शूद्रों ने अपनी प्रगति राज्य में मंत्री तक बन जाने तक ही सीमित नहीं रखी, वे राजा भी बने। कोई शूद्र राजा बन सकता है या नहीं, इस बारे में मनु ने जो धारणा व्यक्त की है, वह शूद्रों के विषय में ऋग्वेद में वर्णित कथा के एकदम विपरीत है। सुदास के शासन की जब कभी चर्चा की जाती है, वह वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच इस बात के लिए भयंकर प्रतिस्पर्धा के प्रसंग में की जाती है कि उसमें से कौन उसका राजपुरो. हित बनेगा। यह विवाद इस बात को लेकर उठा कि किसे पुरोहित या राजा बनने का अधिकार है। वशिष्ठ ने जो ब्राह्मण थे, और जो पहले से ही सुदास के पुरोहित थे, यह व्यवस्था की कि राजा का पुरोहित केवल ब्राह्मण हो सकता है, जबकि विश्वामित्र ने, जो एक क्षत्रिय थे, यह कहा कि इस पद पर क्षत्रिय का अधिकार है। विश्वामित्र अपने उद्देश्य में सफल हुए और वह सुदास के पुरोहित बन गए। वह विवाद निस्संदेह स्मरणीय है क्योंकि इसका संबंध एक ऐसे प्रश्न से है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। हालांकि इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण स्थाई रूप से राज पुरोहित के पद से वंचित नहीं किए जा सके, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह घटना सामाजिक इतिहास की शायद एक महत्वपूर्ण घटना है जो हमें प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। दुर्भाग्य से इस बात की ओर किसी का ध्यान नहीं गया, न ही किसी ने यह गंभीरतापूर्वक सोचा कि वह राजा कौन था ? सुदास पैजवन का पुत्र था और पैजवन दिवोदास का पुत्र था, जो काशी का राजा था। सुदास का वर्ण क्या था? अगर लोगों को यह बताया जाए कि सुदास नामक राजा एक शूद्र था तो बहुत कम लोगों को विश्वास होगा। किंतु यह एक यथार्थ है और इसका प्रमाण महाभारत में उपलब्ध है¹ जहां शांति पर्व में पैजवन का प्रसंग आया है। वहां यह कहा गया है कि पैजवन एक शूद्र था। यहां सुदास की कथा से आर्यों के समाज में शूद्रों की स्थिति के बारे में नई रोशनी मिलती है। इससे पता चलता है कि शूद्र भी राजा हो सकता था और शासन कर सकता था। इससे यह भी पता चलता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय एक शूद्र राजा के अधीन कार्य करने में किसी अपमान का अनुभव नहीं करते थे, बल्कि उनमें राजा का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा थी और उसके यहां वैदिक कर्म करने के लिए तैयार रहते थे।
यह नहीं कहा जा सकता कि बाद के युग में कोई शूद्र राजा नहीं हुआ। बल्कि इसके विपरीत ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि मनु के पूर्व शूद्र राजाओं के दो साम्राज्य थे। नंदों ने, जो शूद्र थे, ईसा पूर्व 413 से ईसा पूर्व 322 शताब्दी तक राज्य किया । इसके पश्चात् मौर्य हुए, जिन्होंने ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 183 शताब्दी तक शासन किया; वे भी शूद्र थे।² इस बात को सिद्ध करने के लिए कि शूद्रों ने कितना ऊंचा स्थान प्राप्त किया अशोक
1. जायसवाल - हिंदू पॉलिटी, खण्ड-2, पृ. 148
2. म्यूर, संस्कृत टैक्क्स्ट्स, खंड 1, पृ. 366
के दृष्टांत से बढ़कर क्या दृष्टांत हो सकता है जो भारत का सम्राट ही नहीं था, बल्कि वह शूद्र भी था और उसका साम्राज्य वह साम्राज्य था जिसे शूद्रों ने बनाया था।
वेदों का अध्ययन करने के बारे में शूद्रों के अधिकारों के प्रश्न पर छांदोग्य उपनिषद उल्लेखनीय है। इसमें जनश्रुति नामक एक व्यक्ति की कथा आती है, जिसे वेद-विद्या का ज्ञान रैक्व नामक आचार्य ने दिया था। वह व्यक्ति एक शूद्र था । यदि यह एक सत्य कथा है तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि एक समय ऐसा भी था, जब अध्ययन के संबंध में शूद्रों पर कोई प्रतिबंध नहीं था ।
केवल यही बात नहीं थी कि शूद्र वेदों का अध्ययन कर सकते थे। कुछ ऐसे शूद्र भी थे, जिन्हें ऋषि - पद प्राप्त था और जिन्होंने वेद मंत्रों की रचना की । कवष एलूष¹ नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्वपूर्ण है। वह एक ऋषि था और ऋग्वेद के दसवें मंडल में उसके रचे हुए अनेक मंत्र हैं।² वैदिक कर्म में और यज्ञादि करने के बारे में शूद्रों की आध्यात्मिक क्षमता के प्रश्न पर जो सामग्री मिलती है, वह निम्नलिखित हैं। पूर्व-मीमांसा के प्रणेता जैमिनि³ ने बदरी नामक एक प्राचीन आचार्य का उल्लेख किया है, जिनकी कृति अनुपलब्ध है। यह इस मत के व्याख्याता थे कि शूद्र भी वैदिक यज्ञ करा सकते हैं। भारद्वाज श्रौत सूत (5.28) में स्वीकार किया गया। है कि विद्वानों का एक ऐस वर्ग भी है जो वैदिक यज्ञ के लिए आवश्यक तीन पवित्र अग्नियों को उत्पन कर सकता है। कात्यायन श्रौत सूत्र ( 1 और 5) का भाष्यकार यह स्वीकार करता है कि कुछ वैदिक ऋचाएं ऐसी हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि शूद्र वैदिक कर्म करने के योग्य हैं। शतपथ ब्राह्मण ( 1.1.4.12) में आचार विषयक एक नियम का उल्लेख है, जिसका आचारण यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण को करना होता था। यह उस विधि के संबंध में है जिसके अनुसार पुरोहित को हविष्कूट (यज्ञ कराने वाले व्यक्ति) को संबोधित करना चाहिए। यह नियम इस प्रकार है : एहि (यहां आओ) यह ब्राह्मणों के लिए कहा गया है। आगहि (आगे बढ़ो ) यह वैश्यों के लिए है। आद्रव (जल्दी आओ), यह राजन्य (क्षत्रिय) के संबंध में है और आधाव ( भाग कर ) आओ, यह शूद्र के लिए है।
शतपथ ब्राह्मण⁴ में ऐसा प्रमाण मिलता है कि शूद्र सोम यज्ञ करा सकता था और देवताओं का पेय सोम ग्रहण कर सकता था। इसमें कहा गया है कि सोम यज्ञ में 'पयोव्रत'
1. ऐतरेय ब्राह्मण, खंड 2, पृ. 112
2. मैक्समूलर-एनशिएंट संस्कृत लिट्रेचर (1860 )
3. काणे कृत हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में उद्धृत
4. वही
(केवल दुग्ध पान करने का व्रत) के स्थान पर शूद्र के लिए 'मस्तु' (दही का पानी) निर्धारित था। एक अन्य स्थान पर शतपथ ब्राह्मण¹ कहता है:
'चार वर्ण हैं: ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र । इसमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सोम का तिरस्कार करता हो । यदि उनमें से कोई ऐसा करता है तो उसे प्रायश्चित करना होगा । '
इससे पता चलता है कि शूद्रों के लिए सोमपान करने की अनुमति ही नहीं थी, वरन् यह शूद्र सहित सभी के लिए अनिवार्य था । परंतु अश्विनी कुमारों की कथा में इस बात का निश्चित प्रमाण मिलता है कि शूद्र को दैवीय सोम के पान करने का अधिकार था।
यह कथा² इस प्रकार है कि एक बार अश्विनी कुमारों की दृष्टि सुकन्या पर पड़ी जिसने स्नान किया ही था और जो निर्वस्त्र थी। वह तरुणी थी और उसका विवाह च्यवन नामक ऋषि से हुआ था जो विवाह के समय इतने वृद्ध हो चुके थे कि उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती थी। अश्विनी कुमार सुकन्या के सौंदर्य को देख उस पर मुग्ध हो गए और उन्होंने उससे कहा कि, 'तुम हम में से किसी को भी अपना पति चुन लो, तुम्हें अपनी युवावस्था व्यर्थ में गवाना शोभा नहीं देता ।' उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि ‘मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं'। अश्विनी कुमारों ने उससे फिर कहा और उसे इस बार एक लालच दिया ‘हम स्वर्ग से आए प्रख्यात चिकित्सक हैं। हम तुम्हारे पति को युवा और सुंदर बना देंगे। इसलिए तुम हममें से किसी को भी अपना पति बना लो । ' वह अपने पति के पास गई और उसने इस प्रस्ताव के बारे में अपने पति को बताया । च्यवन ने सुकन्या से कहा, 'तुम ऐसा ही करो,' और बात तय हो गई। और अश्विनी कुमारों ने च्यवन को युवक बना दिया। तब ये प्रश्न उठा कि क्या अश्विनी कुमार सोम के अधिकारी हैं, जो देवताओं का पेय है। इंद्र ने इस पर आपत्ति की और कहा कि अश्विनी कुमार शूद्र हैं और इसलिए वे सोम के अधिकारी ही नहीं हैं। च्यवन ने, जो अश्विनी कुमारों से यौवन प्राप्त कर चुके थे, इंद्र की इस आपत्ति का खंडन किया और उसे अश्विनी कुमारों को सोम देने के लिए विवश किया।
उस समय यदि शूद्र को अपने से संबंधित यज्ञ कर्म करने की अनुमति नहीं थी, तो इन सब प्रावधानों का कोई अर्थ नहीं हो सकता था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि शूद्र स्त्री ने अश्वमेध³ नामक यज्ञ में भाग लिया था। जहां तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत
1. म्यूर द्वारा उद्धृत संस्कृत टैक्स्ट्स, खंड 1, पृ. 367
2. वी. फासवायल, इंडियन माइथोलोजी, पृ. 128-32
3. जायसवाल - इंडियन पॉलिटी, भाग 2, पृ. 17
धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि यह शूद्रों के लिए वर्जित था। बल्कि संस्कार गणपति में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा गया है कि शूद्र उपनयन के अधिकारी हैं।¹
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यद्यपि शूद्र निम्न वर्ग में गिने जाते थे, तथापि मनु से पहले वे समाज में स्वतंत्र नागरिक थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिए गए निम्नलिखित प्रावधान पर विचार कीजिए:
“जो संबंधी जन (ऐसे) शूद्र का, जो जन्मजात दास नहीं है और जन्म से आर्य हैं, विक्रय करते हैं या उन्हें गिरवी रखते हैं, उनको दो पण का आर्थिक दंड दिया जाए। "
"जो कोई किसी दास को उसका धन लेकर ठगता है अथवा उसे उन विशेषाधिकारों से वंचित करता है जो वह आर्य ( आर्यभव) होने के कारण प्रयोग कर सकता है, ( उसे) (उसका) आधा आर्थिक दंड दिया जाए, जो किसी को आर्य को दास बनाने पर दिया जाता है। "
“यदि कोई अपेक्षित धन मिल जाने पर किसी दास को मुक्त नहीं करता है, तब उसे बारह पण दंड दिया जाए, किसी दास को अकारण बंदी बनाकर रखने पर (संरोधश्चकारणात्) इतना ही दंड दिया जाए। "
“किसी भी ऐसे व्यक्ति की संतति आर्य मानी जाएगी, जिसने अपने आपको दास रूप में बेच दिया है। प्रत्येक दास अपने स्वामी के कृत्यों के बावजूद उसका भी अधिकारी होगा जो उसे उत्तराधिकारी स्वरूप प्राप्त होगी । "
मनु ने शूद्रों को क्यों दबाया ?
शूद्रों के संबंध में यह पहेली कोई सरल पहेली नहीं है। यह एक जटिल पहेली है। आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया । अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया। उनमें अनार्यों को आर्य बनाए जाने की इतनी उत्कट इच्छा थी कि उन्होंने अनार्यों को सामूहिक आधार पर आर्य बनाने के लिए एक धार्मिक समारोह की कल्पना की । इस समारोह का नाम व्रात्य स्तोम था। व्रात्य स्तोम के संबंध में महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री का कथन है:
"जिस संस्कार द्वारा व्रात्यों का शुद्धिकरण किया जाता था, जिसका वर्णन पंच विंश ब्राह्मण में किया गया है, वह कम से कम एक रूप में तो वैदिक कालीन अन्य संस्कारों से भिन्न था, अर्थात् अन्य संस्कारों में यज्ञ मंडप में केवल एक व्यक्ति और उसकी पत्नी यजमान होते थे, किंतु इस संस्कार में हजारों व्यक्ति यजमान होते थे। इनमें से एक
1. मैक्समूलर द्वारा एनसिएंट संस्कृत लिटरेचर (1860 ) में पृ. 207 पर उल्लिखित है।
व्यक्ति सबसे अधिक विज्ञ, सबसे अधिक धनवान या सबसे अधिक शक्तिशाली होता था, वह गृहपति के रूप में कृत्य करता था और शेष व्यक्ति उसका अनुकरण करते थे । गृहपति को अन्य की अपेक्षा अधिक दक्षिणा देनी होती थी । "