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ब्राह्मणवाद की विजय : राजहत्या अथवा प्रतिक्रांति का जन्म (भाग 9) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     “मेरे विचार में किसी भी जाति-व्यवस्था में जाति का यही सामान्य रूप होता है। आइए, अब हिंदू समाज की जातियों और उनकी व्यवस्था पर विचार करें। हम सभी जानते हैं कि भारत में जाति एक अत्यंत प्राचीन व्यवस्था है, और यह कि जो लोग अतीत को उद्घाटित करना चाहते हैं, उनके रास्तों में बहुत सी कठिनाइयां आती हैं। यह बात वहां के लिए तो और भी सच होती है, जहां न तो कोई प्रमाणिक या लिखित इतिहास होता है, और न ही कोई अभिलेख होते हैं, या जहां लोग इस प्रकार संगठित रहते हैं, जैसे हिंदू, जिनके लिए इतिहास लिखना इसलिए महत्वपूर्ण कार्य है कि यह सारा विश्व ही मिथ्या है। फिर भी व्यवस्थाएं तो रहती हैं, चाहे चिरकाल तक इनका इतिहास अलिखित ही क्यों न रह जाए और इनके थोड़े-बहुत आचार-विचार और नैतिक आदर्श जीवाश्व की तरह हैं, जो अपना इतिहास कहते हैं। अगर यह सच है और अगर हम इसका विश्लेषण करें कि हिंदुओं ने इस अतिरिक्त पुरुष और स्त्री की समस्या का किस प्रकार समाधान किया, तो हम काफी सफल हो सकते हैं।

brahmanvad ki Vijay Raja Hatya Athva Prati Kranti ka Janm - dr Bhimrao Ramji Ambedkar

     हिंदू समाज की कार्यप्रणाली में, जो यद्यपि बहुत ही जटिल रही है, पत्नियों के संबंध में मोटे तौर पर तीन रीतियां मिलती हैं, जो किसी और समाज में नहीं मिलतीं। ये निम्नलिखित हैं:

     (1) सती अर्थात् विधवा को उसके दिवंगत पति के शव के साथ चिता में जला देना,
     (2) अनिवार्य वैधव्य जिसके द्वारा किसी भी विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है, और
     (3) बाल्यावस्था में विवाह ।

     इसके अलावा, अधिकांश विधुर व्यक्तियों में संन्यास लेने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, जो कुछ मामलों में केवल मानसिक झुकाव के कारण हो सकती है। “जहां तक मैं जानता हूं, इन प्रथाओं की उत्पत्ति का कोई वैज्ञानिक कारण आज तक नहीं मिल पाया है। इस बारे में हमें पर्याप्त चिंतन सामग्री उपलब्ध है कि इन प्रथाओं में लोगों की श्रद्धा क्यों थी? (तुलना कीजिए: ब्रिटिश सोशियोलॉजिकल रिव्यू, वॉल्यूम 6, 1953 में ए. के. कुमारस्वामी · सती: ए डिफेंस ऑफ दि ईस्टर्न वीमेन ) चूंकि यह शरीर और आत्मा, पति और पत्नी की पूर्ण एकता और कब्र के बाद भी निष्ठा का प्रमाण है, चूंकि यह स्त्रीत्व के आदर्श का प्रतीक है जिसे उमा ने बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त किया है, जब वह कहती है: 'अपने पति के प्रति निष्ठा स्त्री का गौरव है, वह उसका शाश्वत स्वर्ग है।' वह मानवों की भांति बड़ा आर्तनाद करते हुए कहती है, 'हे महेश्वर, यदि आप मुझसे संतुष्ट नहीं हैं, तो मैं स्वर्ग भी नहीं चाहती।' मैं यह नहीं जानती कि अनिवार्य वैधव्य को क्यों गौरव दिया जाता है, हालांकि बहुत से लोग अनिवार्य वैधव्य का समर्थन करते हैं। लेकिन मुझे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने इसकी प्रशंसा की हो। छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर देने की प्रथा की प्रशंसा में डॉ. केतकर ने बताया है, जो इस प्रकार है - 'जो पुरुष या स्त्री वास्तविक रूप से निष्ठावान है, उसे अपनी पत्नी या पति के अतिरिक्त, जिसके साथ उसका विवाह हो गया है, किसी भी दूसरी स्त्री या पुरुष के प्रति अनुरक्त नहीं होना चाहिए। यह शुचिता न केवल विवाह के बाद, बल्कि विवाह के पहले भी अनिवार्य है क्योंकि यही ब्रह्मचर्य का सच्चा आदर्श है। अगर कोई कुमारी उस व्यक्ति, जिसके साथ उसका विवाह होगा, के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम-भाव रखती है, तब वह शुद्ध नहीं मानी जा सकती। चूंकि वह यह नहीं जानती कि किसके साथ उसका विवाह होगा, उसे चाहिए कि वह विवाह के पूर्व किसी भी व्यक्ति के प्रति अनुरक्त नहीं हो। यदि वह ऐसा करती है तो वह पाप है, इसलिए प्रत्येक लड़की के यह हित में है कि काम - प्रवृत्ति जागने के पहले वह उस व्यक्ति को जान ले, जिसके साथ विवाह होने वाला है।" इसलिए लड़कियों का बचपन में ही विवाह होना शुरू हुआ।

     “इस अलंकारिक भाषा और विलक्षण कुतर्क से यह तो पता चलता है कि यह प्रथाएं क्यों अच्छी समझी जाती थीं। लेकिन इससे यह पता नहीं चलता कि ये प्रथाएं क्यों अमल में लाई गईं। मेरा अपना मत तो यह है कि चूंकि ये प्रथाएं अमल में लाई गईं, इसलिए इन्हें अच्छा समझ जाने लगा। जिस किसी को 18वीं शताब्दी में व्यक्तिवाद के उदय की थोड़ी-बहुत भी जानकारी है, वह मेरी टिप्पणी से सहमत होगा । प्रत्येक युग में आंदोलन को सबसे अधिक महत्व दिया गया है और काफी समय बीत जाने के बाद उसे पुष्ट करने और नैतिक समर्थन प्रदान करने के लिए विभिन्न दर्शन उत्पन्न हो जाते हैं। इस आधार पर मेरा यह कहना है कि जिस प्रकार इन प्रथाओं की खूब प्रशंसा की गई, उससे यह सिद्ध होता है कि इन प्रथाओं को जारी रखने के लिए प्रशंसा आवश्यक रही होगी। इस प्रश्न के उत्तर में कि ये प्रथाएं क्यों उत्पन्न हुईं, मेरा यह विनम्र मत है। कि जाति का ढांचा खड़ा करने के लिए इन प्रथाओं को आवश्यक समझा जाता था और इनके बारे में जिन दर्शनों का जन्म हुआ, उनका उद्देश्य उन्हें लोकप्रिय बनाना था । हम कह सकते हैं कि एक प्रकार से लोहे पर सोने-चांदी का मुलम्मा चढ़ाना था और यह प्रथाएं सीधी-सादी भोली जनता को इतनी अधिक घृणित और दहशत पैदा कर देने वाली लगी होंगी कि इनको चाशनी में पागना अत्यंत आवश्यक हो गया होगा। हालांकि इन प्रथाओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है लेकिन ये प्रथाएं वास्तव में अत्यंत ही घृणित प्रकृति की हैं। इस मुलम्मे या चाशनी के चक्कर में हमें उन परिणामों को नहीं भूलना चाहिए, जो इनसे उत्पन्न होते हैं। हम कह सकते हैं कि साधनों को आदर्श रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक होता है और इस विशेष मामले में ऐसा इन प्रथाओं को अधिक कारगर बनाने के लिए किया गया। साधनों को लक्ष्य कहने से हानि नहीं होती, सिवाए इसके कि इससे लक्ष्य का वास्तविक रूप छिप जाता है। लेकिन इससे उसकी वास्तविक प्रकृति नहीं समाप्त होती, और न उसके साधन ही नष्ट होते हैं। जिस प्रकार आप किसी साधन को लक्ष्य कह सकते हैं, उसी प्रकार आप यह कानून बना सकते हैं। कि सभी बिल्लियां कुत्ते होती हैं। अतः यदि मैं कह दूं कि यह लक्ष्य है या यह साधन है तो कोई अनुचित नहीं। सती-प्रथा, अनिवार्य वैधव्य और बालिका विवाह प्रथाएं हैं, जिनका उद्देश्य जाति में अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्या को हल करना और सजातीय विवाह व्यवस्था को बनाए रखना था। इन प्रथाओं के बगैर सजातीय विवाह व्यवस्था को सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता और सजातीय विवाह व्यवस्था के बगैर जाति एक धोखा है। " पर रोक लगाकर यही उद्देश्य पूरा करना चाहता था । अंतर्जातीय विवाह को रोकना कठिन कार्य है। भिन्न-भिन्न जातियों के लोग प्रेम या आवश्यकता होने के कारण अपनी-अपनी जातियों के बाहर जा सकते हैं। ब्राह्मणवाद ने ये नियम इसी आवश्यकता के विरुद्ध व्यवस्था करने के लिए ही बनाए । मेरा यह स्पष्टीकरण इन नए नियमों के बारे में है, जो ब्राह्मणवाद ने बनाए हैं। यह स्पष्टीकरण सभी को स्वीकार्य न हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि ब्राह्मणवाद विभिन्न वर्गों के बीच हो रहे विवाहों को रोकने के लिए हर संभव उपाय कर रहा था।

     ब्राह्मणवाद के अभिप्राय का एक और दृष्टांत यह नियम है जो मनु ने किसी व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत करने के बारे में बनाया था।

     मनु कहता है कि जो व्यक्ति अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है, उसे ऐसे समझना चाहिए जैसे वह वास्तविक रूप में मर गया हो ।

     मनु आदेश देता है कि उसकी अंत्येष्टि करनी चाहिए। वह उसकी अंत्येष्टि के बारे में विधि और पद्धति निश्चित करता है।

     11.182. बहिष्कृत व्यक्ति के सपिंड और समानोदकों को चाहिए कि वह संबंधियों, ऋत्विकों और गुरुओं की उपस्थिति में सायंकाल को किसी अशुभ दिन ( नगर से) बाहर (उसे, जैसे वह दिवंगत हो गया है) जल ( तर्पण) करे ।

     11.183. दासी जल से भरे घड़े को अपने पैर से ठोकर मारकर उलट दे, जैसे किसी मृत व्यक्ति को (जल का अर्पण किया गया ), ( उसके सपिंड) और समानोदक एक दिन और एक रात अशुद्ध रहेंगे।

     तथापि मनु, जैसा कि निम्नलिखित नियमों से स्पष्ट है, बहिष्कृत व्यक्ति को प्रायश्चित करने पर जाति में वापस सम्मिलित होने की अनुमति देता है:

     11.186. लेकिन जब वह प्रायश्चित कर ले, वे उसके साथ किसी पवित्र सरोवर में स्नान करें और जल से भरे गए घड़े को उस जलाशय में छोड़ दें।

     11.187. लेकिन वह उस घड़े को जलाशय में छोड़ दे, अपने घर में प्रवेश करे और पहले की तरह जाति संबंधी सभी कार्यों को करे ।

     11.188. बहिष्कृत हुई स्त्रियों के साथ भी इसी नियम का पालन किया जाए, लेकिन उन्हें वस्त्र, भोजन और पानी दिया जाए और वह अपने परिवार के घर के पास रहे ।

     लेकिन यदि बहिष्कृत व्यक्ति अवमानना करता है और पश्चाताप-मुक्त नहीं है, तब मनु दंड की व्यवस्था करता है। मनु बहिष्कृत व्यक्ति को परिवार के साथ रहने की अनुमति नहीं देता। मनु निर्देश देता है:


1. जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है, 'बहिष्कृत' और 'अछूत' दो अलग-अलग संकल्पनाएं हैं।



     11.189. ...उन्हें (अर्थात् परिवार से बहिष्कृत व्यक्तियों को) वस्त्र, भोजन और पानी दिया जाए और वह (अपने परिवार के ) घर के पास रहें।

     3.92. वह (अर्थात् गृहस्थ ) कुत्तों, बहिष्कृतों, चांडालों और पिछले पाप के लिए दंड स्वरूप रोगों से ग्रसित व्यक्तियों, कौओं और कीड़ों-मकोड़ों के लिए धीरे से भूमि पर (कुछ अन्न) रखें।

     मनु कहता है कि बहिष्कृत व्यक्ति के साथ सामाजिक शिष्टाचार पाप है। वह स्नातक को चेतावनी देता है:

     4. 79. ... बहिष्कृत व्यक्ति के साथ मत रहो ।

     4.213. ...बहिष्कृत व्यक्ति के द्वारा दिए गए अन्न को मत ग्रहण करो।

     मनु गृहस्थ के लिए कहता है :

     3.151. वह (अर्थात् गृहस्थ ) श्राद्ध में न बुलाएं।

     3.157. जो व्यक्ति (पर्याप्त ) कारण बिना अपनी मां अपने पिता या गुरु को छोड़ देता है, वह जिसने बहिष्कृतों के साथ वेद अथवा विवाह के द्वारा संबंध स्थापित किया है।

     मनु आदेश देता है कि जो लोग उस व्यक्ति से संपर्क रखते हैं, उन्हें दंडित किया जाए और इस प्रकार बहिष्कृत व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाए:

     11.180. जो किसी बहिष्कृत व्यक्ति के साथ एक वर्ष तक संपर्क रखता है, यज्ञ नहीं करने, वेद नहीं पढ़ने या उसके साथ संपर्क रखने से स्वयं भी बहिष्कृत हो जाता है, क्योंकि इन कार्यों से वह अपनी जाति को तुरंत खो देता है, बल्कि उसके साथ सवारी करने या उसके स्थान पर बैठने या एक ही आसन पर साथ-साथ भोजन करने से भी (बहिष्कृत हो जाता है)।

     11.181. जो व्यक्ति किसी बहिष्कृत के साथ संपर्क करता है, उसे इस संपर्क से शुद्धि के लिए वही प्रायश्चित करना चाहिए, जो उस बहिष्कृत व्यक्ति के लिए निर्धारित है।

     इसके अलावा, जो बहिष्कृत व्यक्ति अपनी जाति की अवमानना करता है और बहिष्कृत बना रहना चाहता है, उसके लिए दंड का विधान है। मनु उसे अगले जन्म में भोगने वाले दंड का स्मरण कराता है:

     12.60. जो बहिष्कृत व्यक्ति के साथ संपर्क रखता है, वह ब्रह्मराक्षस (अर्थात् प्रेत) बनेगा।

     मनु बहिष्कृत व्यक्ति के बारे में इतने से ही संतुष्ट नहीं है। वह दंड का भी विधान करता है, जिसकी कठोरता के बारे में कोई संदेह नहीं कर सकता। बहिष्कृत व्यक्ति के लिए मनुस्मृति में निम्नलिखित दंड विधान है :

     3.150. जो ब्राह्मण...बहिष्कृत हैं... और नास्तिक हैं, वह देव-कार्य तथा पितृ-कार्य में ( भाग लेने के ) अयोग्य हैं।

     9.201. ... बहिष्कृतों को पैतृक संपत्ति में कोई भाग नहीं मिलता।

     11.184. लेकिन इसके बाद ( अर्थात् बहिष्कृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार होने के बाद, उसके साथ बात करना, उसके साथ बैठना-उठना, उसे पैतृक संपत्ति में भाग देना और अन्य सलोक व्यवहार करना वर्जित है ) ।

     11.185. और (अगर बहिष्कृत व्यक्ति ज्येष्ठ है) तब उसकी ज्येष्ठता नहीं रहती और ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अतिरिक्त भाग उसके स्थान पर छोटा भाई गुणवान होने (अर्थात् जो जाति के नियमों का अनुपालन करता है) के कारण ज्येष्ठ का अंश प्राप्त करेगा।

     बहिष्कृत व्यक्ति के संबंध में मनु के नियम यही हैं। इन दंडों की कठोरता स्पष्ट है। इनका प्रयोजन उसे सभी प्रकार के लोक व्यवहार से अलग रखना, पर्व आदि पर सभी समारोहों में उसे आमंत्रित न करना, उसे सभी प्रकार के पदों के लिए अयोग्य करना और हर प्रकार की पैतृक संपत्ति से वंचित कर देना है। इन कष्टों और दंडों के अधीन बहिष्कृत व्यक्ति मृतक के समान हो जाता होगा, जैसा कि मनु उसे समझता है, उसे तर्पण देने का निर्देश देता है, जैसे वह स्वाभाविक रूप से मर गया हो। सुख-सुविधाओं से वंचित कर देने और अवमानित करने की यह पद्धति उन व्यक्तियों पर भी लागू की गई, जो बहिष्कृतों के साथ संपर्क रखने का प्रयास करते और उनके लिए भी वैसा दंड विधान निर्धारित किया गया। यह दंड केवल बहिष्कृतों तक ही सीमित नहीं रहा, न ही यह पुरुषों तक सीमित रहा। बहिष्कृतों से संबंधित नियम पुरुषों और स्त्रियों, दोनों के लिए लागू रहे। यहां तक ये नियम उनकी संतत्ति पर भी लागू किए गए। यह नियम बहिष्कृत व्यक्ति के पुत्र पर भी लागू किया गया। जो पुत्र अपने पिता के बहिष्कृत होने से पहले पैदा हुआ हो, वह अपने पिता की संपत्ति को उत्तराधिकार के रूप में तुरंत प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता, मानो उसका पिता दिवंगत हो गया हो। जो बहिष्कृत होने के बाद पैदा होता, उसे उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं रह जाता, अर्थात् अपने पिता के साथ वह भी बहिष्कृत हो जाता।



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