पिछले अध्याय में हमने देखा कि मूलतः उपनिषद वेदों का अंग नहीं थे और सिद्धांतों की दृष्टि से दोनों परस्पर विरोधी हैं। वेदों और उपनिषदों के परवर्ती संबंधों की तुलना करना उचित होगा। उनके परवर्ती संबंधों के ज्ञान के लिए सर्वोत्तम उदाहरण दो दार्शनिक जैमिनि और बादरायण का विवाद है।
जैमिनि मीमांसा सूत्रों के रचयिता हैं जबकि बादरायण ब्रह्मसूत्र के सृष्टा; जैमिनि वेदों की श्रेष्ठता के पक्षधर हैं जबकि बादरायण उपनिषदों के।
विवाद का बिंदु था- क्या बलि देना आवश्यक है? वेद कहते हैं "हां" और उपनिषद कहते हैं "नहीं"।
बादरायण ने जैमिनि की स्थिति अपने सूत्र 2-7 में स्पष्ट की है और शंकराचार्य ने उसका भाष्य किया है।
जैमिनि कहते हैं¹ :
कोई उस समय तक बलि नहीं देता जब तक कि उसे इस बात का ज्ञान न हो कि वह शरीर से भिन्न है और मृत्यु उपरांत वह स्वर्ग जाएगा, जहां उसे बलि का फल प्राप्त होगा। आत्मज्ञान संबंधी ज्ञान किसी का मार्गदर्शन मात्र है। इस प्रकार बलि का उस पर प्रभुत्व है।
संक्षेप में जैमिनि का मत है कि वेदांत का कथन है कि आत्मा देह से भिन्न है और वह देह से अधिक काल तक अस्तित्व में रहती है। ऐसा ज्ञान पर्याप्त नहीं है । आत्मा की मनोरथ स्वर्ग प्राप्ति हो सकता है। किन्तु वह स्वर्गारूढ़ नहीं हो सकती जब
1. देखें, बादरायण सूत्र 2 और इस पर शंकर की टिप्पणी ।
इस अध्याय में इसका शीर्षक 'जैमिनी वसेंस बादरायण' था जो बाद में रेखांकित किया गया। यह नौ पृष्ठों की टकित पाण्डुलिपि है। इसके पहले दो पृष्ठ लेखक ने स्वयं संशोधित किए हैं।- संपादक
तक कि वैदिक यज्ञ न किया जाए। यहीं उसके कर्मकांड का मूलमंत्र है। इस प्रकार उनका कर्मकाण्ड ही मुक्ति मार्ग है और इस प्रकार ज्ञान कांड निरर्थक है। इसलिए जैमिनि उन लोगों के विरुद्ध है जो वेदांत¹ में आस्था रखते हैं।
विदेह के राजा जनक ने यज्ञ किया जिसमें उदारता पूर्वक दक्षिणा दी गई (बृह. 3.1.1.)। महोदय, मैं बलि दे रहा हूं ( छांदो. 5.11.5) जनक और अश्वपति दोनों ही आत्मज्ञानी थे। यदि वे दोनों ही आत्मज्ञानी थे तो वे मुक्ति पा चुके थे फिर यज्ञ करने की आवश्यकता ही नहीं थी। परन्तु दोनों प्रसंगों में कहा गया है कि उन्होंने यज्ञ किया। इससे प्रमाणित होता है कि मुक्ति तभी मिल सकती है जब यज्ञ किया जाए न कि आत्मज्ञान से, जैसा कि वैदांतिक कहते हैं।
जैमिनि ने एक रचनात्मक बात कही² है कि शास्त्रों में निरापद कथन है कि 'आत्मज्ञान यज्ञ की अपेक्षा गौण है।" जैमिनि इसे उचित³ बताते हैं क्योंकि उनका मत है कि दोनों (ज्ञान और कर्म ) समानांतर चलते हैं। ( मृत आत्मा को फल देने हेतु) जैमिनि बादरायण के ज्ञानकांड को स्वतंत्र साधन नहीं मानते। वे इसके दो आधार बताते हैं।
प्रथम⁴ - 'आत्मज्ञान स्वतः कोई फलदायक नहीं।'
द्वितीय⁵ - “वेदों की सत्ता के अनुसार ज्ञान, कर्म की अपेक्षा गौण है । "
जैमिनि और उनके कर्मकांड पर बादरायण की क्या स्थिति है।' इसका उल्लेख बादरायण ने अपने सूत्रों 8 से 17 में किया है।
पहला मत⁶ यह है कि जैमिनि ने जिस "आत्मा" का जिक्र किया है, वह सीमित आत्मा है अर्थात् आत्मा और परमेश्वर भिन्न है और शास्त्रों में "परमेश्वर को मान्यता है । "
बादरायण का दूसरा मत है⁷ कि वेद आत्मज्ञान और यज्ञ दोनों के पक्षधर हैं।
बादरायण का तृतीय विचार है⁸ कि यज्ञ वही कर सकते हैं, जिन्हें वेदों में आस्था है। परन्तु जो उपनिषदों के अनुगामी हैं, उन पर यह निर्देश लागू नहीं, जैसी कि शंकराचार्य ने व्याख्या की है:
1. देखें, बादरायण सूत्र 3 और शंकर की इस पर टिप्पणी ।
2. देखें, बादरायण सूत्र 4
3. देखें, बादरायण सूत्र 5
4. देखें, बादरायण सूत्र 6
5. देखें, बादरायण सूत्र 7
6. देखें, बादरायण सूत्र 8
7. देखें, बादरायण सूत्र 9
8. देखें, बादरायण सूत्र 12
जिन्होंने वेद पढ़े हैं और कर्मकाण्ड के ज्ञाता हैं, वही यज्ञ करा सकते हैं। उनके लिए यज्ञ कराना निषिद्ध है जिन्होंने उपनिषदों से आत्मज्ञान अर्जित किया है। ऐसे ज्ञान की कर्मकाण्ड से कोई तुलना नहीं ।
बादरायण का चौथा¹ मत है कि जिन्हें ब्रह्मनंद प्राप्त है उनके लिए कर्मकाण्ड वैकल्पिक है। जैसा कि शंकराचार्य ने स्पष्ट किया है:
कुछ लोगों ने स्वतः ही कर्मकाण्ड का त्याग कर दिया है। बात यह है ज्ञान प्राप्ति के उपरांत कुछ लोग दूसरों के सन्मुख उदाहरण प्रस्तुत करने हेतु कर्मकाण्ड करना पसंद करते हैं जबकि कुछ उसका परित्याग कर देते हैं। जो आत्मज्ञानी होते हैं, उनके लिए कर्मकाण्ड की बाध्यता नहीं होती ।
उनकी अंतिम² और निर्णायक स्थिति इस प्रकार है:
'आत्मज्ञान कर्मकाण्ड का प्रतिरोधी है इसलिए वह कर्मकाण्ड का साधन नहीं है," और इसके समर्थन में वे उन शास्त्रों का सहारा³ लेते हैं जो संन्यास को चौथा आश्रम मानते हैं और संन्यासियों को कर्मकाण्ड द्वारा नियत यज्ञ से मुक्त रखते हैं।
"बादरायण के सूत्रों में अनेक ऐसे हैं जो दोनों परम्पराओं के विद्वानों के परस्पर विरोधी विचारों को परिलक्षित करते हैं। परन्तु उपरोक्त में से एक ही पर्याप्त है, जिसकी अपनी विशेषता है। यदि कोई इस विषय की उपेक्षा कर दे तो स्थिति भिन्न हो जाती है। जैमिनि ने वेदांत को मिथ्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर निंदा की है और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है। इस लांछन के विरुद्ध बादरायण ने क्या किया? क्या उन्होंने जैमिनि के कर्मकाण्ड को मिध्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर उनकी निंदा की है, और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है? नहीं! उन्होंने मात्र अपने वेदांत शास्त्रों का औचित्य ठहराया है। परन्तु उनसे और अधिक अपेक्षा थी। हम अपेक्षा कर सकते थे कि बादरायण भी जैमिनि के कर्मकाण्ड को मिथ्याधर्म कहेंगे। बादरायण में साहस नहीं है। इसके विपरीत उनका व्यवहार बगलें झांकने जैसा है। वे स्वीकार कर लेते हैं कि जैमिनि का कर्मकाण्ड शास्त्रों पर आधारित है और शास्त्र - प्रामाणिक तथा पवित्र हैं, जिनका खण्डन नहीं किया जा सकता ।
1. देखें, बादरायण सूत्र 15
2. देखें, बादरायण सूत्र 16
3. देखें, बादरायण सूत्र 17
इसी में इतिश्री नहीं है। बादरायण ने यह किया कि उन्होंने कहा कि उपनिषद के दो भाव हैं। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उपनिषद वैदिक साहित्य का अंग है। उनका कथन है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, वेदांत अथवा ज्ञानमार्ग वेदों के कर्मकांड के विरुद्ध नहीं है। दरअसल बादरायण के वेदांत सूत्र का यही स्वरूप है।
बादरायण का यह सिद्धांत उपनिषदों के अभिप्राय और वेद तथा उपनिषदों की संबद्ध स्थिति से भिन्न है। जब वे अपने सूत्र में कहते हैं कि उपनिषद वेदों के अंग हैं और दोनों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, बादरायण का व्यवहार समझ में नहीं आता । किन्तु यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे दिग्भ्रमित हैं और अपने विरोधी के समक्ष उनकी स्थिति दयनीय है जो अपने विपक्षी की वैधता स्वीकार करते हुए, उसके आगे घुटने टेक देते हैं। वेदों के संशय-रहित होने पर जो उपनिषदों के विरुद्ध हैं बादरायण जैमिनि के आगे झुक जाते हैं। वह सत्य के सम्मुख टिके क्यों नहीं रहते, पूर्ण सत्य, सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं जैसा कि उपनिषदों ने दिग्दर्शित किया ? बादरायण ने अपने वेदांत सूत्रों में उपनिषदों के साथ विश्वासघात किया। उन्होंने ऐसा क्यों किया ?