कालांतर में वैदिक निर्देशों के विपरीत सती प्रथा शुरू हुई। वेद आत्महनन के विरोध में है । फिर अपरार्क ने तर्क दिया है कि श्रुति के साथ भिन्नता होने से यह प्रथा अवैध नहीं हो जाती क्योंकि श्रुति में एक सामान्य सिद्धांत के रूप में आत्महत्या का निषेध किया गया है। जबकि स्मृति में विधवा के संबंध में इसके अपवादी की व्यवस्था की है।
सती प्रथा और दत्तक प्रथा ठीक है अथवा नहीं। यह एक भिन्न प्रश्न है। समाज ने किसी भी प्रकार उन्हें स्वीकार कर लिया। स्मृतियों ने उन्हें सैद्धांतिक मान्यता दे दी और वेदों की सत्ता के विरुद्ध मान्यता देने के लिए कहा।
प्रश्न यह है कि वेदों की श्रेष्ठता के लिए इतने दिन तक संघर्ष कर के वेदों का स्थान गिरा कर स्मृतियों को क्यों वेदों के ऊपर शिरोधार्य किया गया? उन्होंने वेदों को देवों से भी अधिक मान्यता दी फिर उन्हें घसीटकर स्मृतियों से भी नीचे क्यों डाल दिया जबकि स्मृतियों को मात्र सामाजिक मान्यता प्राप्त थी?
उन्होंने जो उपाय किए, वे इतने विदग्ध और कृत्रिम थे कि हमें संशय हो सकता है कि कोई निश्चित इरादा अवश्य होगा कि स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ माना जाने लगा।
यह स्पष्ट करने के लिए कि उनके तर्क कितने कृत्रिम, भ्रामक, और कुंठित थे, यह उचित होगा कि उनका संक्षिप्त विवरण दिया जाए।
एक कृत्रिम तर्क का उदाहरण सामने आता है जब हम बृहस्पति के कथन पर विचार करते हैं। उनके अनुसार श्रुति और स्मृति ब्राह्मण की दो आंखें हैं। यदि उनमें से एक फूट जाएगी तो वह एकाक्षी रह जाएगा।
एक कुतर्क के रूप में कुमारिल भट्ट की दलील पर भी विचार किया जा सकता है। उनका तर्क अनुपलब्ध श्रुति के सिद्धांत पर आधारित है। स्मृतियों के नाम पर यह कहा गया कि उनके मत को रद्द नहीं किया जा सकता चाहे वह श्रुति के प्रतिकूल भी क्यों न हों? क्योंकि हो सकता है कि वास्तविक रूप में यह विद्यमान श्रुति एवं अनुपलब्ध श्रुति के बीच तारतम्य हो। इस प्रकार स्मृति को अनुपलब्ध श्रुति बना दिया गया।
ब्राह्मणों ने स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ भी नहीं तो उनके समान स्थान देते हेतु एक तीसरा उपाय खोजा । यह अत्रि स्म ति में प्राप्य है। अत्रि का कहना है कि जो स्मृतियों की सत्ता स्वीकार नहीं करते, वे शाप के भागी हो सकते हैं। अत्रि का सिद्धांत है कि ब्राह्मण श्रुति और स्मृति के संयुक्त अध्ययन की परिणति है। यदि कोई व्यक्ति मात्र वेदों का पाठ करता है और स्मृति की अवमानना करता है तो उसे तत्काल यह शाप दिया जा सकता है कि वह 21 योनियों तक वन्य जंतु बने ।
ब्राह्मणों ने स्मृतियों को श्रुति के समान रखने के ऐसे उपाय क्यों किए? उनका उद्देश्य क्या था? उनका अभिप्राय क्या था ?
प्रोफेसर अल्तेकर का कहना है कि स्मृतियों को वेदों की अपेक्षा उच्चता इस कारण दी गई है कि कालांतर में स्थापित परम्पराओं को विधि-विधान के रूप में वैधता के औचित्य को चुनौती दी जा सकती थी । यदि यही बात थी तो वैदिक काल में भी विधि-विधान थे, प्रथाएं बाद में पड़ीं और यदि दोनों के बीच कोई भिन्नता हो तो इस तर्क को समझा जा सके कि स्मृतियों के प्रगतिशील सिद्धांतों को मान्यता इस कारण दी गई कि उनमें टकराव दूर कर दिया गया था। बात ऐसी नहीं है। वेदों में विधि-विधान नहीं है। प्रोफेसर काणे का मत है:
"सभी कानून प्रथाओं के रूप में थे और प्रथाओं को मान्यता प्रदान करना आवश्यक नहीं था क्योंकि वे नागरिकों द्वारा मान्यता प्राप्त थे। दूसरे, स्मृतियों को वेदों की अपेक्षा प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता । चातुर्वर्ण्य के सिवाय जिनके विषय में सर्वविदित है कि पूजा अर्चना छोड़कर समाज में विकास के सभी द्वार खुले थे। स्मृतियों ने वेदों के अप्रगतिशील तत्वों जैसे चातुर्वर्ण्य सिद्धांत को ले लिया तथा उसका जमकर प्रचार किया और उन व्यवस्थाओं को समाज के एक वर्ग के मत्थे मढ़ दिया ।
इसी प्रकार कुछ और कारण भी हो सकते हैं, जिनके आधार पर ब्राह्मणों ने वेदों की अपेक्षा स्मृतियों को अधिक सम्मान दिया ।"
ब्राह्मणों को अपनी पहली कलाकारी से संतोष न हुआ। उन्होंने एक चाल और चली।
कालांतर में स्मृतियों के पश्चात् पुराण आए। वे कुल मिलाकर 36 हैं। इसमें 18 पुराण और उतने ही उप-पुराण हैं। एक प्रकार से तो सभी पुराणों की विषय - सामग्री समान है। उनका कथ्य, विश्व की सृष्टि, पालन और संहार है । परन्तु अन्य विषयों में
उनकी सामग्री नितांत भिन्न है । कुछ ब्रह्मा के उपासक हैं, कुछ शिव के और कुछ विष्णु के; कुछ में वायु की अग्नि की और सूर्य की उपासना है तथा कुछ में अन्य देवी-देवताओं का गुणगान है।
यह बताया जा चुका है कि एक समय था जब पुराण श्रुति नहीं थे। किन्तु तदुपरांत एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। पुराणों को जिन्हें श्रुति से अलग रखने का कारण उनकी नितांत लौकिकता बताया गया था, अब वे वेदों से भी श्रेष्ठ हो गए।
वायु पुराण कहता है :¹
सर्वप्रथम सभी शास्त्र, पुराण ब्रह्मा के मुख से प्रस्फुटित हुए। तदुपरांत वेद ।
मत्स्य पुराण वेदों से केवल पूर्ववर्ती होना ही घोषित नहीं करता बल्कि वह उनकी अनंतता के गुणों और नाद के साथ पहचान को भी श्रेष्ठ मानता है। पहले केवल वेदों को इन गुणों से सम्पन्न बताया जाता था।
वह कहता है :²
सर्वप्रथम अविनाशी पितामह (ब्रह्म) उत्पन्न हुए, फिर वेद । उसके अंगोपांग तथा उनके पाठ के विभिन्न साधन जन्में और प्रकट हुए। ब्रह्मा ने जिन शास्त्रों को जन्म दिया उनमें सैकड़ों कोटि-कोटि मंत्रों वाले सनातन, नाद-जनित शुद्ध शास्त्र, पुराण प्रथम थे फिर उनके मुख से वेदों का उद्गम हुआ, तभी मीमांसा और न्याय और अष्ट प्रमाण सिद्धांत जन्मे ।
भागवत पुराण वेदों के समान प्रामाणिकता का दावा करता है। ³
वह कहता है: ब्रह्मार्त का निर्णय है कि पुराण भागवत कहलाता है जो वेदों के समान है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण ने साधिकार दावा किया है कि वह वेदों से श्रेष्ठ है। वह कहता है : ⁴
जिस श्रद्धेय ऋषि के विषय में आपने प्रश्न किया है और जो आपकी इच्छा है वह मुझे ज्ञात है। वह है पुराणों का सार अति विख्यात ब्रह्म वैवर्त पुराण जो समस्त पुराणों, उप-पुराणों और वेदों की त्रुटियों का परिष्कार करता है। ब्राह्मणों की यह दूसरी पहेली है जिसके अनुसार उन्होंने अपने पवित्र ग्रंथों को प्राथमिकता, प्रमुखता और प्रामाणिकता दी ।
वेदों के पतन की कथा यहीं समाप्त नहीं होती। पुराणों के बाद साहित्य का एक अन्य रूप उभरकर आया तंत्र⁵ । इनकी संख्या काफी दुर्जेय है। शंकराचार्य ने 64 तंत्र गिनाए हैं। इनके अतिरिक्त भी बहुत से होंगे।
1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ. 27
2. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, पृ. 28
3. और 3. म्यूर ने उद्धृत किया है, खंड 3
5. स्मृत धर्म और तांत्रिक धर्म पर और विचार के लिए इस भाग का परिशिष्ट 4 और 5 देखें।
इस साहित्य का रचयिता दत्तात्रेय को बताया गया है जो हिंदू त्रिमूर्ति के अवतार कहे जाते हैं। अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और शिव । उन्हें इस प्रकार तीन सर्वोच्च देवों के समान ज्ञान का संगम कहा गया है। किन्तु वे मात्र शिव पर निर्भर हैं जिन्होंने अपनी भार्या दुर्गा अथवा काली को वे रहस्यात्मक सिद्धांत और अनुभव बताए जो उनके भक्तों को ज्ञात होने चाहिए, और जिनका उन्हें अनुशीलन करना चाहिए। कहा गया है कि यह प्रामाणिक अथवा उच्च परम्परा उनके केन्द्रीय अर्थात् पंचम मुख से प्रकट हुई। क्योंकि यह परम पावन और गुह्य ज्ञान है, इसलिए यह अदीक्षितों के समक्ष प्रकट नहीं होना चाहिए। इन्हें अगम कहा गया है। इस प्रकार वे वेदों के ज्ञान निगम धर्मशास्त्रों और अन्य ग्रंथों से भिन्न हैं।
तंत्र विशेष रूप से शाक्तों और उनके विभिन्न संप्रदायों के धार्मिक ग्रंथ हैं। तांत्रिकों की कई शाखाएं हैं जो अपनी भिन्न-भिन्न परम्पराओं को मानते हैं और उनके अंतरंग अनुयाइयों के अतिरिक्त अन्य की समझ के बाहर हैं। तांत्रिकों और दक्षिणाचारियों के कर्मकांड शुद्ध और वेदानुकुल बताए गए हैं, जबकि वामांचारियों को केवल शूद्रों के लिए बताया गया है।
तंत्रों के उपदेश पुराणों की तरह भक्तिमार्ग पर आधारित और उपनिषदों एवं ब्राह्मणों के कर्ममार्ग तथा ज्ञानमार्ग से श्रेष्ठ कहे जाते हैं। इनमें एक देव की आराधना का निर्देश दिया गया है। विशेष रूप से शिव भार्या का, जो जगतजननी कही गई है। इन सभी रचनाओं में नारी गुणों को साकार मानकर प्रमुखता दी गई है। पुरुषों की प्रायः उपेक्षा की गई है।
वेदों और तंत्रों में क्या संबंध है? मनुस्मृति के विख्यात भाष्यकार कुल्लूक भट्ट को यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि श्रुति के दो अंग हैं, वेद और तंत्र। इसका अर्थ हुआ वेद और तंत्र का समान स्तर है। कुल्लूक भट्ट की तरह वैदिक ब्राह्मणों ने वेदों और तंत्रों को समान माना है बल्कि तंत्र लेखक तो चार कदम आगे हैं। उनका दावा है कि वेद शास्त्र और पुराण एक सामान्य नारी के समान है, जबकि तंत्र एक कुलीन नारी की भांति है। इसका आशय यही है कि तंत्र वेदों से श्रेष्ठ हैं।
इस सर्वेक्षण से एक तथ्य स्पष्ट है कि ब्राह्मणों को अपने धार्मिक साहित्य में कभी अटल विश्वास नहीं रहा। उन्होंने यह बताने के लिए संघर्ष किया कि वेद केवल पवित्र ग्रंथ ही नहीं बल्कि संशय-रहित हैं। यही नहीं कि उन्होंने कहा है कि वेद संशय-रहित हैं अपितु उन्होंने इस संबंध में मनगढ़ंत सिद्धांत और तर्क प्रस्तुत किए। इसके बाद वेदों को पहले उन्होंने स्मृतियों से हीन बताया फिर पुराणों से और अन्ततोगत्वा तंत्र से भी निचले गर्त में डाल दिया। यह यक्ष प्रश्न है कि आखिर ब्राह्मणों ने अपने पवित्रतम ग्रंथ वेदों की यह दुर्दशा क्यों बनाई कि वे स्मृतियों, पुराणों और तंत्र तक से तुच्छ हो गए ।