त्रिशंकु तत्काल सीधे स्वर्ग पहुंच गया और सभी मुनि देखते रह गए। लेकिन इंद्र ने उसे वापस लौट जाने का आदेश दिया, क्योंकि त्रिशंकु ऐसा मनुष्य था जो अपने धार्मिक गुरु के शाप से शापित था और इसीलिए स्वर्ग में रहने योग्य नहीं था। तब इंद्र ने उसे सीधा पृथ्वी पर सर के बल गिर जाने के लिए कहा। इस तरह से वह नीचे गिरने लगा । ऐसी स्थिति में उसने चिल्लाकर अपने धार्मिक संरक्षक से सहायता मांगी। विश्वामित्र ने गुस्से में उसे रुकने के लिए कहा। तब विश्वामित्र ने आकाश के दक्षिण भाग में अपने दिव्य ज्ञान की शक्ति तथा घोर तपस्या द्वारा एक दूसरे प्रजापति के समान सात ऋषियों की रचना की, यानी सात नक्षत्रों का नक्षत्र मंडल बनाया। इस तरह से स्वर्ग के एक हिस्से में आगे बढ़ते हुए उस ऋषि ने अन्य नक्षत्रें के बीच तारों की एक माला की रचना की। उसने क्रोध से उत्तेजित होकर घोषणा की।, 'मैं एक अन्य इंद्र का निर्माण करूंगा या फिर संसार में कोई इंद्र ही नहीं होगा । '
क्रोध में उसने देवताओं को भी पुकरना शुरू किया। अब ऋषि, देवता और असुर, सभी ने सचेत होकर विश्वामित्र से समझौते के स्वर में कहा कि 'त्रिशंकु को क्योंकि उसके गुरु ने शाप दिया है, इसलिए जब तक कि वह शुद्ध न हो जाए, उसे शारीरिक रूप में प्रवेश न दिया जाए।' ऋषि ने उत्तर दिया कि उसने त्रिशंकु को वचन दिया है। और उसने देवताओं से प्रार्थना की कि उसे उसके शरीर के साथ स्वर्ग में रहने की अनुमति दी जाए और उन नव-निर्मित तारों को भी आकाश में निरंतर अपने स्थान पर रहने की अनुमति दी जाए। देवताओं ने इस बात पर सहमति दी और कहा कि यह तारे अपने ही स्थान पर लेकिन सूर्य के मार्ग के बाहर रहेंगे। त्रिशंकु उनके बीच अपना सर झुकाते हुए प्रकाशित होता रहेगा, और अन्य तारे उसका अनुसरण करेंगे। इस तरह उसका लक्ष्य पूरा हो जाएगा, उसकी कीर्ति भी सुरक्षित रहेगी और वह अन्य लोगों के समान स्वर्ग का निवासी बन जाएगा।' इस प्रकार इस विवाद पर समझौता किया गया, जिसे विश्वामित्र ने स्वीकार किया । ¹
1. यह त्रिशंकु की कहानी है। यह भी देखा गया है कि यह हरिवंश पुराण में वर्णित कथा से भिन्न है, लेकिन कथा में वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच विवाद को स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया है।
यज्ञ के समाप्त होने पर जब सभी देवता और ऋषि चले गए, तब विश्वामित्र ने अपने भक्तों से कहा, 'दक्षिण की यह घटना हमारी तपस्या में बाधा बन गई है। हमें किसी अन्य दिशा में जाकर तपस्या करनी चाहिए।' इस तरह वह पश्चिम में किसी जंगल में चला गया और वहां उसने अपनी तपस्या फिर से आरंभ की। यहां पर फिर से एक अन्य घटना से अवरोधा उत्पन्न होता है। यह कहानी राजा अंबरीष की है जो रामायण के अनुसार अयोध्या का राजा था। वह इक्ष्वाकु का 28वां और त्रिशंकु का 22वां वारिस था। विश्वामित्र को इन दोनों राजाओं का समकालीन माना गया है। इस कथा के आधार पर अंबरीष एक यज्ञ समारोह में व्यस्त था । तब इंद्र उसकी बलि उठाकर ले गया। पुरोहितों ने कहा कि 'यह अशुभ घटना राजा के भ्रष्ट शासन के कारण हुई। इसके लिए कोई मानव बलि देकर बड़ा प्रायशित कर लेना चाहिए।' एक लंबी खोज के बाद वह राजर्षि (अंबरीष) एक ब्राह्मण ऋषि ऋचिका के पास पहुंचा, जो भृग का वंशज था। उसके पुत्रों में से एक पुत्र की बलि देने के लिए (एक सौ हजार गायों की कीमत के बदले में बचने के लिए) कहा। ऋचिका ने उत्तर दिया ज्येष्ठ पुत्र नहीं बेच सकता; और उसकी पत्नी ने कहा - वह अपना वह अपना कनिष्ठ पुत्र नहीं बेचेगी। उसने कहा कि ज्येष्ठ पुत्र पिता और कनिष्ठ पुत्र मां को प्रिय होता है। ऋचिका के दूसरे पुत्र सुनस्सेप ने कहा कि तब मैं अपने-आपको बेचने योग्य मानता हूं, और उसने राजा से कहा कि वह उसे ले जाए। उसके बदले में एक सौ हजार गाय तथा एक सौ लाख स्वर्ण मुद्राएं और रत्नों के अनेक भंडार के रूप में उसकी कीमत चुका कर राजा सुनस्सेप को अपने साथ ले गया। जब वे पुस्कर वन से गुजर रहे थे, सुनस्सेप की अपने मामा विश्वामित्र से भेंट हो गई, जो वहां अन्य ऋषियों के साथ तपस्या कर रहा था । सुनस्सेप उसकी गोद में जा गिरा और उसने अपने आपको अनाथ बताकर सहायता मांगी और कहा कि वह उसका आश्रय चाहता हैं। विश्वामित्र ने उसे शांत किया और उसके स्थान पर अपने पुत्रों को बलि बनने के लिए कहा। इस प्रस्ताव को मधुशानंद तथा उसके अन्य पुत्रों ने नहीं माना। उन्होंने उपहास के स्वर में कहा : ‘वह अपने ही पुत्रों की बलि देकर दूसरों को कैसे बचाना चाहता हैं? वे इसे गलत माने हैं।' अपनी आज्ञा का अनादर होने के कारण ऋषि बहुत ही क्रोधित हो गए और उन्होंने वशिष्ठ के पुत्रों के समान अपने पुत्रों को भी सबसे पतित वर्णों में जन्म लेने और एक हजार वर्षों तक कुत्ते का मांस खाने का शाप दिया। तत्पश्चात् उसने सुनस्सेप से कहा : 'जब तुझे पवित्र धागे से लाल माला पहनाकर तथा तेलों का अभिलेप करके विष्णु के बलिदान के खंबे से बांधा दिया जाए, तब अग्नि की प्रार्थना करो और अंबरीष के यज्ञ में इन दो दैवी गाथाओं की स्तुति करो। तुम्हारी कामना की पूर्ति हो जाएगी।' उन गाथाओं को प्राप्त करने के बाद सुनस्सेप ने राजा अंबरीष को तत्काल अपने इष्ट प्रदेश पहुंचने का सुझाव दिया। बाद में लाल वस्त्र पहने हुए जब उसे बलि के स्थान पर बांध दिया गया, तब उसने इंद्र और उसके छोटे भाई (विष्णु) की उन सर्वोत्तम गाथाओं द्वारा आराधना की । हजार नेत्र वाला इंद्र उसकी पवित्र गाथा सुनकर प्रसन्न हो गया और उसने सुनस्सेप की दीर्घायु कर दिया। राजा अंबरीष ने भी इस यज्ञ द्वारा बड़े लाभ प्राप्त किए। इस बीच, विश्वामित्र ने अपनी तपस्या जारी रखी तो एक हजार वर्ष तक चलती रही। तपस्या की समाप्ति पर देवता उसे वरदान देने के लिए आए; और ब्रह्मा ने उद्घोषणा की कि उसने ऋषि का पद प्राप्त किया है। इस प्रकार वह एक कदम और आगे हो गया। लेकिन इससे असंतुष्ट होकर मुनि ने अपनी तपस्या फिर से आरंभ की। कुछ समय बाद उसने मेनका को देखा, जो पुष्कर सरोवर में स्नान करने के लिए आई थी। मेनका अपूर्व सौंदर्य की जीती-जागती मूर्ति थी । उसने अपने आकर्षक रूप की चकाचौध से विश्वामित्र को विमोहित कर दिया। उसने आकर्षण की ज्वाला में दग्ध मुनि ने अपनी सहचरी बनने के लिए उसे कुटिया में बुलाया। इस तरह से दस वर्षों तब वह मेनका के मायाजाल में फंसा रहा, जो उसकी तपस्या के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। इन दस वर्षों में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसे इस बात का भी पता चल गया कि यह सब षड्यंत्र उसकी तपस्या भंग करने के लिए था। अतः मेनका (अप्सरा ) को विदा कर वह स्वयं भी उत्तर में पहाड़ों पर चला गया, जहां उसने एक हजार वर्षों तक कोसिकी नदी के किनारे घोर तपस्या की । उसकी तपस्या को देखकर देवता चिंतित हुए और उन्होंने निर्णय लिया कि उसे महान ऋषि (महर्षि) की उपाधि देकर सम्मानित किया जाए और ब्रह्मा ने सभी देवताओं के परामर्श को स्वीकार करते हुए बतलाया कि विश्वामित्र को महार्षि की पदवी प्रदान की गई है। विश्वामित्र ने हाथ जोड़ नतमस्तक होकर कहा कि 'यदि उसे ब्राह्मण - ऋषि की अपूर्व उपाधि प्रदान की जाए, तभी वह मानेगा कि उसने अपनी इंद्रियों पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। इस पर ब्रह्मा ने उत्तर दिया कि अभी उसने अपनी इंद्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण की शक्ति प्राप्त नहीं की है। इसके लिए उसे और अधिक प्रयास करने चाहिए। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मुनि ने अपने आपको कठिन तपस्या में समर्पित कर दिया। तपस्या के दौरान उसने बहुत कष्ट सहे । उदाहरण के लिए अपने हाथों से बिना कोई सहारा लिए खड़ा रहने लगा तथा केवल हवा के सहारे ही जीवित रहने लगा। गर्मी, सर्दी और वर्षा की ऋतुओं तक ऐसा ही चलता रहा। अंत में इंद्र तथा अन्य देवता उसकी तपस्या के बढ़ते प्रभाव को देखकर व्याकुल हुए। उन सभी ने रूपसी रंभा को मुनि की तपस्या भंग करने के लिए कहा, लेकिन रभा ने उस उग्र मुनि के भंकर कोप का सामना करने में अपनी असमर्थता जताई। लेकिन इंद्र के बार-बार कहने पर उसके आदेश का पालन करने के लिए वह तैयार हो गई। इंद्र तथा कंदर्प (प्रेम के देवता) ने उसे वचन दिया कि वे उसकी रक्षा करेंगे। इस पर रंभा ने मुनि की तपस्या भंग करने के लिए अत्यंत आकर्षण रूप धारण किया, लेकिन मुनि को रंभा की नीयत पर संदेह हो गया और क्रोधित होकर शाप दिया। शाप ने अपना प्रभाव दिखलाया। इंद्र और कंदर्प निराश हो गए । यद्यपि विश्वामित्र ने अपनी वासना पर नियंत्रण रखा, लेकिन क्रोध पर नियंत्रण न रख पाने के कारण उसकी तपस्या नष्ट हो गई। उसे वही तपस्या फिर से आरंभ करनी पड़ी। अब वह बिल्कुल शांत रहने लगा, अर्थात् वर्षों तक उसने श्वास तक लेना बंद कर दिया; तब उसने हिमालय को छोड़कर पूर्व की यात्रा की, जहां उसने एक भयानक प्रयोग किया और मौन धारण कर उसने एक हजार वर्षों तक तपस्या की। तपस्या के इतिहास में इस तरह का कोई दूसरा ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। हालांकि इस दौरान बहुत-सी कठिनाइयां उसके रास्ते में आई, पर वह क्रोध से जरा भी विचलित नहीं हुआ और अंत में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हुआ। तपस्या की अवधि की समाप्ति पर उसने खाने के लिए कुछ अन्न तैयार किया। इंद्र ने भिखारी के रूप में आकर भीख मांगी। विश्वामित्र को अपना भोजन देना पड़ा और उसे भूखे ही रहना पड़ा, क्योंकि उसने शांत रहने की प्रतिज्ञा की थी। 'चूंकि उसने श्वास न लेने की प्रक्रिया जारी रखी, उसके सिर से धुआं निकलने लगा, जिसके कारण तीनों संसार त्रस्त और भयभीत हो गए।' तब देवताओं और ऋषिओं ने कहा, 'इस महान मुनि विश्वामित्र को अनेक प्रकार से प्रलोभित तथा उत्तेजित करने के प्रयास किए गए, लेकिन इन सभी बाधाओं को पार करते हुए वह अपनी सिद्धि की ओर बढ़ता जा रहा है। इस बारे में यह भी कहना जरूरी है कि यदि उसकी इच्छा न मानी गई तो वह अपनी तपस्या के प्रभाव से तीनों लोक नष्ट कर सकता है। संपूर्ण सृष्टि त्रस्त है। कहीं पर भी कोई उजाले की किरण दिखाई नहीं दे रही। समुद्र डांवाडोल हो रहे हैं, पहाड़ चूर-चूर हो रहे हैं। धरती कांप रही है और हवा भ्रमित होकर बह रही है। हे ब्रह्मा! हमें वचन दो कि मानव सृष्टि नास्तिक नहीं बनेगी। इससे पूर्व कि उग्र स्वभाव का वह महान और कीर्तिमान ऋषि सब कुछ नष्ट कर दे, हमें उसे प्रसन्न करना चाहिए। तब देवताओं ने ब्रह्मा के नेतृत्व में विश्वामित्र से प्रार्थना की : 'हे ब्राह्मण ऋषि, हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं। हे कुशिक, तुमने अपने धैर्य से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया है। हे ब्रह्मण, अपने मारुतों के साथ हम तुम्हें दीर्घायु प्रदान करते हैं। प्रत्येक आर्शीवाद तुम्हें प्राप्त हो, तुम जहां चाहे, जा सकते हो।' इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्र ने देवताओं को प्रणाम किया और कहा: 'यदि मैंने ब्रह्मत्व प्राप्त कर लिया है, तब ओइम् और यज्ञ सूत्र तथा वेद मुझे इस योग्यता में मान्यता प्रदान करें और ब्राह्मण का पुत्र वशिष्ठ, जो कि छात्र विद्या तथा ब्रह्मण विद्या आदि सभी क्षेत्रों में पूर्ण रूप से निपुण माना जाता है, वह भी मुझे इसी प्रकार संबोधित करे । ' तदनुसार देवताओं ने वशिष्ठ से प्रार्थना की और उसने विश्वामित्र के साथ समझौता कर लिया। साथ ही ब्राह्मण ऋषि के पद पर उसका अधिकार स्वीकृत कर लिया। विश्वामित्र ने भी ब्राह्मण की श्रेणी प्राप्त करने के लिए वशिष्ठ का पूर्ण सम्मान किया।