डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को इस लेख की एक ऐसी प्रति उपलब्ध हुई, जिस पर शीर्षक 'दि वूमेन एंड दि काउंटर-रिवोल्यूशन' (नारी और प्रतिक्रांति) दिया हुआ है। इस लेख की दूसरी प्रति भी कमेटी को उपलब्ध हुई है, लेकिन उसका शीर्षक है 'दि रिडिल ऑफ दि वूमेन' (नारी एक पहेली ) । कमेटी के सदस्यों का विचार है कि इस लेख को ‘रिडिल्स इन हिंदूइज्म' (हिंदू धर्म की पहेलियां) शीर्षक से आगामी अंग्रेजी प्रकाशन के बजाए प्रस्तुत खंड में शामिल किया जाए, तो उचित होगा - संपादक
कहा जा सकता है कि मनु शूद्रों के प्रति जितना अनुदार था, स्त्रियों के प्रति भी उसके विचार उतने ही अनुदार थे। स्त्रियों के प्रति हीन विचारों से वह आरंभ करता है। मनु घोषणा करता है:
2.213. इस संसार में स्त्रियों का स्वभाव पुरुषों को मोहित करता है। इस कारण बुद्धिमान जन स्त्रियों के बीच सुरक्षित नहीं रहते ।
2.214. क्योंकि स्त्रियां इस संसार में केवल मूर्ख को ही नहीं, बल्कि विद्वानों को भी पथभ्रष्ट करने में और उन्हें काम और क्रोध का दास बना देने में सक्षम हैं।
2.215. कोई किसी की माता, बहन या पुत्री के साथ एकांत में न बैठे क्योंकि इंद्रियां शक्तिशाली होती हैं और विद्वान को भी अपने वश में कर लेती हैं।
9.14. स्त्रियां रूप की अपेक्षा नहीं करतीं, न उनका ध्यान आयु पर रहता है, यह सोचकर कि ( यह ही पर्याप्त है कि वह पुरुष है, सुंदर या कुरूप के साथ संभोग कर बैठती हैं।
9.15. इस संसार में उनकी चाहे जितनी भी रक्षा क्यों न की जाए, पुरुषों के प्रति काम-भावना, अपनी चंचल प्रकृति और अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के कारण वह अपने पति के प्रति निष्ठारहित हो जाती हैं।
9.16. उनका ऐसा स्वभाव जानकर, जो ब्रह्मा ने उन्हें अपनी सृष्टि के समय दिया है, प्रत्येक मनुष्य को उनकी रक्षा के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए ।
9.17. मनु ने स्त्रियों की सृष्टि करते समय इनमें (अपनी ) शैया, (अपने ) स्थान और (अपने) आभूषणों के लिए प्रेम, वासना, बेइमानी, ईर्ष्या और दुराचरण निहित किया है।
स्त्रियों के प्रति मनु के ये नियम अकाट्य हैं। स्त्रियां किसी भी परिस्थिति में स्वतंत्र नहीं हैं। मनु के मतानुसारः
9.2. स्त्रियां उनके परिवारों के पुरुषों द्वारा दिन-रात अधीन रखी जानी चाहिएं और यदि वे अपने को विषयों में आसक्त करें तो उन्हें अपने नियंत्रण में अवश्य रखें।
9.3. स्त्री की रक्षा उसके बचपन में उसका पिता करता है, युवावस्था में उसका पति, जब उसका पति दिवंगत हो जाता है, वृद्धावस्था में उसके पुत्र ( उसकी रक्षा करते हैं)। स्त्री कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है।
9.5. स्त्रियों की रक्षा विशेषकर दुष्प्रवृत्ति से की जानी चाहिए जो चाहे जितनी भी नगण्य (क्यों न प्रतीत हों), क्योंकि यदि उनकी रक्षा नहीं की गई तो वे दोनों परिवारों (पिता तथा पति) के क्लेश का कारण बन जाती है।
9.6. वर्णों का उत्तम धर्म समझते हुए, दुर्बल पतियों को भी अपनी पत्नी की रक्षा करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए।
5.147. लड़की को, नवयुवती को या वृद्धा को भी अपने घर में भी कोई काम स्वतंत्रतापूर्वक नहीं करना चाहिए।
5.148, स्त्री को बचपन में अपने पिता, युवावस्था में अपने पति और जब उसका पति दिवंगत हो जाए तब अपने पुत्रों के अधीन रहना चाहिए, स्त्री को कभी भी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए।
5.149. स्त्री को अपने पिता, पति या पुत्रों से अपने को अलग करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, इनको त्याग कर वह दोनों परिवारों (उसका अपना परिवार और पति का परिवार) को निंदित कर देती है।
स्त्री को अपने पति को छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता।
9.45. पति अपनी पत्नी के साथ एक इकाई है। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री एक बार विवाहित होने के बाद, कोई विच्छेद नहीं हो सकता ।
बहुत से हिंदू यहीं रुक जाते हैं, जैसे विवाह विच्छेद के बारे में मनु के नियम का यही सार तत्व हो और इसे आदर्श कहते रहते हैं। वह यह सोचकर अपने विवेक पर पर्दा डाल देते हैं कि मनु ने विवाह को संस्कार की तरह माना है और इसलिए उसने विच्छेद की अनुमति नहीं दी। यह बात निश्चय ही सत्य से कोसों दूर है। मनु के विच्छेद-नियम का बिल्कुल भिन्न उद्देश्य था । यह पुरुष को स्त्री से बांध देने की बात नहीं, बल्कि यह स्त्री को पुरुष से बांध देने और पुरुष को स्वतंत्र रखने की बात थी, क्योंकि मनु पुरुष को अपनी पत्नी को त्याग देने से नहीं रोकता। वस्तुतः वह उसे अपनी पत्नी को छोड़ देने की ही अनुमति नहीं, बल्कि उसे बेच देने की भी अनुमति देता है। वह पत्नी को स्वतंत्र न होने देने के लिए नियम बनाता है। देखिए मनु क्या कहता है:
9.46. बेचने और त्याग देने से कोई स्त्री अपने पति से मुक्त नहीं होती ।
इसका अर्थ यह है कि कोई स्त्री बेचे या त्याग दिए जाने से किसी दूसरे व्यक्ति की, जिसने उसे खरीद लिया है या त्याग देने के बाद प्राप्त किया है, वैध पत्नी नहीं हो सकती। अगर यह असंगत नहीं है तो कुछ भी असंगत नहीं हो सकता। लेकिन मनु अपने नियम के परिणामस्वरूप होने वाले न्याय या अन्याय के बारे में चिंतित नहीं था। वह स्त्री को उस स्वतंत्रता से वंचित कर देना चाहता था, जो उसे बौद्ध काल में थी। वह यह जानता था कि स्त्री द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने या शूद्र के साथ विवाह करने की उसकी इच्छा होने से वर्ण-व्यवस्था नष्ट हो गई थी। मनु स्त्री की स्वतंत्रता से क्रुद्ध था और उसे रोकने में उसने उसकी स्वतंत्रता से उसे वंचित कर दिया।
संपत्ति के मामले में पत्नी का स्थान मनु द्वारा दास के स्तर पर लाकर पटक दिया गया।
8.416. पत्नी, पुत्र और दास, इन तीनों के पास कोई संपत्ति नहीं हो; वे जो संपत्ति अर्जित करें, वह उसकी होती है, जिसकी वह पत्नी या पुत्र या दास है।
अगर वह विधवा हो जाए, तब मनु उसके लिए निर्वाह-व्यय की अनुमति देता है और अगर उसका पति अपने परिवार से अलग था, तब उसे उसके पति की संपत्ति में से विधवा को भूसंपत्ति का अधिकार देता है लेकिन मनु उसे संपत्ति पर अधिकार की अनुमति नहीं देता ।
मनु के नियमों के अधीन स्त्री को शारीरिक दंड दिया जा सकता है और मनु पति को अपनी पत्नी को मारने-पीटने की अनुमति देता है:
8.299. स्त्री, पुत्र, दास और सहोदर यदि अपराध करें तब रस्सी से या बांस की छड़ी से मारना चाहिए।
अन्य परिस्थितियों में मनु स्त्री का स्थान शूद्र के स्थान के समान मानता है। वेद का अध्ययन मनु द्वारा उसे उसी प्रकार निषिद्ध है जिस प्रकार शूद्र को ।
2.66. स्त्री के लिए भी सभी संस्कारों का किया जाना जरूरी है और वे किए जाने चाहिए। लेकिन ये वेदमंत्रों के बिना किए जाने चाहिए ।
9.18. स्त्रियों को पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए उनके संस्कार वेद मंत्रों के बिना किए जाते हैं। स्त्रियों को वेद जानने का अधिकार नहीं है इसलिए उन्हें धर्म का कोई ज्ञान नहीं होता । पाप दूर करने के लिए वेद मंत्रों का पाठ उपयोगी है। चूंकि स्त्रियां वेद मंत्रों का पाठ नहीं कर सकतीं, वे उसी प्रकार अपवित्र हैं, जिस प्रकार असत्य अपवित्र होता है।
ब्राह्मण धर्म के अनुसार, यज्ञ करना धर्म का सार है, फिर भी मनु स्त्रियों को यज्ञ करने की अनुमति नहीं देता। मनु निर्देश देता है:
11.36. स्त्री वेद विहित दैनिक अग्निहोत्र नहीं करेगी।
11.37. यदि वह करती है, तब वह नरक में जाएगी।
मनु स्त्रियों को ब्राह्मण, पुरोहितों की सहायता व उनकी सेवा ग्रहण करने से वर्जित करता है, जिससे वह यज्ञ कर्म न कर सकें।
4.205. ब्राह्मण उस यज्ञकर्म में दिए गए भोजन को ग्रहण न करें, जो किसी स्त्री द्वारा किया गया हो।
4.206. जो यज्ञ कर्म स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं, वे अशुभ और देवताओं को अस्वीकार्य होते हैं। अतः उसमें भाग नहीं लेना चाहिए।
स्त्रियों को कोई बौद्धिक कार्य नहीं करना चाहिए । उनको स्वतंत्र इच्छा नहीं करनी चाहिए, न ही उन्हें अपने विचारों में स्वतंत्र होना चाहिए। वह कोई अन्य धर्म, जैसे बौद्ध धर्म स्वीकार नहीं कर सकतीं। यदि वह आजीवन उसका पालन करती हैं, तब उन्हें जल का तर्पण नहीं किया जाएगा, जो अन्य मृतकों के लिए किया जाता है।