क्या हिंदू धर्म बंधुत्व को मान्यता प्रदान करता है ?
समाज में दो शक्तियां कार्यरत होती हैं, व्यक्तिवाद और बंधुतत्व । व्यक्तिवाद का सर्वत्र संचार है। प्रत्येक व्यक्ति निरंतर इस तरह के सवाल करता है कि वह तथा उसके पड़ोसी, क्या दोनों भाई-भाई हैं? क्या हम आपस में रिश्तेदार हैं? क्यों मैं उनका पालक हूं? तब मैं उनके साथ क्यों न्याय करूं? और अपने स्वहितों की रक्षा के दबाव में आकर वह ऐसा कार्य करता है, जिसका लक्ष्य केवल उसका अपना अस्तित्व होता है। इसके कारण एक असामाजिक और कभी-कभी समाज -विरोधी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। बंधुभाव, बिल्कुल इसके विपरीत एक शक्ति है। यह आपसी मित्रत्व भावना का दूसरा नाम है। बंधुभाव का उस भावना में समावेश होता है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की श्रेष्ठता के साथ अपनी पहचान बनाना सिखाती है। जिसके कारण दूसरों की उत्तमता उसके लिए एक स्वाभाविक तथा आवश्यक चीज बन जाती है; जिसके प्रति उसे उतना ही ध्यान देना चाहिए जितना वह शारीरिक स्थिति के अस्तित्व के लिए अपने पर ध्यान देता है। बंधुत्व की इस भावना के कारण ही एक व्यक्ति अपने-आपको शेष सहयोगी प्राणियों के साथ सुख प्राप्ति के साधनों में स्वयं को प्रतिस्पर्धी नहीं मानता, अन्यथा वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनकी असफलता की कामना करता है, ताकि वह स्वयं सफल हो सके। व्यक्तिवाद से अराजकता का निर्माण होता है। बंधुत्व ही ऐसी भावना है, जो उसे नियंत्रित कर सकती है और मनुष्य मात्र में नैतिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायक बन सकती है।
बंधुभाव की आपसी मैत्री की यह भावना कैसे उन्नत हो सकती है? जे. एस. मिल कहते हैं कि यह भावना का नैसर्गिक भाव है।
"मनुष्य के लिए सामाजिक अवस्था एक प्रकार से इतनी अधिक स्वभाविक, अत्यावश्यक तथा व्यवहारिक बात है किन्हीं कुछ असाधारण परिस्थितियों अथवा किन्हीं ऐच्छिक अचेतन प्रयासों के अपवाद को छोड़कर, वह समाज का एक सदस्य है, इस भावना के विपरीत कोई दूसरी बात व्यक्ति सोच भी नहीं सकता है, और उसका समाज के साथ का वह संबंध, , जैसे-जैसे मनुष्य असभ्य अवस्था से मुक्त हो रहा है, वैसे-वैसे अत्यधिक सुदृढ़ हो रहा है। इसलिए सामाजिक परिवेश की कोई भी स्थिति, जिसमें वह जन्म लेता है, और जो मनुष्य मात्र की नियति है, यह भावना प्रत्येक व्यक्ति के सोच-विचार का अभिन्न अंग बन जाती है। तब आज मालिक तथा गुलाम के संबंधों का अपवाद छोड़कर मानवप्राणियों के समाज के उस स्वरूप की कल्पना ही नहीं की जा सकती, जिसमें सभी के हितों की समझ का आधार एक न हो। समान स्तर के लोगों का समाज केवल इसी धारणा के अनुसार अस्तित्व में रह सकता है कि सभी को समान माना जाए और क्योंकि सभ्यता की सभी अवस्थाओं में निरंकुश सम्राट को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति बराबर है, प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के साथ उन समान शर्तों के आधार पर जीवन व्यतीत करना ही पड़ता है; और प्रत्येक युग में एक ऐसी अवस्था विकसित होती रही है, जिसमें व्यक्ति के लिए दूसरों की शर्तों के अनुसार हमेशा जीवन व्यतीत करना संभव नहीं होता। इस प्रकार लोग एक ऐसी अवस्था में जीवन व्यतीत करने के आदी हो जाते हैं, जिसमें इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि दूसरे लोगों के हितों की अवमानना की जा सकती है । "
दूसरों के प्रति मित्रत्व की इस भावना का क्या हिंदुओं में कोई स्थान है ? इस प्रश्न पर निम्नलिखित तथ्य पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।
इस संबंध में किसी का भी ध्यान आकर्षित करने वाली पहली यथार्थता है जातियों की संख्या। किसी ने भी आज तक उनकी वास्तविक संख्या की गिनती नहीं की है, परंतु यह अनुमान किया जा सकता है कि उनकी कुल मिलाकर संख्या दो हजार से कम नहीं होगी, कदाचित वह तीन हजार हो। इस वास्तविकता का केवल यही एक निराशाजनक पहलू नहीं है। कुछ अन्य पहलू भी हैं। जातियों को उपजातियों में विभाजित किया गया है। उनकी संख्या अगणित है। ब्राह्मण जाति की कुल जनसंख्या लगभग डेढ़ करोड़ के बराबर है, परंतु ब्राह्मण जाति में उपजातियों की संख्या 1886 के बराबर है। केवल अकेले पंजाब में ही पंजाब राज्य के सारस्वत ब्राह्मण 469 उपजातियों में, और कायस्थ लोग 590 उपजातियों में विभाजित हैं। इस प्रकार हम इन संख्याओं के आधार पर सामाजिक जीवन को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करने वाली इस अंतहीन प्रक्रिया को स्पष्ट कर सकते हैं।
इस विभाजन की प्रक्रिया का तीसरा पहलू हैं, वे छोटे-छोटे खंड जिनमें जातियां विभाजित हो गई। बनियों की कुछ उपजातियों की संख्या 100 से अधिक नहीं हो सकती। वह आपस में इतने नजदीकी रिश्तेदार बन गए हैं कि सगोत्रता के नियमों का उल्लंघन किए बिना अपनी ही जाति में विवाह करना उनके लिए बहुत ही कठिन बन गया है।
यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी। कौन से छोटे-छोटे कारण इस विभाजन के कारण बने।
जाति व्यवस्था का आधिश्रेणित चरित्र भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जातियां एक ऐसी क्रमिक व्यवस्था है, जहां एक जाति सबसे ऊपर है और सर्वोच्च है, तो दूसरी जाति सबसे नीचे है, और इन दोनों के बीच अनेक जातियां हैं, जो किसी के ऊपर हैं और किसी के नीचे हैं। जाति व्यवस्था श्रेणियों की एक व्यवस्था है, जिसमें सबसे श्रेष्ठ और सबसे नीच जाति को छोड़कर प्रत्येक जाति की दूसरी कुछ जातियों पर प्रधानता बनी हुई है।
इस प्रधानता अथवा श्रेष्ठता को कैसे निर्धारित किया जाता है? यह श्रेष्ठता और हीनता अथवा कनिष्ठता की व्यवस्था उन नियमों के आधार पर निर्धारित की जाती है, जिसका (1) धार्मिक संस्कारों के साथ, और (2) अनुरूपता के साथ संबंध है।
धर्म, प्रधानता के नियमों के आधार पर स्वयं को तीन प्रकार से प्रकट करता है। प्रथम, धार्मिक समारोह द्वारा। दूसरा, धार्मिक संस्कार में पढ़े जाने वाले मंत्रों द्वारा, तीसरा, पुरोहित के द्वारा ।
हम, समारोह को प्रधानता के निमयों के स्रोत मानकर आरंभ करते हैं। यहां हमारे लिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में सोलह धार्मिक संस्कारों को निर्देशित किया गया है। यद्यपि, यह सब हिंदू धार्मिक संस्कार हैं, फिर भी प्रत्येक हिंदू जाति इन सभी सोलह संस्कारों पर अपना अधिकार नहीं जता सकती। कुछ के कुछ विशेष संस्कार करने की अनुमति है, तो कुछ जातियों को इन संस्कारों को करने की अनुमति नहीं है। उदाहरण के लिए हम पवित्र जनेऊ पहनने के उपनयन संस्कार को ही लेते हैं। कुछ जातियां जनेऊ नहीं पहन सकतीं। इस संस्कार को कराने के अधिकार के लिए भेदभाव होता है। जिन जातियों को सभी संस्कारों को करने का अधिकार है, उन जातियों का स्थान समाज में उन लोगों से निश्चित ही श्रेष्ठ होता है, जिन्हें केवल कुछ ही संस्कार करने का अधिकार है।
अब हम मंत्रों को देखें। श्रेष्ठता के नियमों का यह दूसरा स्रोत है। हिंदू धर्म के अनुसार, एक ही संस्कार को दो प्रकार से मनाया जा सकता है (1) वेदोक्त, और (2) पुराणोक्त। वेदोक्त पद्धति में संस्कार, वेदों के मंत्रों के उच्चारण के साथ किए जाते हैं। पुराणोक्त पद्धति में इन संस्कारों को पुराणों के मंत्रों से किया जाता है। हिंदू धर्म-शास्त्र की दो भिन्न-भिन्न श्रेणियां हैं - ( 1 ) वेद, जो चार है, और (2) पुराण, जो अठारह हैं। यद्यपि उनका धर्म शास्त्रों के रूप में आदर किया जाता है, फिर भी उन सबको समान मान्यता प्राप्त नहीं है। वेदों की सर्वश्रेष्ठ मान्यता है, तो पुराणों की सबसे निम्न स्तर की मान्यता है। इन मंत्रों के कारण सामाजिक प्रधानता किस प्रकार से निर्मित होती है, यह इस बात को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो उठती है कि प्रत्येक जाति को वेदोक्त पद्धति से समारोह करने का अधिकार नहीं है। केवल तीन ही जातियां इन सोलह संस्कारों में से एक पर अपना अधिकार जता सकती हैं। परंतु, उनमें भी एक जाति को उसे वेदोक्त पद्धति से करने का अधिकार है, तो अन्य को पुराणोक्त पद्धति से । एक धार्मिक क्रिया को संपन्न करने के लिए जिस प्रकार के मंत्र - पाठ की अनुमति होती है, जाति की श्रेष्ठता का निर्धारण भी उसी तरह किया जाता है। जिस जाति को वेदोक्त मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार है, निश्चय ही वह जाति उस जाति से श्रेष्ठ मानी जाती है, जिसे पुराणोक्त मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार है।
धर्म से संबंधिात प्राथमिकता का दूसरा स्रोत है पुरोहित । हिंदू धर्म में धार्मिक समारोह से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए पुरोहित की आवश्यकता होती है। धर्म शास्त्रों द्वारा नियुक्त पुरोहित ब्राह्मण है। इसलिए ब्राह्मण का परित्याग नहीं किया जा सकता। परंतु धर्म-शास्त्र यह बात नहीं बताते कि ब्राह्मण द्वारा किसी भी और प्रत्येक हिंदू के बिना उसकी जाति पूछे धार्मिक संस्कार करने के किस निमंत्रण को स्वीकार किया जाए और किस नहीं। यह बात ब्राह्मण की इच्छा पर छोड़ दी गई है। दीर्घकालीन तथा सुस्थापित प्रथाओं द्वारा अब यह बात निश्चित हो गई है कि किन जातियों के समारोह वह मनाएगा और किनके नहीं। यह वस्तु स्थिति दो जातियों के बीच में श्रेष्ठता का आधार बन गई है। जिस जाति के संस्कार में ब्राह्मण उपस्थित रहता है, वह जाति उस जाति से श्रेष्ठ मानी जाती है, जिनके धार्मिक संस्कार में ब्राह्मण उपस्थित नहीं रहता ।
श्रेष्ठता के नियमों का दूसरा स्रोत, सहभोज है। यहां इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि जिस तरह से सहभोज के नियमों ने प्रधानता के नियमों का निर्माण किया, वैसा विवाह के बारे में नहीं हुआ। इसका कारण अंतर्ताजीय विवाह तथा अंतर्जातीय भोज के प्रतिबंध के नियमों में निहित है। अंतर्जातीय विवाह पर लगे प्रतिबंध को तो एक बार किसी सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन अंतर्जातीय भोज पर लगा प्रतिबंध व्यावहारिक नहीं। उसका पालन नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है। यह जरूरी नहीं कि उसे हर बार नई जगह पर उसकी अपनी जाति के लोग ही मिलें। तब ऐसी स्थिति में वह अपरिचित लोगों के साथ होता है। विवाह के लिए तो वह अपनी जाति में लौटने तक का इंतजार कर सकता है, लेकिन भोजन तो उसे प्रतिदिन चाहिए। उसके लिए तो किसी न किसी से उसे भोजन लेना ही पड़ेगा। नियम यह है कि वह अपने से ऊंची जाति से ही अन्न या भोजन ले सकता है, निम्न जाति से नहीं। यह बात विशेष रूप से ब्राह्मणों द्वारा अनुपालित नियमों के द्वारा निश्चित की जाती है। इसी संदर्भ में भोजन और पानी के लिए व्यापक निर्धारित नियम हैं। (1) वह कुछ लोगों से केवल पानी ले सकता है और दूसरों से नहीं। ( 2 ) ब्राह्मण किसी भी अन्य जाति के पानी में पकाए खाने को स्वीकार नहीं करेगा, और (3) वह कुछ जाति के लोगों से तेल में पका हुआ खाना स्वीकार कर सकता है। जिस बर्तन में अन्न तथा पानी लिया जाए, उसके लिए भी अलग नियम है। कुछ जाति के लोगों से वह मिट्टी के बर्तन में भोजन अथवा पानी ले सकता है। इसी तरह से कुछ जातियों से केवल धातु के बर्तन में और कुछ से केवल कांच के बर्तन में। इस आधार पर जाति का स्तर निश्चित होता है। यदि वह तेल में पका भोजन किसी जाति से लेता है, तब उस जाति का स्तर, जिस जाति से वह खाना स्वीकार नहीं करता है, ऊंचा हुआ। यही बात पानी के बारे में भी है यदि वह धातु के बर्तन में पानी लेता है तब उसका स्थान उससे ऊंचा है, जिसका पानी वह मिट्टी के बर्तन में लेता है और यह दोनों जातियां उस जाति से ऊंची हैं, जिससे वह कांच के बर्तन में पानी लेता है। कांच ऐसा पदार्थ है जिस पर दाग नहीं लगता। इसलिए ब्राह्मण उससे सबसे निम्न जाति के व्यक्ति से भी पानी ले सकता है लेकिन दूसरे धातु के बर्तन में दाग लग सकता है, अतः अन्य धातु के बर्तन में पानी ले या न ले, यह ब्राह्मण पर निर्भर करता है ।