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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग १८ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     ब्राह्मण और क्षत्रिय राजाओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनके यह कुछ एक उदाहरण हैं। इन उदाहरणों से हमें ऐसा हमें समझना चाहिए कि ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच दो वर्गों के रूप में संघर्ष नहीं हुए। इन दो वर्गों के बीच भी संघर्ष हुए, जो कि राजाओं के साथ हुए संघर्षों से निराले है। यह बात ऐतिहासिक मान्यता प्राप्त सामग्री से स्पष्ट होती है। इस संदर्भ में तीन घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है।

     पहला संदर्भ दो व्यक्तियों, विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच है, जो क्रमशः क्षत्रिय और ब्राह्मण थे। उन दोनों के बीच विवाद का विषय यह था कि क्या कोई क्षत्रिय ब्राह्मणत्व का दावा कर सकता है ?

     रामायण में इस कथा का उल्लेख है, और निम्न प्रकार से है :

Hindutva Ka Darshan - author Dr Babasaheb Ambedkar     उसी कहानी के आधार पर हमें पता चलता है कि पहले कुश नाम का एक राजा था, जिसके पिता का नाम प्रजापति था। कुश राजा का भी एक पुत्र था जिसका नाम कुशनाभ था। कुशनाभ गाधि का पिता था। गाधि विश्वमित्र का पिता था। इसी विश्वामित्र ने पृथ्वी पर हजारों वर्ष राज्य किया। एक बार जब वह पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था, वशिष्ठ के आश्रम जा पहुंचा। वशिष्ट का यह आश्रम अनेक ऋषि-मुनियों तथा भक्तों का निवास था। काफी अनुनय-विनय के बाद विश्वामित्र ने वशिष्ठ के अनुयायियों द्वारा किए गए आदर-सत्कार को स्वीकार कर लिया। बाद में वहां अदभुत गाय देखकर विश्वामित्र आश्चर्य में पड़ गया और अचानक उसके मन में गाय लेने का लालच आ गया। वह गाय कोई साधारण गाय नहीं थी, बल्कि आश्रमवासियों को दूध के साथ सभी तरह का खाना देती थी। पहले तो वशिष्ठ ने कहा कि इस गाय के बदले में हमारों साधारण गायें दे सकते हैं। साथ ही उन्होंने अधिकारपूर्ण स्वर में यह भी कहा कि यह गाय तो एक अनमोल रत्न है और रत्न राजा की संपत्ति होती है। इसलिए उस पर राजा का ही अधिकार है। राजा विश्वामित्र द्वारा गायों की संख्या में वृद्धि करने पर भी वशिष्ठ ने अस्वीकार कर दिया। तब उसी गाय के बदले राजा ने और कीमत बढ़ाई। लेकिन वशिष्ठ को यह भी स्वीकार न थी। उसने स्पष्ट इंकार करते हुए कह दिया कि किसी भी कीमत पर वे उस गाय को नहीं देंगे। राजा को यह सब सुनकर क्रोध आना ही था। अतः राजा ने कृतघ्न और निर्दयी बनते हुए आगे बढ़कर गाय जबरन छीनी, लेकिन वह अदभुत गाय राजा के सेवकों के हाथों से निकल कर अपने मालिक के पास भाग कर आ गई और उससे शिकायत की कि वह उसे छोड़ना चाहता है इस पर वशिष्ठ ने उत्तर दिया कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन विवश है क्योंकि राजा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। तब गाय ने उत्तर दिया, 'मनुष्य क्षत्रिय को शक्तिशाली नहीं मानते। ब्राह्मण उनसे अधिक शक्तिशाली होते हैं, ब्राह्मणों के पास दैवी शक्ति होती है जो क्षत्रियों की शक्ति से श्रेष्ठ है। उनकी शक्ति नापी नहीं जा सकती । विश्वामित्र यद्यपि अत्यंत प्रतापी हैं, लेकिन आपसे अधिक शक्तिशाली नहीं है। आपकी शक्ति अजेय है। मुझे इजाजत दो, क्योंकि मेरे अंदर ब्राह्मणत्व से पूर्ण बल है। मैं इस दुष्ट राजा का अहंकार तथा शक्ति को नष्ट कर दूंगी।'

     तब इस गाय ने अपनी गर्जनी से सैकड़ों पहलवानों को पैदा किया जो राजा विश्वामित्र की सारी सेना को नष्ट कर देते हैं। लेकिन बाद में विश्वामित्र ने उन सबको मार गिराया। इस स्थिति से निपटने के लिए उस गाय ने हथियारबंद शक और यवनों का निर्माण किया जो राजा की सेना को लील गए। परंतु अंत में उनका भी राजा ने नाश कर दिया। इसके बाद उस गाय ने अपने शरीर के अंगों से बहुत से योद्धाओं को उत्पन्न किया, जिन्होंने विश्वामित्र के पैदल सैनिकों, हाथी, घोड़े, रथ आदि को ध्वस्त कर दिया। क्रोध में आकर राजा विश्वामित्र के सैंकड़ों पुत्रों ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों सहित वशिष्ठ पर हमला कर दिया। परंतु एक पल में ही वशिष्ठ ने उन्हें अपने मुंह की ज्वाला से जलाकर राख कर दिया। इस तरह पूर्ण रूप से पराजित हो जाने पर विश्वामित्र अपने एक पुत्र को साम्राज्य सौंप कर हिमालय की यात्रा पर चला गया, जहां उसने गहन तपस्या की और महादेव से दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। महादेव ने उसकी तपस्या से प्रभावित होकर शस्त्रास्त्र विद्या का ज्ञान दिया। इससे विश्वामित्र घमंड से भरउठा और उसने वशिष्ठ के आश्रम को ध्वस्त कर दिया और आश्रमवासियों को वहां से भाग जाने को विवश कर दिया। तब विश्वामित्र को धमकी देते हुए वशिष्ठ ने अपनी ब्राह्मण-शक्ति से युक्त गदा उठाई। विश्वामित्र ने भी अपने शस्त्र उठाते हुए विरोधी को सामने आने के लिए कहा। वशिष्ठ ने उसे अपनी शक्ति दिखाने को ललकारा और कहा कि वह अभी उसके घमंड को चूर-चूर कर देगा । उसने कहा : 'क्षत्रिय की सामर्थ्य और किसी महान ब्राह्मण की सामर्थ्य में कैसे तुलना हो सकती है? अरे देखो, नीच क्षत्रिय, मेरी दिव्य ब्राह्मण शक्ति' ।

     जैसे पानी से लिपटकर अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार उस गाधि के पुत्र विश्वामित्र का वह भयानक शस्त्र ब्राह्मण वशिष्ठ की गदा से नष्ट हो गया। इस प्रकार बाद में एक-एक कर विश्वामित्र ने अनेक तरह के अग्नि बाण, विष्णु का चक्र और शिव का त्रिशूल आदि वशिष्ठ की तरफ फेंके, पर वह सभी को अपनी गदा से नष्ट कर देता था। अंत में देवताओं को भी भयभीत करने वाला बह्मशस्त्र विश्वामित्र ने छोड़ा लेकिन वह भी उस ब्राह्मण ऋषि के सामने निष्फल हो गया। वशिष्ठ ने अन्यंत ही भयानक रूप धारण कर लिया। उसके शरीर के छिद्रों से धुएं के साथ अग्नि निकली। उसके हाथ में वह गदा धरती पर प्रचंड अग्नि के रूप में भड़की । उस समय वह यम का ही दूसरा रूप बन गया था। बाद में अनेक मुनियों के कहने पर वशिष्ठ ने मन में आई बदले की भावना का परित्याग कर दिया। जब विश्वामित्र ने कराहते हुए कहा : 'क्षत्रिय की शक्ति को धिक्कार है, ब्राह्मण का बल ही वास्तविक शक्ति है, एक अकेले ब्राह्मण की गदा ने उसके सारे शस्त्र नष्ट कर दिए।' अब कोई विकल्प नहीं बचा। या तो वह उस असहाय स्थिति से संतुष्ट रहे या फिर ब्राह्मण के उस शक्तिशाली पद तक पहुंचने के लिए प्रयास करे। लेकिन उसने दूसरे रास्ते को ही स्वीकार किया। अपनी इंद्रियों तथा मन पर नियंत्रण रखते हुए ब्राह्मण पद तक पहुंचने के उद्देश्य से घोर तपस्या करने के लिए वह अपने शत्रु से निरस्कृत और दुःखी होकर अपनी रानी के साथ दक्षिण की यात्रा पर चला गया। वहां जाकर उसने अपना संकल्प पूरा किया और उसके बाद हमें बताया गया कि उसने हवीशयनंद, मधुसियानंद और द्विधनेत्र नाम के तीन पुत्र जन्मे। एक हजार साल के अंत में ब्रह्मा प्रकट हुआ और घोषणा की कि उसने स्वर्ग जीत लिया है और उसकी घोर तपस्या के फलस्वरूप राजर्षि का पद प्राप्त कर लिया है। अत्यंत दु:खी और लज्जित होकर विश्वामित्र कहते हैं- 'यद्यपि मैंने घोर तपस्या की फिर भी देवता और ऋषि मुझे केवल राजर्षि ही मानते हैं, ब्राह्मण नहीं।' इन्हीं व्यक्तियों अथवा इस नाम के विभिन्न व्यक्तियों का जो विवरण प्राप्त है, उस पर विवाद है, लेकिन उसका विषय भिन्न है।

     इक्ष्वाकु के वंशजों में से एक राजा त्रिशंकु ने एक ऐसे यज्ञ समारोह करने की योजना बनाई थी, जिसके द्वारा वह अपने शरीर के साथ सीधे स्वर्ग में जा सकता था। इस कार्य हेतु वशिष्ठ को आमंत्रित किया गया। परंतु उसने इस कार्य को असंभव बतलाया। इस पर त्रिशंकु ने दक्षिण की यात्रा की, जहां वशिष्ठ के सौ पुत्र तपस्या कर रहे थे। उसने उनसे भी वही कार्य करने की प्रार्थना की, जिसे उनके पिता ने करने में इंकार कर दिया था। यद्यपि उसने उनको बहुत ही आदर तथा नम्रता के साथ संबोधित किया और यह भी कहा कि इक्ष्वाकु उन्हें अपना पारिवारिक पुरोहित तथ कठिन समय में सबसे बड़ा सहारा मानता था। वह स्वयं भी उन्हें अपना संरक्षक कुल देवता मानता है। इसके बावजूद भी इन पुरोहितों से उसे ऐसी फटकार मिली : 'अक्षम्य, मूर्ख, तुम्हें सत्य बोलने वाले हमारे गुरु ने इंकार किया है। तब उसके इंकार को न मानते हुए तुम दूसरी शाखा के पास कैसे जा सकते हो? कुल पुरोहित सभी इक्ष्वाकु लोगों के लिए एक श्रेष्ठ दैवी उपदेशक हैं और उस सत्यवादी व्यक्तित्व की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। उस दिव्य ऋषि ने घोषित किया कि यह संभव नहीं है। फिर हम ऐसा यज्ञ कैसे कर सकते हैं? तुम मूर्ख राजा हो। अच्छा यही है कि तुम वापस अपनी राजधानी लौट जाओ। तीनों संसार के पुरोहित वशिष्ठ का हम अनादर कैसे कर सकते हैं?' तब त्रिशंकु ने उन्हें समझाया कि अगर उसके गुरु तथा गुरु के पुत्रों ने उसकी यह प्रार्थना मानने से इंकार कर दिया, तब वह दूसरा रास्ता अपनाने के बारे में विचार कर सकता है। अपने इसी विचार को व्यक्त करने का परिणाम राजा त्रिशंकु को भुगतना पड़ा। उसे चांडाल बनने का शाप दे दिया गया। जैसे ही उस पर शाप का प्रभाव होने लगा, राजा का रूप एक पतित अछूत में बदलने लगा। तब यह विश्वामित्र के पास ( जो उस समय दक्षिण में रहता था) अपने गुणों व ईश्वरीय भक्ति का वर्णन और अपनी दुर्दशा पर विलाप करते हुए सहायता के लिए दौड़ा। विश्वामित्र को उसकी यह अवस्था देखकर वास्तव में ही दया आई और चांडाल के ही रूप में उसे सीधे स्वर्ग भेजने का वचन दिया। उसने कहा, 'स्वर्ग अब तुम्हारे ही अधिकार में है क्योंकि तुम कुशिक के पुत्र की शरण में आए हो" बाद में उसने यज्ञ की तैयारी करने तथा समारोह में वशिष्ठ के परिवार सहित सभी ऋषियों को आमंत्रित करने के आदेश दिए । विश्वामित्र के शिष्यों ने, जिन्होंने वशिष्ट के लोगों तक उसका यह संदेश पहुंचाया, वापस लौटकर बताया, 'आपका संदेश सुनने के बाद सभी देशों के ब्राह्मण यहां एकत्रित हो गए हैं, परंतु वशिष्ठ नहीं आए।' वशिष्ठ के सौ पुत्रों ने क्रोध में कांपते हुए हुआ था : 'देवता और ऋषि, चांडाल के यज्ञ को कैसे सम्पन्न कर सकते हैं? वह भी तब, जब उस यज्ञ का पुरोहित कोई क्षत्रिय हो । किसी चांडाल का अन्न खाकर तथा विश्वामित्र को यह सब जानकार बहुत क्रोध आया। उसने वशिष्ठ और उसके पुत्रों को जलकर राख होने और फिर उसे सौ जन्मों के लिए पतित नीचे और वशिष्ठ को निषाद के रूप में पुनर्जन्म लेने का शाप दिया। यह जानने पर कि शाप ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया विश्वामित्र ने त्रिशंकु की प्रशंसा करते हुए वहां एकत्रित ऋषियों को यज्ञ करने को कहा । विश्वमित्र के उस भायनक क्रोध के कारण दूसरे ऋषियों ने उसकी बात मान ली। विश्वामित्र ने यज्ञ में स्वयं यज्ञक का कार्य किया और दूसरे ऋषियों को पुरोहित (ऋत्विज्ञ) बनाकर शेष सभी समारोह किए। बाद में विश्वामित्र ने देवताओं को समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया और देवता जब नहीं आए तो क्रोधित होकर विश्वामित्र ने यज्ञ का करछुल उठाकर त्रिशंकु को इस तरह संबोधित किया: 'हे सम्राट, यह शक्ति मैंने अपने प्रयास द्वारा घोर तपस्या करके प्राप्त की है। मैं अपनी शक्ति के बल पर तुन्हें स्वर्ग पहुंचाऊंगा । उस स्वर्गीय क्षेत्र में ऊपर जाओ जो किसी भी मृतलोक के मनुष्य के लिए अति कठिन है। मैंने निश्चित ही अपनी तपस्या से कुछ उपहार प्राप्त किए हैं। '



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