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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग ९ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

III

     अब विषय पर आते हैं। हिंदु धर्म के दर्शन के परीक्षण के लिए मैं न्याय की कसौटी तथा उपयुक्तता की कसौटी, इन दोनों कसौटियों को लागू करना चाहूंगा। प्रथम, न्याय की कसौटी को लागू करूंगा। ऐसा करने से पहले मैं, न्याय के तत्व से मेरा क्या अर्थ है, यह बात स्पष्ट करना चाहूंगा। इसकी व्याख्या प्रो. बर्गबान¹ से अच्छी किसी ने नहीं की है। जैसा कि उन्होंने बताया है, न्याय का सिद्धांत एक सारभूत सिद्धांत है और उसमें लगभग उन सभी सिद्धांतों का समावेश है, जो नैतिक व्यवस्था का आधार बने हैं। न्याय ने सदा ही समानता तथा (कार्य के अनुरूप ) 'क्षतिपूर्ति' के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। निष्पक्षता से समानता उभरी है। नियम और नियमन, न्यायपूर्ण और नीतिपरायणता, ये मूल्य के रूप में समानता से जुड़े हुए हैं यदि सभी मनुष्य समान हैं, तब वे सभी एक समान तत्व के हैं और यह समान तत्व उन्हें समान मौलिक अधिकार तथा समान स्वतंत्रता के योग्य बनाता है।

Hindutva Ka Darshan - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar     संक्षेप में न्याय का दूसरा सरल नाम है स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व और हिंदु धर्म को परखने के लिए मैं न्याय का इसी अर्थ में एक कसौटी के रूप में प्रयोग करूंगा।

     इनमें से कौन से सिद्धांत को हिंदू धर्म मान्य करता है? हम एक-एक प्रश्न का विचार करें।

     क्या हिंदू धर्म समानता को स्वीकार करता है ?

     इस प्रश्न से किसी के भी मन में तुरंत जाति - व्यवस्था का विचार आता है। जाति-व्यवस्था की एक विचित्र विशेषता यह है कि विभिन्न जातियां एक समान स्तर पर नहीं खड़ी हैं। यह वह व्यवस्था है, जिसमें विभिन्न जातियों का स्थान एक-दूसरे के ऊपर ऊर्ध्वाकार क्रम में निश्चित किया गया है। कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हों, परंतु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। जैसा कि मैंने इससे पूर्व स्पष्ट किया है, वर्ण-व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जाति-व्यवस्था का जनक न भी हो परंतु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है। जाति-व्यवस्था के संबंध में मनु का दोष क्या है, इसके बारे में चाहे जो स्थिति हो, परंतु इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि श्रेणीकरण और कोटि-निर्धारण का सिद्धांत प्रदान करने के लिए मनु ही जिम्मेदार है।


1. टू मोरेलिटीज पेज
2. न्याय की एक अन्य व्याख्या के लिए जे.एस. मिल की यूटिलिटेरियनिज्म का संदर्भ देखें।


     मनु की इस योजना में ब्राह्मण का स्थान प्रथम श्रेणी पर है। उसके नीचे है क्षत्रिय, क्षत्रिय के नीचे है वैश्य, वैश्य के नीचे हैं शूद्र और शूद्र के नीचे है अतिशूद्र । क्रमिक श्रेणी की यह व्यवस्था असमानता के सिद्धांत को लागू करने का एक दूसरा सीधा तरीका है, ताकि सही रूप में यह कहा जा सके कि हिंदू धर्म समानता के सिद्धांत को मान्यता नहीं देता । सामाजिक प्रतिष्ठा की यह असमानता राज दरबार के समारोह में चलने वाले दरबार के अधिकारियों की श्रेणी में दिखाई देने वाली असमानता के समान नहीं है। समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा हर समय हर स्थान पर तथा सभी कार्यों में पालन की जाने वाली सामाजिक संबंधों की यह स्थायी व्यवस्था है, जिसका सभी अमल करते हैं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी समय लग सकता है कि मनु ने कैसे जीवन का प्रत्येक अवस्था में असमानता के तत्व को लागू किया और उसे जीवन की एक सजीव शक्ति बनाया। परंतु फिर भी मैं गुलामी, विवाद तथा विधि के नियमों जैसे कुछ उदाहरण देकर यह बात स्पष्ट करना चाहूंगा।

     मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है¹। परंतु उसने उसे शूद्र तक ही सीमित रखा। केवल शूद्रों को ही शेष तीन ऊंचे वर्णों का गुलाम बनाया जा सकता था। परंतु यह ऊंचे वर्ण शूद्रों के गुलाम नहीं हो सकते थे।

     परंतु ऐसा प्रमाणित होता है किस व्यवहार में यह व्यवस्था मनु के नियम से भिन्न थी और केवल शूद्र ही गुलाम नहीं होते थे, किन्तु अन्य तीन वर्णों के लोग भी गुलाम होते थे। यह स्थिति तब स्पष्ट हो गई, जब नारद नाम के मनु के उत्तराधिकारी ने एक नया नियम बनाया² । नारद का यह नया नियम निम्न प्रकार है-

     5.39. जब कोई मनुष्य अपनी जाति विशेष के कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, उसे छोड़कर चार वर्णों पर नीचे से ऊपर उल्टे क्रम में गुलामी लागू नहीं की जा सकती। इस संबंध में यह गुलामी किसी स्त्री की स्थिति के समान है।

     गुलामी को मान्यता प्रदान करना बहुत बुरी बात थी। परंतु यदि गुलामी को अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करने की आजादी दी जाए, तो उससे कम-से-कम एक लाभकारी प्रभाव होता है। कदाचित वह सभी को एक समान स्तर पर लाने की शक्ति बन जाति-व्यवस्था की नींव को नष्ट कर देती, क्योंकि शायद उसके अंतर्गत ब्राह्मण किसी अछूत का गुलाम और अछूत किसी ब्राह्मण का मालिक बन सकता था। परंतु जब यह स्पष्ट हो गया कि अनुबंधित गुलामी उसी जैसा सिद्धांत है, तब उसे ही विफल करने के प्रयास किए गए। इसलिए मनु और उसके उत्तराधिकारियों ने गुलामी को मान्यता प्रदान करते हुए इस बात का भी आदेश दिया कि उसे वर्ण-व्यवस्था के उल्ट क्रम से लागू नहीं किया जाए। इसका मतलब है, एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का गुलाम बन सकता है, परंतु वह किसी दूसरे वर्ण का, जैसे क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अतिशूद्र का गुलाम नहीं हो सकता । परंतु दूसरी ओर एक ब्राह्मण इन चार वर्णों के किसी भी व्यक्ति को गुलाम बना सकता है, परंतु उस व्यक्ति को नहीं जो ब्राह्मण है एक वैश्य किसी वैश्य, शूद्र तथा अतिशूद्र को गुलाम बना सकता है, परंतु उसे नहीं जो ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय नहीं जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य है। एक अतिशूद्र किसी अतिशूद्र को ही गुलाम बना सकता है, परंतु उसे नहीं जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र है।


1. मनु ने सात प्रकार के गुलाम बताए हैं ( 8.415) । नारद ने 15 प्रकार के गुलाम बताए हैं (5.25)।
2. याज्ञवल्क्य ने भी वैसे नियम बताए हैं (2.183) जो मनु के समान प्रमाणित हैं।


अब विवाह पर मनु की धारणा का विचार करें। नीचे मनु के विभिन्न वर्गों के अंतर्जातीय विवाह के नियम दिए गए हैं। मनु कहता है:

3.12 द्विजों की पहली शादी के लिए उसकी जाति की स्त्री की ही संस्तुति की जाती है परंतु ऐसे लोगों के लिए, जिन्हें किसी कारण से पुनर्विवाह करना हो, उनके वर्णों के सीधे नीचे वर्ण की स्त्रियों को वरीयता दी जाती है।

3.13 एक शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है; शूद्र और वैश्व स्त्री एक वैश्व की पत्नी बन सकती है; वे दोनों तथा क्षत्रिय स्त्री एक क्षत्रिय की पत्नी बन सकती है; और वे तीनों तथा ब्राह्मणी, ब्राह्मण की पलियां बन सकती हैं।



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