शतपत ब्राह्मण के समय से चुल्ल निदेश तक प्रतिस्थापित तुलनात्मक स्थिति निम्नांकित थी:
1. प्रथम, यह कि चुल्ल निदेश के समय अग्नि, सूर्य और इन्द्र की उपासना जारी थी। 2. दूसरे यह कि अग्नि, सूर्य और इन्द्र की उपासना यद्यपि जारी थी कन्तु उनकी श्रेष्ठता लुप्त हो गई थी; वैसे काफी अन्य उपासनाएं होने लगीं और लोग उनकी ओर आकर्षित हुए। 3. तीसरे, नई पूजा परम्पराओं में काफी बाद में दो बहुत प्रमुख हुईं, वह हैं वासुदेव कृष्ण और ब्रह्मा । 4. चौथे, विष्णु, शिव और राम अज्ञात थे।
चुल्ल निदेश के बाद अब स्थिति क्या है ? इस समय तीन प्रतिस्थापनाएं हैं। प्रथम, अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा की पूजा लुप्त हो गई, द्वितीय कृष्ण की स्थिति पूर्ववत रही; तृतीय; विष्णु, शिव और राम की नई पूजा- परम्पराएं शुरू हुईं जो चुल्ल निदेश तक विद्यमान थीं। इससे तीन प्रश्न उभरकर आते हैं: प्रथम यह है कि अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा और सूर्य की पुरानी पूजा-परम्पराएं क्यों लुप्त हो गई? इन देवों की पूजा क्यों बंद कर दी गई ? दूसरा प्रश्न यह है कि कृष्ण, राम, शिव और विष्णु की नई पूजा-प्रवृतियों में किन परिस्थितियों में वृद्धि हुई। तीसरा यह कि इन नए देवताओं कृष्ण, राम, शिव और विष्णु में तारतम्य क्या है ?
पहले प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता। ब्राह्मण साहित्य कोई संकेत नहीं देता कि ब्राह्मणों ने अग्नि, इन्द्र, सूर्य और ब्रह्मा की उपासना क्यों बंद कर दी। इसका तो कुछ स्पष्टीकरण है भी कि ब्रह्मा की उपासना क्यों बंद हुई। इसका कारण ब्राह्मणों के साहित्य में ब्रह्मा के माथे पर लगाया गया कलंक है। लांछन है कि उन्होंने अपनी पुत्री के साथ बलात्कार किया, इसलिए उन्हें पूजा और भक्ति का पात्र नहीं रहने दिया गया। इस कलंक में कितनी भी सच्चाई रही हो परन्तु दो कारणों से ब्रह्मा का पूजा - निषेध पर्याप्त तर्क नहीं है। पहले तो यह क उस समय ऐसा आचरण कोई अनहोनी बात नहीं थी। दूसरा कारण यह है कि कृष्ण ने ब्रह्मा की अपेक्षा इससे भी बड़ी अनैतिकताएं कीं किन्तु उनकी उपासना होती है।
चलिए, ब्रह्मा की पूजा - निषेध का तो अनुमान लगाया जा सकता है, किन्तु अन्य देवों की उपासना बंद हो जाने का तो कोई कारण ही नहीं मिलता। अग्नि, इन्द्र, सूर्य और ब्रह्मा की पूजा अप्रचलित होना इस प्रकार एक रहस्य है। यहां इस रहस्य की गुत्थी को सुलझाने का अवसर नहीं है। इतना कहना ही पर्याप्त है कि हिंदुओं के देवताओं को देवत्व छिन जाना एक अनहोनी बात है।
दूसरा प्रश्न भी रहस्य की बात है। नए देवों कृष्ण, विष्णु, शिव और राम की उपासना का महत्व ब्राह्मणों के साहित्य में ने केवल भरा पड़ा है अपितु उत्ताल तरंगें भर रहा है। परन्तु उनके साहित्य में नए देवों के उदय का कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता। यह रहत्य ही है कि ये नए देवता कहां से आ धमके ? उस समय रहस्य और गहरा जाता है जब हम पाते हैं कि इनमें से कुछ तो निश्चय ही वेदद्रोही हैं।
हम शिव की बात लेते हैं कि शिव मूल रूप से वेदद्रोही देवता थे, यह बिल्कुल स्पष्ट है। भागवत पुराण में दो प्रसंग हैं और महाभारत में भी, जो इस विषय पर प्रकाश डालते हैं। पहले प्रसंग से पता चलता है कि उनमें और उनके श्वसुर दक्ष में कैसी शत्रुता उपजी। ऐसा लगता है कि प्रजापतियों के यज्ञ में देवता और ऋषि एकत्र हुए। दक्ष के आने पर ब्रह्मा और शिव को छोड़कर सभी उपस्थित जन उनके अभिवादन में खड़े हो गए। दक्ष ब्रह्मा को प्रणाम करके उनके कहने पर बैठ गए, परन्तु वह शिव के व्यवहार पर क्षुब्ध थे। उन्होंने शिव¹ से कहा:
"शिव को पहले बैठा देखकर दक्ष सम्मान का लोभ संवरण न कर सके और उन पर इस प्रकार तिरछी नजर डाली जैसे उन्हें खा ही जाएंगे। फिर बोले "हे ब्राह्मणों, ऋषियों, देवताओं सहित अग्नि, सुनो! मैं अनजाने में नहीं, न भावावेश ही में आकर यह बता रहा हूं कि एक गुणी व्यक्ति के क्या लक्षण हैं। परंतु यह निर्लज्ज शिव विश्वनियंता की अवमानना करता है। यह कितना हठधर्मी है। इसने शिष्टाचार का उल्लंघन किया है। इसने गुणवान व्यक्तियों की भांति मेरे शिष्य की स्थिति प्राप्त कर ली। ब्राह्मणों और अग्न की साक्षी में इसने मेरी सावित्री जैसी पुत्री का पाणिग्रहण किया। इस बन्दर जैसी आंखों वाले ने मेरी मृगनयनी पुत्री को प्राप्त किया। उसने मेरे अभिवादन में एक शब्द भी नहीं बोला जबकि इसे अभिवादन के लिए उठना चाहिए था। मैंने अनमने होकर ही सही, अपनी पुत्री इस क्षुद्र और दंभी को सौंप दी जिसने कुसंस्कारों की सारी सीमाएं तोड़ रखी हैं। जैसे 'यह शूद्रों को वेद मंत्र सुनाता है। यह श्मशानों में घूमता है। भूत-पिशाचों के बीच रहता है। पागलों जैसा नंगा, बाल बिखेरे, हंसता- रोता फिरता है, श्मशान की राख शरीर पर मलता है, नरमुण्ड पहनता है। मानव की हड्डियों के आभूषण पहनता है। बनता शिव (शुभ) है परन्तु सच में अशिव (अशुभ) है, पागल ही इसके संगी-साथी हैं, भूत इसके मित्र हैं, जो अंधकार- प्रिय हैं। काश! मैंने अपनी गुणवंती पुत्री ब्रह्मा के कहने में आकर ऐसे क्रोधोन्मत्तों के दुष्टात्मा स्वामी को, जिनकी शुद्धता नष्ट हो चुकी है, न दी होती । शिव को ऐसे दुर्वचन बोल कर, जिसका उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, दक्ष ने उन्हें चिढ़ाया और जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देना आरम्भ किया: "यह शिव सभी देवी-देवताओं में निकृष्ट हो। इसे देवताओं की पूजा के समय इन्द्र, उपेन्द्र (विष्णु) और अन्य देवों के समान स्थान प्राप्त न हो" अपना श्राप देकर दक्ष चले गए।
1. भागवत पुराण अध्याय 4, पृ. 379-80
श्वसुर - दामाद के बीच वैमनस्य जारी रहा। ब्रह्मा ने दक्ष को प्रजापतयों के प्रमुख का पद प्रदान किया तो उन्होंने बृहस्पतिस्व यज्ञ करने की ठानी। जब पार्वती ने देखा कि सभी देव सपत्नीक यज्ञ में जा रहे हैं जो पार्वती ने शिव से उनके साथ चलने की जिद की। उनके पिता ने शिव का जो अपमान किया था, उन्होंने पार्वती को उसकी याद दिलायी और यज्ञ में जाने से मना किया। परन्तु वह अपने संबंधियों से मिलने को आतुर थीं। उसने सब बातों की अवहेलना कर दी और चली गयी। जब उन्होंने अपने पिता दक्ष को देखा तो अपने पति को अपमानित करने पर पिता की भर्त्सना की और यह धमकी दी कि उन्हें अपने माता-पता से जो देह प्राप्त हुई है, उसे वे अग्नि को समर्पित कर देगी। फिर वे अग्नि में कूद पड़ीं। शिव के जो गण पार्वती के साथ गए थे, जब उन्होंने यह देखा तो वे दक्ष का वध करने का लपके। परन्तु भृगु ने यजुस का मंत्रोपचार कर दक्षिणाग्नि की आहुति दी, जो यज्ञ में बाधा डालने वालों को नष्ट करने के लिए दी जाती है। परिणामस्वरूप ऋभु नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गए। उन्होंने अपनी तपस्या के प्रताप से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़यों से आक्रमण किया तो समस्त यज्ञ विघ्नकर्त्ता भाग लिए । ऋभुओं ने उनके पार्षदों को भगा दिया। जब शिव ने देवी सती के प्राण त्याग की बात सुनी तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ । उन्होंने अपने सिर की जटाओं में से क्रोधित होकर केशों का एक गुच्छा उखाड़ा जिसमें से एक विकराल राक्षस प्रकट हुआ, जस दक्ष और उसके यज्ञ को खत्म करने का आदेश दिया। यह राक्षस शिव के अनुयायी विकराल भूत-प्रेत और पिशाचगणों को लेकर उनकी (शिव की आज्ञा को शिरोधार्य करके यज्ञ मंडप की ओर दौड़ा। उन्होंने यज्ञ मंडप में क्या कुहराम मचाया और शिव- आदेश का किस प्रकार अनुपालन किया, इसका भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है¹:
"कुछ ने यज्ञशाला के पवित्र यज्ञ - पात्रों को तोड़ डाला, कुछ ने हवनकुंड की अग्नि बुझा दी, कुछ ने यज्ञकुंडों को मूत्र से दूषित कर दिया, किसी ने यजमान गृह ही सीमाओं को रौंद डाला, कुछ ने मुनियों को तंग किया, किसी ने ऋषि पत्नियों को डराया धमकाया। किसी ने भयभीत देवताओं को धर दबोचा जो निकट ही विराजमान थे, कुछ भाग खड़े हुए....। भवदेव (शिव) ने भृगु की दाढ़ी नौंच ली जो हाथ में यज्ञ की करछुल लिए हवन कर रहे थे और जिन्होंने प्रजापतियों की सभा में उनका (महादेव) उपहास किया था। क्रोध के वशीभूत उन्होंने भृगु देवता को पृथ्वी पर पटक दिया जिसके कारण उसकी आंखें बाहर निकल आईं क्योंकि जब दक्ष देव सभा में शिव को शाप दे रहे थे, तब उन्होंने (भृगु) ने दक्ष को आंखों के इशारे से उकसाया था। इसके पश्चात् उन्होंने पूषा के दांत तोड़ डाले ठीक उसी प्रकार जैसे बलि ने कलिंग राज के किए थे क्योंकि जब दक्ष महादेव जी को अपमानित करते हुए गालियां बक रहे थे तो पूषा दांत निपोड कर हंस रहा था। फिर वे दक्ष की छाती पर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे। परन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वे उस समय उसे धड़ से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से दक्ष की त्वचा नहीं कटी तो त्र्यम्यक (वीरभद्र अथवा शिव) को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देर तक विचार करते रहे। फिर उन्होंने यज्ञ मंडप में यज्ञ पशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसी प्रकार दक्ष रूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। देवताओं ने सारी घटना स्वयंभू को बतायी जो वहां विष्णु के साथ उपस्थित नहीं थे। (स्कंध 6)। ब्रह्मा ने देवताओं से परामर्श किया कि शिव को शांत किया जाए जिन्हें गलत ढंग से यज्ञ के हव्य से वंचित कर दिया गया था। तदनंतर ब्रह्मा के नेतृत्व में देवता कैलाश की ओर चले। ब्रह्मा जी ने शिव से कहा कि मैं जानता हूं आप सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं क्योंकि विश्व योनि शक्ति और उसके बीज से परे जो एक रस ब्रह्म है, वह आप ही हैं। ब्रह्मा ने कहा कि आप ही सम्पूर्ण यज्ञ को पूर्ण कराने वाले हैं। यज्ञ में हिस्सा पाने का आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्ष यज्ञ में बुद्धिहीन याचकों ने आपको यज्ञ में भाग नहीं लेने दिया, इसी से यह आपके द्वारा ध्वस्त हुआ। अब आप इस यज्ञ का पुनरुद्धार करने की कृपा करें। हे यज्ञ विध्वंसक! आज यह यज्ञ आपके द्वारा पूर्ण हो। इसके बाद (अध्याय 7) के अनुसार महादेव संतुष्ट हो गए" ।
1. म्यूर द्वारा उद्धृत, खंड 4, पृ. 383-84
दक्ष का यज्ञ भंग करने की घटना से बढ़कर और कोई प्रयास नहीं हो सकता कि शिव वैदिक देवों के द्रोही थे।