जो वेदों को कंठस्थ रखते हैं और उन्हें बिना किसी त्रुटि के ठीक-ठीक सुना देते हैं। याज्ञिक वे होते हैं जो यज्ञ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। श्रोतिय वे हैं जो महान यज्ञ व बलि के अनुष्ठान करने की कला में पारंगत होते हैं। अग्निहोत्री वे हैं जो तीन प्रकार की यज्ञाग्नि को दीप्त रखते हैं (इष्टि, पाक्षिक बलि) तथा चातुर्मास (प्रत्येक चार महीनों में किए जाने वाले यज्ञ का अनुष्ठान ) करते हैं।
बन सकता है। इसके अलावा, ब्राह्मण के लिए एक पुरोहित या पुजारी के रूप में कार्य के लिए कोई प्रशिक्षण या दीक्षा आवश्यक नहीं होती। पुरोहित या पुजारी का कार्य करने के लिए उसकी इच्छा ही पर्याप्त होती है। इस प्रकार ब्राह्मण धर्म में पौरोहित्य कर्म कभी भी समाप्त नहीं हो सकता । प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित हो सकता है और उसे आवश्यकता पड़ने पर इस कार्य में प्रवृत्त किया जा सकता है, लम्पट से लम्पट व्यक्ति के जीवन तथा प्रगति को रोकने वाली को चीज नहीं है। बौद्ध धर्म में यह संभव नहीं है। उपासक या धर्मोपदेष्टा का कार्य करने से पहले उसे पहले से अभिषिक्त पुरोहितों द्वारा स्थापित संस्कारों के अनुसार अभिषिक्त किया जाना चाहिए । बौद्ध पुरोहितों के संहार के बाद यह अभिषेक असंभव हो गया था, जिससे बौद्ध धर्मोपदेष्टा का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। बौद्ध धर्मोपदेष्टा के अभाव को भरने के लिए प्रयास किया गया। सभी उपलब्ध स्रोतों से बौद्ध धर्मोपदेष्टा का वर्ग तैयार करना पड़ा। वे निश्चय ही सवोत्तम नहीं थे। हरप्रसाद शास्त्री¹ का मत है:
“भिक्खु के अभाव से बौद्ध धर्मोपदेष्टा में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। विवाहित पुरोहित वर्ग ने, जो परिवार वाला था और आर्य कहलाता था, मर्यादित भिक्षुओं का स्थान ले लिया और उसने सामान्य रूप से बौद्धों के धार्मिक क्रियाकलापों को संपन्न करना आरंभ कर दिया। उन्हें कुछ अनुष्ठान करने के बाद सामान्य भिक्षुओं की प्रतिष्ठा दी जाने लगी ( भूमिका - पृष्ठ 19-7, तथाकर गुप्त की पुस्तक आदि कर्म रचना 149, पृ. 1207-1208)। वे धार्मिक अनुष्ठान करते, परंतु साथ ही राजगीर, रंगसाज, मूर्तिकार, सुनार तथा बढ़ई जैसे व्यवसाय करके अपना जीविकोपार्जन करते। ये कारीगर व शिल्पकार पुरोहित जिनकी संख्या बाद में पर्यादित भिक्खु की तुलना में काफी अधिक हो गई, लोगों के धार्मिक मार्गदर्शक हो गए। अपने व्यवसाय के कारण उनके पास विद्या व ज्ञान प्राप्ति के लिए, गंभीर मनन व विचार के लिए, तथा ध्यान करने एवं अन्य आध्यात्मिक कार्यों के लिए बहुत कम समय बचता था और इसमें उनकी रुचि भी नहीं रही थी। उनसे यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वे अपने प्रयास से हासोन्मुख बौद्ध धर्म को कोई उच्चतर स्थिति प्रदान कर सकेंगे। उनसे यह आशा भी नहीं की जा सकती थी कि वे तत्कालीन स्थिति में थोड़ा सुधार कर बौद्ध धर्म को समाप्त होने से रोक सकते थे। "
1. नरेन्द्रनाथ लॉ द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत विचार हरप्रसाद शास्त्री मैमोरियल खंड, पृ. 363-64
यह बात स्पष्ट है कि इन नए बौद्ध पुरोहित में न तो कोई गरिमा थी और न ही वे ज्ञानवान ही थे। ब्राह्मण पुरोहितों की तुलना में वे हीन थे, जो इनके प्रतिद्वंद्वी होते थे और जो विद्वान होते थे और उतने ही चतुर भी।¹
ब्राह्मण धर्म विनाश के गर्त में डूबने से क्यों बच गया और बौद्ध धर्म क्यों नहीं बच सका, इसका कारण यह नहीं है कि बौद्ध धर्म की अपेक्षा ब्राह्मण धर्म में कोई श्रेष्ठता अंतर्निहित रही। इसका कारण उसके पुरोहितों का विशिष्ट चरित्र रहा। बौद्ध धर्म इसलिए समाप्त हुआ, क्योंकि उसके पुरोहितों का वर्ग ही नष्ट हो गया था और उसे फिर से जीवित करना संभव नहीं था । यद्यपि ब्राह्मण धर्म पराजित हो गया था, परंतु वह पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ था। प्रत्येक जीवित ब्राह्मण पुरोहित व पुजारी बन गया था और उसने अपने पूर्वज प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित का स्थान ग्रहण कर लिया था ।
इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि बौद्ध धर्म के पतन का एक कारण, बौद्ध लोगों द्वारा इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेना भी था।
प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ सेन ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के प्रारंभिक मध्यकालीन तथा राजपूत अध्ययन खंड की गोष्ठी में, जो सन् 1938 में इलाहाबाद में हुई थी, अपने अध्यक्षीय भाषण में यह बात बहुत सटीक व सही कही थी कि भारत के मध्यकालीन इतिहास से संबंधित दो समस्याएं हैं, जिनका अभी तक कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है। उन्होंने दो समस्याओं का उल्लेख किया, पहली, राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित है। दूसरी, भारत में मुस्लिम जनसंख्या के विस्तार से संबंधित है। दूसरी समस्या के संबंध में उन्होंने कहा:
"परंतु मुझे एक प्रश्न पर विचार करने की अनुमति दी जाए, जो आज पूर्णतया पुरातत्व विषयक रुचि का नहीं है। भारत में मुस्लिम जनसंख्या के विस्तार के संबंध में कुछ स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि इस्लाम का विस्तार उसकी विजय के साथ-साथ हुआ और जिन लोगों को अधीनस्थ बनाया गया, उनको इस्लामी शासकों का धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया था। जब हम सीमांत प्रांत तथा
1. नए बौद्ध पुरोहित अपने-अपने व्यवसायों को क्यों नहीं छोड़ सके और अपने को पूर्णतया धर्म के प्रचार में क्यों नहीं लगा सके, इसका कारण जैसा कि हरप्रसाद शास्त्री बताते हैं, यह है: 'बौद्ध धर्म को मानने वाली जनता में कमी के कारण भी बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई हुई। चूंकि एक भिक्षु तीन से अधिक घरों में भिक्षा नहीं ले सकता था और उसी उद्देश्य से उसी घर में एक महीने के अंदर नहीं जा सकता था, इसलिए एक भिक्षु को भिक्षा के लिए नब्बे घरों की आवश्यकता होती है। ' हरप्रसाद शास्त्री मैमोरियल खंड, पृ. 362
पंजाब में मुसलमानों का आधिक्य व प्रधानता देखते हैं, तब इस विचार को बल मिलता है। परंतु इस सिद्धांत के आधार पर पूर्वी बंगाल में मुसलमानों के भारी बहुमत की बात समझ में नहीं आती। इस बात की संभावना हो सकती है कि कुषाण के समय में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में तुर्क लोग बस गए थे और उनका इस्लाम को आसानी से स्वीकार करना, नव विजेताओं के साथ उनके जातीय भाईचारे या जातिगत संबंधों के कारण बताया जा सकता है। परंतु पूर्वी बंगाल के मुसलमानों का तुर्की तथा अफगानों के साथ निश्चित रूप से कोई जातीय संबंध नहीं है और उस क्षेत्र के हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को किन्ही अन्य कारणों से स्वीकार किया होगा । ¹"
ये अन्य कारण क्या हैं? प्रो. सेन ने इन कारणों का उल्लेख किया है, जो मुस्लिम इतिहास ग्रंथों में भी मिलते हैं। वह सिंध का उदाहरण लेते हैं। इसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हैं। वह कहते हैं: ²
"चचनामा के अनुसार सिंध के बौद्धों ने अपने ब्राह्मण शासकों के अधीन सभी प्रकार के अपमान तथा निरादर सहे, और जब अरबों ने उनके देश पर आक्रमण किया तो बौद्धों ने उनकी पूरे दिल से सहायता की। बाद में, जब दाहिर का वध कर दिया गया और उसके देश में मुस्लिम शासन की दृढ़ता से स्थापना हो गई, तो बौद्धों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि जहां तक उनके अधिकारों, विशेषाधिकारों तथा सुविधाओं का संबंध है, अरब उनके लिए यथास्थिति में कोई परिवर्तन करने के लिए तैयार नहीं थे, और यहां तक कि नई व्यवस्था में भी हिंदुओं के साथ उत्तम व्यवहार किया गया। इस कठिनाई से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका इस्लाम धर्म को स्वीकार करना था, क्योंकि धर्मपरिवर्तन करने वाले लोग शासक वर्ग के लिए आरक्षित सब विशेषाधिकार व विशेष सुविधाओं के हकदार हो जाते थे। अतः सिंध के बौद्धों ने बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया और वे मुसलमानों में शामिल हो गए। "
इसके बाद प्रो. सेन एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं :
"यह एक अप्रत्याशित घटना नहीं हो सकती कि पंजाब, कश्मीर, बिहार शरीफ के आसपास के जिले, उत्तर-पूर्व बंगाल जहां पर मुसलमानों की अब प्रधानता व बहुतायत है, मुसलमानों से पहले शक्तिशाली बौद्ध केंद्र थे। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि बौद्धों ने हिंदुओं की अपेक्षा राजनीतिक प्रलोभनों के सामने आसानी से हार मान ली और उन्होंने धर्मपरिवर्तन अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व स्थिति में वृद्धि की संभावनाओं के कारण किया था। "
1. अर्ली कैरियर ऑफ कान्हाजी आंग्रे एंड अदर पेपर्स, पृ. 188-89
2. वही, पृ. 188-89
दुर्भाग्यवश, उन कारणों का पता नहीं लगाया गया है, जिन्होंने भारत के बौद्ध लोगों को इस्लाम के पक्ष में बौद्ध धर्म को त्यागने के लिए बाध्य किया था । इसलिए यह कहना असंभव है कि ब्राह्मण राजाओं का अत्याचार इसके लिए कहां तक उत्तरदायी था। परंतु ऐसे संकेतों की भी कमी नहीं है, जिनसे यह पता चलता है कि यही इसका प्रमुख कारण था । हमारे पास दो ऐसे राजाओं के निश्चित प्रमाण हैं, जो बौद्ध लोगों पर अत्याचार करते थे व उनका उत्पीड़न करते थे।
उनमें पहला नाम मिहिरकुल का है। वह हूण था । हूणों ने भारत पर सन् 455 के लगभग आक्रमण किया था। उत्तरी भारत में अपने राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने पंजाब में साकल (आधुनिक स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया था। मिहिरकुल ने सन् 528 के लगभग शासन किया। विन्सेंट स्मिथ का कहना है :¹
समस्त भारतीय परंपराएं मिहिरकुल को एक रक्त पिपासु, क्रूर व अत्याचारी शासक के रूप में चित्रित करती हैं। 'भारत के आतताई' के रूप में इतिहासकारों ने हूणों के स्वभाव की यह विशेषता नोट की कि साधारण मात्रा के कठोर और क्रूर स्वभाव की अपेक्षा, वे अत्यधिक क्रूर स्वभाव के थे। मिहिरकुल ने शांतिपूर्ण f बौद्ध पंथ के विरुद्ध क्रूर शत्रुता दर्शाई। उसने स्तूपों तथा मठों को निष्ठुरता से नष्ट किया और वहां की सारी संपत्ति को लूट लिया | ²
दूसरा राजा पूर्वी भारत का राजा शशांक था। उसने सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक के लगभग शासन किया और वह हर्ष के विरुद्ध युद्ध में पराजित हुआ । विन्सेंट स्मिथ का कहना है³ :
शशांक को हर्ष के भाई का विश्वासघाती हत्यारा कहा गया है। वह संभवतः गुप्त वंश का वंशज था। वह शिव का उपासक था और बौद्ध धर्म से घृणा करता था। उसने बौद्ध धर्म का उन्मूलन करने का हर संभव प्रयास किया। एक जनश्रुति के अनुसार उसने बुद्ध गया में पवित्र बोधि वृक्ष को जड़ से खुदवा कर उसे जलवा दिया था, जिस पर अशोक की अत्यधिक भक्ति व श्रद्धा थी । उसने पाटलिपुत्र में उस पत्थर को भी तोड़ दिया, जिस पर बुद्ध के पदचिह्न अंकित थे। उसने मठों व आश्रमों को नष्ट कर दिया। भिक्षुओं को तितर-बितर कर दिया। उसने इनका पीछा नेपाल की तराइयों तक किया । "
1. अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया ( 1924), पृ. 336
2. वही, पृ. 337
3. वही, पृ. 360
सातवीं शताब्दी भारत में धार्मिक अत्याचार व उत्पीड़न की शताब्दी प्रतीत होती है। स्मिथ का कहना है' : ‘सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में इस जैसे ही धर्म जैनमत को भी नष्ट करने की भयंकर कोशिश की गई । '
जब मुस्लिम आक्रमण होने लगे, तब हमें सिंध का उदाहरण मिलता है, जहां पर उत्पीड़न व अत्याचार ही निस्संदेह बौद्ध धर्म के पतन का कारण बना। यह अत्याचार तथा उत्पीड़न मुसलमानों के आक्रमण तक जारी रहा। इसका अनुमान इस तथ्य से भी लग सकता है कि उत्तरी भारत में राजा या तो ब्राह्मण थे या राजपूत । ये दोनों ही बौद्ध धर्म के विरोधी थे। जैनियों पर 12वीं शताब्दी में भी अत्याचार हुए। इसका समर्थन इतिहास भी प्रचुर मात्रा में करता है। स्मिथ ने गुजरात के एक शैव राजा अजय देव का उल्लेख किया है, जो सन् 1174-76 में सिंहासन पर बैठा। उसने जैनियों पर निर्दयतापूर्वक अत्याचार से अपना शासन आरंभ किया था और उनके नेता को यातना देकर मरवा दिया था। स्मिथ लिखते हैं: 'कठोर उत्पीड़न व अत्याचार के अनेक पुष्ट उदाहरणों का उल्लेख किया जा सकता है।'
इसलिए अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि बौद्ध धर्म के पतन का कारण बौद्धों द्वारा इस्लाम धर्म को अंगीकार करना था । यह मार्ग उन्होंने ब्राह्मणवाद के अत्याचार व क्रूरता से बचने के लिए अपनाया था। यद्यपि प्रमाण इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करते, पर कम से कम इसकी संभावना अवश्य दर्शाते हैं। उस समय यदि कोई संकट था, तो यह ब्राह्मणवाद के कारण था।