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शूद्र और प्रतिक्रांति (भाग 2) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     मनु इतने से ही संतुष्ट नहीं है। वह कहता है कि शूद्र का यह निम्न स्तर इस वर्ण के व्यक्तियों के नामों और उपनामों में परिलक्षित हो। मनु कहता है:

     2.31. ब्राह्मण के नाम का प्रथम अंश मंगल सूचक, क्षत्रिय का शक्ति सूचक, वैश्य का धन सूचक, और शूद्र का कुछ ऐसा हो जो तिरस्कार सूचक हो ।

     2.32. ब्राह्मण के नाम का द्वितीयांश सुख-शांति सूचक, क्षत्रिय का रक्षा सूचक, वैश्य का सौभाग्य सूचक और शूद्र का दास भाव सूचक होगा।

     मनु से पहले शूद्रों की क्या स्थिति थी? मनु शूद्रों का निरूपण इस प्रकार करता है, जैसे वे बाहर से आने वाले अनार्य थे। किंतु उन्हें वे सामाजिक अथवा धार्मिक अधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिए। दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई है कि शूद्र अनार्य थे। किंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस संबंध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता ।

Shudra Aur Pratikranti - Dr Babasaheb Ambedkar

     जब हम आर्यों के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते हैं, तब हमें उनमें विभिन्न समुदायों और वर्गों का नामोल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम आर्यों का उल्लेख मिलता है, जिनमें चार वर्ग कहे गए हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनके अतिरिक्त और इनसे भिन्न थे (1) असुर, (2) सुर अथवा देव, (3) यक्ष, (4) गंधर्व, (5) किन्नर, (6) चारण, (7) अश्विनी, और (8) निषाद ।

     निषाद जंगल के निवासी थे और आदिम और असंस्कृत थे। गंधर्व, यक्ष, किन्नर, चारण और अश्विनी वर्ग के समुदाय थे। असुर शब्द प्रजातीय नाम हैं, जो विभिन्न जनजातियों के लिए दिया गया। ये जन-जातियां अपने-अपने विशिष्ट नामों से पुकारी जाती हैं, जैसे दैत्य, दानव, दस्यु, कलंज, कलेय, कालिन, नाग, निवातकवच, पुलोम, पिशाच और राक्षस । हम यह नहीं कह सकते कि सुर और देव भी असुर की भांति विभिन्न जन-जातियों के नाम थे। हम केवल देव समुदायों के प्रमुख देवों को जानते हैं। इनमें से जो अधिक प्रसिद्ध हैं, वे हैं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सूर्य, इंद्र, वरुण और सोम आदि ।

     इन जातियों, अर्थात् आर्यों, असुरों और देवों के और इनके बीच परस्पर संबंध के बारे में अनेक विलक्षण मान्यताएं मुख्यतः सायणाचार्य के भाष्य की भ्रांतिपूर्ण व्याख्या के कारण ज्ञानवान व्यक्तियों तक के मन में भी बैठ गई हैं। यह विश्वास किया जाता है। कि असुर मानव नहीं थे। उन्हें भूत-पिशाच समझा गया है, जो आर्यों को रात होने पर सताया करते थे। सुर अथवा देव प्रकृति की शक्तियों के काव्यात्मक प्रतीक कहे गए, आर्यों के संबंध में यह धारणा है कि वे गोरे रंग के, नुकीली नाक वाले, गौर वर्ण के मनुष्य थे और उसमें इसका बहुत अभिमान था। दस्युओं के बारे में कहा गया है कि शूद्र का दूसरा नाम दस्यु है। यह भी कहा गया है कि शूद्र भी भारत के आदि निवासी थे। इनका रंग काला और नाक चपटी होती थी। जब आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया तो उन्होंने इन्हें पराजित कर दिया और इन्हें अपना दास बना लिया और दासता के चिह्न के रूप में इन्हें 'दस्यु' नाम दिया। कहा जाता है कि 'दस्यु' शब्द दास शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है, गुलाम ।¹

     ये सारी धारणाएं निराधार हैं। असुर और सुर, दोनों आर्यों के समान मनुष्य थे। असुर और सुर, दोनों के पिता कश्यप थे। कथा है कि दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएं थीं, जिनमें से तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप के साथ हुआ था। कश्यप की तेरह पत्नियों में से एक दिति और दूसरी थी, अदिति। जो दिति से उत्पन्न हुए, वे दैत्य अथवा असुर कहलाए और जिनका जन्म अदिति से हुआ, वे सुर अथवा देव कहलाए। इन दोनों के बीच बहुत दिनों तक पृथ्वी पर आधिपत्य के लिए भीषण युद्ध हुआ। इसमें संदेह नहीं कि यह एक पौराणिक कथा है। बेशक, यह पौराणिक कथा है, लेकिन यह भी एक इतिहास है और पौराणिक इतिहास अतिशयोक्ति में कहा गया इतिहास ही होता है।

     आर्य कोई प्रजाति नहीं थी। आर्य कुछ व्यक्तियों का एक समूह था । उनको आपस में बांधे रखने का सूत्र एक विशिष्ट संस्कृति को बनाए रखने में उनका स्वार्थ था, जिसे आर्य संस्कृति कहा जाता है। जो भी व्यक्ति आर्य संस्कृति को स्वीकार कर लेता, वह आर्य कहलाता था। चूंकि यह कोई प्रजाति नहीं थी, अतः इसके लिए वर्ण और आकृति का कोई मापदंड नहीं था, जिसे आर्य कहा जा सकता। आर्यों में काले रंग और चपटी नाक वाला कोई वर्ग ऐसा नहीं था, जो अपने आपको उनसे भिन्न कहता हो ।²

     आर्यों और दस्युओं में विभाजन और परस्पर वैर वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह के कारण रहा यह धारणा वर्ग और अनास्, इन दो शब्दों के गलत अर्थ लगाए गए जाने के कारण पैदा हुई, जिनका प्रयोग दस्युओं के प्रसंग में किया गया। 'वर्ण' शब्द का अर्थ रंग और अनास् का अर्थ बिना नाक वाला लगाया गया। ये दोनों अर्थ गलत हैं। वर्ण का अर्थ जाति और अनास् को यदि संधि-विच्छेद करें, अर्थात् अन+आस पढ़ें तो इसका अर्थ होगा, मुख या आकृति रहित। यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक सामाजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी। अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमें वर्ण के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं था, तो वह आर्य थे और यह इसलिए था कि इनका कोई प्रमुख वर्ण नहीं था, जिसके आधार पर वे अपने को अलग-अलग रखते।

     यह कहना गलत है कि दस्यु प्रजाति के कारण अनार्य थे। दस्यु भारत की आर्यों से पूर्व की कोई आदिम जाति भी नहीं थी। दस्यु आर्य संप्रदाय के सदस्य थे किंतु उन्हें कुछ ऐसी धारणाओं और आस्थाओं का विरोध करने के कारण आर्य संज्ञा से रहित कर दिया गया जो आर्य संस्कृति का आवश्यक अंग थी। इस धारणा का कि दस्यु प्रजाति के कारण अनार्य हैं, कैसे जन्म हुआ, यह समझना कठिन है।


1. निरुक्त के अनुसार दास का अर्थ है नष्ट करना ।
2. इस संपूर्ण विषय पर पुरुषार्थ खंड, पृ. 13 पर श्री सातवलेकर का सिद्धांतपूर्ण विवेचन देखिए ।


     ऋग्वेद में इंद्र कहते हैं कि 'मैंने कवि नामक व्यक्ति के हितार्थ अपने वज्र से संहार किया है, मैंने सुरक्षा के साधनों का उपयोग कर कूप की सुरक्षा की है, मैंने संरक्षण के साधनों से कूप को बचाया है, मैंने सुष्न के संहार के लिए वज्र का उपयोग किया, मैंने दस्युओं को आर्य की संज्ञा से वंचित किया। (ऋग्वेद, 10.49)

     इंद्र के इस कथन से अधिक सकारात्मक और निश्चित प्रमाण और कोई नहीं हो सकता कि दस्यु आर्य ही थे। इसके अतिरिक्त एक और प्रमाण, अनेक अत्याचारों के कारण इंद्र को दंडित किया जाना भी है। इंद्र को जिन अत्याचारों के कारण दंडित किया गया, उसमें से एक यह भी है कि इंद्र ने वृत्र का वध किया था । वृत्र दस्युओं का नायक था। यदि दस्यु आर्य न होते तो इंद्र पर ऐसा आरोप लगाना अकल्पनीय है।

     यह सोचना भी गलत है कि आर्य आक्रमणकारियों ने शूद्रों पर विजय प्राप्त की । पहली बात तो यह है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्य भारत में बाहर से आए और उन्होंने यहां के निवासियों पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि के लिए प्रचुर प्रमाण हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे। दूसरी बात यह है कि इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्यों और दस्युओं के बीच कभी कोई युद्ध हुआ हो, और दस्युओं का शूद्रों से कोई लेना-देना नहीं था। तीसरी बात यह है कि इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि आर्य कोई शक्तिशाली लोग थे, जिनके पास पर्याप्त बल था। जो कोई भारत में आर्यों का इतिहास देवों के साथ उनके संबंध के प्रसंग में पढ़ता है, उसे उनके उस संबंध का स्मरण हो जाता है जो सामंती युग में सामंत और उनके अधीनों के बीच होते थे। देव सामंत होते थे और आर्य उनके अधीन थे। आर्य लोग जो आहुतियां देते थे, उनका स्वरूप कुछ ऐसा ही है, जैसे देवों को शुल्क दिया जा रहा हो। देवों के प्रति आय की अधीनता का कारण यह था कि उनके संरक्षण के बिना वे असुरों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते थे। इस प्रकार यह कल्पना करना कठिन है कि ऐसे अशक्त लोगों ने शूद्रों पर विजय प्राप्त की थी। अंतिम बात यह है कि शूद्रों के विषय में दो बातें स्पष्ट हैं। इस बात से कोई सहमत नहीं है कि उनका रंग काला और नाक चपटी थी। न ही किसी ने इस बात को स्वीकार किया है कि वे आर्यों द्वारा कभी पराजित किए गए या गुलाम बनाए गए थे। आर्यों और दस्युओं को एक ही मानना गलत बात है। वे बराबर के लोग थे। किंतु सांस्कृतिक रूप में वे एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे।' दस्यु इस अर्थ में अनार्य थे कि वे अलग हो गए और उन्होंने आर्य-संस्कृति का विरोध किया। दूसरी ओर, शूद्र आर्य ही थे, अर्थात् वे जीवन की आर्य-पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है।

     शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न, जन्मजात और सम्मानित सदस्य थे। यह बात यजुर्वेद में उल्लिखित एक स्तुति से पुष्ट होती है जो प्रार्थना के रूप में कही गई है। यह इस प्रकार है: 'हे ईश्वर! हमारे पुरोहितों को वैभव दो। हमारे शासकों को संपन्न करो। वैश्यों और शूद्रों को समृद्ध करो। मुझे समृद्ध करो । '

     यह एक उल्लेखनीय प्रार्थना है, उल्लेखनीय इस कारण, क्योंकि इससे पता चलता है कि शूद्र आर्य समुदाय का सदस्य होता था और वह उसका सम्मानित अंग था।

     राजा के राज्याभिषेक के समय शूद्रों को भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान आमंत्रित किया जाता था। यह बात महाभारत में दिए गए पांडवों के ज्येष्ठ भाई युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के वर्णन से पुष्ट होती है। शूद्र ने राजतिलक के समय समारोह में भाग लिया था। नीलकंठ नामक एक प्राचीन विद्वान के अनुसार, जो राज्याभिषेक समारोह का वर्णन करते हैं, 'चार प्रमुख मंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ने नए राजा का अभिषेक किया। इसके पश्चात् प्रत्येक वर्ण के प्रमुखों और छोटी जातियों के प्रमुखों ने भी पवित्र जल से राजा का अभिषेक किया। इसके पश्चात् द्विजों ने जयघोष किया । ' वैदिक युग के पश्चात् और मनु के पूर्व जन-प्रतिनिधियों का एक वर्ग होता था, जिन्हें रत्नी कहा जाता था। राजा के राज्यारोहण के समय वे विशेष भूमिका निभाते थे। उन्हें रत्नी इसलिए कहा जाता था कि उनके पास रत्न होते थे, जो प्रभुता का प्रतीक होता था। राजा को प्रभुता तभी प्राप्त होती थी, जब रत्नीगण उसे सत्ता के प्रतीक स्वरूप रत्न भेंट करते थे। वह प्रभुता प्राप्त होने के उपरांत प्रत्येक रत्नी के घर जाता था और उसे उपहार देता था। महत्वपूर्ण बात यह है कि शूद्र भी एक रत्नी था।

     प्राचीन समय में शूद्र दो महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्थाओं के सदस्य हुआ करते थे, जिन्हें जनपद और पौर कहा जाता था, और वे इन संस्थाओं के सदस्य होने के कारण ब्राह्मण तक से विशेष सम्मान के अधिकारी होते थे।

     यह निर्विवाद सत्य है कि प्राचीन आर्य समाज में शूद्रों ने उच्च राजनीतिक गौरव प्राप्त किया था। वे राज्य के मंत्री बन सकते थे। महाभारत में इसका प्रमाण मिलता है। महाभारतकार अपनी स्मृति के आधार पर 37 मंत्रियों की एक सूची का उल्लेख करता है, उसमें चार मंत्री ब्राह्मण, आठ मंत्री क्षत्रिय, इक्कीस मंत्री वैश्य और तीन मंत्री शूद्र तथा एक मंत्री सूत था।


1. शुक्ल यजुर्वेद, पृ. 200



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