अंत में जीवन के उस आदर्श को भी देखिए, जो मनु स्त्रियों के लिए निर्धारित करता है। उसे उसी के शब्दों में कहना उचित होगा:
5.151. वह आजीवन उसकी ( पति की आज्ञा का अनुपालन करेगी जिसे उसका पिता या उसका भाई अपने पिता की अनुमति से उसे सौंप देगा, और जब वह दिवंगत हो जाए तब वह उसके श्राद्ध आदि कर्म का उल्लंघन नहीं करेगी।
5.154. चाहे पति सदाचार से हीन हो, या वह अन्य में आसक्त हो या वह सद्गुणों से हीन हो, तो भी पतिव्रता स्त्री के द्वारा पति देवता के समान पूजित होता है।
5.155. स्त्री पति से पृथक कोई यज्ञ, कोई व्रत या उपवास न करे यदि स्त्री अपने पति का अनुपालन करती है, तब वह इस कारण ही स्वर्ग में पूजित होती है।
अब उन विशिष्ट सूत्रों पर ध्यान दीजिए जो उस आदर्श के मानों आधार हैं, जिसे मनु स्त्रियों के लिए प्रस्तुत करता है:
5.153. जिस पति ने किसी स्त्री को अपनी पत्नी के रूप में पवित्र मंत्रों के उच्चारण के बाद वरण किया है, वह उसके लिए ऋतुभिन्न काल में भी नित्य ही इस लोक में तथा परलोक में सुख देने वाला होता है।
5.150. उसे सर्वदा प्रसन्न, गृह कार्य में चतुर, घर के बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।
अब जरा, मनु के समय से पूर्व नारी की जो स्थिति थी, उससे इसकी तुलना तो कीजिए। अथर्ववेद से यह स्पष्ट है कि नारी को अपने उपनयन का अधिकार प्राप्त था। कहा गया है कि नारी ब्रह्मचर्य की अवस्था पूरी करने के बाद विवाह के योग्य हो जाती है । श्रौत सूत्र से यह स्पष्ट है कि नारी वेद मंत्रों का अनुपाठ कर सकती थी और उसे वेदों का अध्ययन करने के लिए शिक्षा दी जाती थी। पाणिनि की अष्टाध्यायी से इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि नारियां गुरुकुलों में जाती थीं और वेदों की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन करती थीं और वे मीमांसा में प्रवीण होती थीं। पतंजलि के महाभाष्य का कहना है कि नारियां शिक्षक होती थीं और बालिकाओं को वेदों का अध्ययन कराती थीं। धर्म, आध्यात्म और तत्व मीमांसा के कठिन से कठिन विषयों पर पुरुषों के साथ नारियों के शास्त्रार्थ करने के प्रसंग भी कम नहीं मिलेंगे। जनक और सुलभ, याज्ञवल्क्य और गार्गी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी तथा शंकराचार्य और विद्याधरी के बीच शास्त्रार्थ की घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि मनु के पूर्व नारियां शिक्षा और ज्ञान के उच्च शिखर पर पहुंच चुकी थीं।
मनु से पूर्व नारी को बहुत सम्मान दिया जाता था, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। प्राचीन काल में राजाओं के राज्याभिषेक के समय में जिन स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, उनमें रानी भी होती थी। राजा दूसरों की भांति रानी को भी वर प्रदान करता था।¹ राज्याभिषेक के पूर्व चयनित राजा केवल रानी की ही नहीं वरन् वह नीची जाति की अपनी अन्य पत्नियों की भी स्तुति करता था।² इसी प्रकार वह राज्याभिषेक के बाद अपने प्रमुख शासनाधिकारियों की पत्नियों का भी अभिवादन करता था।³
1. जायसवाल - इंडियन पॉलिटी, भाग 2, पृ. 16
2. वही, पृ. 17
3. वही, पृ. 82
कौटिल्य के युग में नारी बारह वर्ष की अवस्था में और पुरुष सोलह वर्ष की अवस्था में वयस्क माने जाते थे।¹ यही आयु विवाह की आयु मानी जाती थी। बौद्धायन के गृह सूत्र में कहा गया है कि कन्या वयःसंधि के बाद विवाह योग्य हो जाती है² और विवाह के समय जब वह रजःस्वला हो, तब प्रायश्चित कर्म का विशेष विधान किया गया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्त्री-पुरुष के संभोग के लिए आयु के संबंध में कोई नियम नहीं है। इसका कारण यह है कि विवाह वयःसंधि की अवस्था के बाद होता था। उनकी अधिक चिंता ऐसी घटनाओं को लेकर थी, जिनमें वर-वधू का विवाह हो जाता है और यह बात छिपा ली जाती है कि उन्होंने विवाह से पहले किसी दूसरे के साथ संभोग किया था, या रजस्वला वधू संभोग कर चुकी है। पहली स्थिति के संबंध में कौटिल्य कहते हैं:³
‘यदि किसी व्यक्ति ने अपनी पुत्री का विवाह यह बताए बिना कर दिया है कि उसकी पुत्री का किसी अन्य व्यक्ति से शारीरिक संबंध था, तब उस पर न केवल आर्थिक दंड निर्धारित किया जाए, बल्कि उसे शुल्क और स्त्री धन भी लौटाना होगा । यदि कोई पुरुष यह बताए बिना किसी कन्या से विवाह करता है कि उसके किसी अन्य नारी से शारीरिक संबंध थे तो वह न केवल उक्त आर्थिक दंड का दुगना धन दंड स्वरूप देगा, बल्कि जो शुल्क और स्त्री धन उसने वधू को दिया है, वह भी जब्त हो जाएगा। दूसरे मामले में कौटिल्य⁴ का नियम इस प्रकार है:
'यदि कोई व्यक्ति अपनी समान जाति और श्रेणी की ऐसी नारी से संभोग करता है जो पहली बार रज:स्वला होने के बाद तीन वर्ष से अविवाहित है, तो उसका यह कर्म अपराध नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई अपनी जाति से भिन्न जाति की ऐसी नारी के साथ संभोग करता है जो पहली बार रज:स्वला होने के बाद तीन वर्ष से अविवाहित है और उसके पास आभूषणादि नहीं हैं, तब यह कर्म कोई अपराध नहीं है।'
मनु के विपरीत कौटिल्य एक विवाह प्रथा की व्यवस्था करता है। पुरुष कुछ ही परिस्थितियों में दूसरा विवाह कर सकता है। कौटिल्य ने इसकी शर्तें बताई हैं जो निम्नलिखित हैं: ⁵
'यदि कोई नारी (जीवित) बालक को जन्म नहीं दे पाती है, या जिसके पुत्र नहीं है, अथवा कोई स्त्री बांझ है, तो उसका पति दूसरा विवाह करने से पूर्व आठ वर्ष तक प्रतीक्षा करे। यदि कोई नारी मृत बालक को जन्म देती है तो उसे दस वर्षों तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि वह केवल पुत्रियों को ही जन्म देती है तो उसे 12 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी होगी। तब यदि वह पुत्र की कामना करता हो तो वह दूसरा विवाह कर सकता है। इस नियम के उल्लंघन पर उसे स्त्री को न केवल शुल्क और उसका स्त्री- धन देना होगा और आर्थिक क्षतिपूर्ति करनी होगी, बल्कि उसे राज्य को 24 पण दंड स्वरूप भी देने होंगे। अपनी पत्नियों को अनुपातिक क्षतिपूर्ति और समुचित वृत्ति देने के बाद वह कितनी ही स्त्रियों से विवाह कर सकता है, क्योंकि स्त्री का जन्म पुत्रोत्पत्ति के लिए होता है। '
1. शाम शास्त्री - कौटिल्य का अर्थशास्त्र, पृ. 175
2. बौद्धायन, 1.7.22
3. शाम शास्त्री - कौटिल्य का अर्थशास्त्र, पृ. 222 4. वही, पृ. 259
5. जायसवाल - इंडियन पॉलिटी, भाग 2, पृ. 16