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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग १७ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

सातवीं पहेली

समय परिवर्तन या ब्राह्मण यह कैसे घोषित करते हैं कि वेद उनके सभी शास्त्रों से तुच्छ हैं ?

I

    हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में, 1. वेद, 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक, 4. उपनिषद्, 5. सूत्र, 6. इतिहास, 7. स्मृत और 8 पुराण शामिल हैं।

    जैसा कि कहा गया है, एक समय उनका महत्व एक समान था। उनके बीच श्रेष्ठता अथवा हीनता, पवित्रता अथवा लौकिकता, संशय अथवा संशय हीनता का कोई भेद नहीं था।

Hindu Dharm Ki Paheliyan - vedon ka Daman - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar    बाद में, जैसा कि हमने कहा है, वैदिक ब्राह्मणों ने सोचा कि वेदों और दूसरे धार्मिक साहित्य में अंतर होना चाहिए। उन्होंने वेदों को न केवल अन्य साहित्य से श्रेष्ठ घोषित कर दिया, अपितु उन्हें पावन और अमोघ भी बना दिया। वेदों को संशय रहित स्थापित करने के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने पवित्र ग्रंथों को दो वर्गों में विभाजित कर दिया। 1. श्रुति और 2 अश्रुति । प्रथम विभाजन में उन्होंने आठ अंगों में से केवल दो को श्रेष्ठ रखा। 1. संहिता और 2. ब्राह्मण शेष को उन्होंने अश्रुति घोषित कर दिया।

II

    यह बताना संभव नहीं कि यह अंतर सर्वप्रथम कब उत्पन्न हुआ। परन्तु यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है कि किस आधार पर यह भेद किया गया। इतिहास और पुराणों को क्यों छोड़ दिया गया? आरण्यक और उपनिषद् क्यों छांट दिए गए ? सूत्रों को क्यों छोड़ दिया गया? यह तो समझा जा सकता है कि इतिहास और पुराणों को श्रुति से क्यों वंचित किया गया। जिस समय यह भेद किया गया, तब ये इतने आरंभिक और अविकसित थे कि उन्हें शायद ब्राह्मणों में सम्मिलित कर लिया गया। साथ ही यह बात भी समझ में आती है कि आरण्यकों का श्रुति के अंग के रूप में उल्लेख करना अनावश्यक था कि ये श्रुति का अंग है। उपनिषद् और सूत्रों का प्रश्न एक पहेली बना हुआ है। इन्हें श्रुति से अलग क्यों रखा गया? उपनिषदों के प्रश्न पर एक अन्य अध्याय में अलग से विचार किया गया है। यहां तो सूत्रों के बारे में विचार करना है क्योंकि सूत्रों को समाहित न करने का पार पाना कठिन है। यदि यह बात तर्कसम्मत है कि ब्राह्मणों को श्रुति में सम्मिलित किया जाना चाहिए तो उसी कसौटी पर यह बात खरी नहीं उतरती कि सूत्रों को शामिल क्यों न किया जाए, जैसा कि प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं:


अंग्रेजी में यह 21 पृष्ठीय टाइप की हुई पाण्डुलिपि थी जिसका मूल शीर्षक "वेदों का दमन" है जिसमें लेखक ने त्रुटियों को स्वयं ठीक किया था। यह अध्याय पूर्ण है क्योंकि लेखक ने अंतिम पैरा अपने हाथ से सही किया था -  संपादक


    "हम इस बात को समझ सकते हैं कि किस प्रकार कोई देश अपनी राष्ट्रीय काव्य रचना का श्रेय किसी अलौकिक पुरुष को दे सकता है। विशेष रूप से तब जब कि उस काव्य में देवों को संबोधित प्रार्थनाएं और मंत्र समाविष्ट हों । परन्तु ब्राह्मण ग्रंथों के गद्य साहित्य के विषय में यह कहना कठिन है। ब्राह्मण ग्रंथ स्पष्ट रूप से मंत्रों की अपेक्षा बाद की रचनाएं हैं। इसी कारण इन्हें श्रुति में समाहित किया गया होगा कि इनकी सामग्री ब्रह्म-ज्ञान से मुक्त है और उनकी विषय - सामग्री साधारण और प्राचीन मंत्र नहीं है। ब्राह्मण ग्रंथों के अधिकांश दावों के बारे में यह कल्पना की गई होगी कि इनकी रचना ईश्वरीय है जिनका उद्गम सामान्य रहा अथवा मंत्र नहीं हो सकते। किन्तु हमें इस तर्क को मान्यता देने की आवश्यकता नहीं, जिसके कारण ब्राह्मण ग्रंथों ने अपने को मंत्र रख्ना के समकालीन बताया है। इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि जब ब्राह्मण ग्रंथों और मंत्रों का रचनाकाल अधिक प्राचीन है तो हम इस सहज विचार को क्यों अस्वीकार कर दें कि यदि सूत्रों और भारत के लौकिक साहित्य की तुलना की जाए तो उनका महत्व समान बनता है। ऐसी घटना सामान्य है, जहां पवित्र ग्रंथों का यह नियम है कि बाद की रचनाओं को प्राचीन रचनाओं से ही जोड़ दिया जाता है जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथों के साथ हुआ। किन्तु हम कठिनाई से ही यह विश्वास कर सकते हैं कि जब तक कोई पक्ष इन उपेक्षित रचनाओं के सिद्धांत विशेष की प्रामाणिकता अमान्य घोषित करने के लिए प्रयत्नशील न हो, पुराने और युक्ति युक्त अंशों को पवित्र रचनाओं से हटा दिया जाए और उन्हें बाद की रचनाएं बता दिया जाए। तब तक ऐसी कल्पना का कोई आधार नहीं है फिर सूत्रों के साथ ऐसा क्यों हुआ। हमें ब्राह्मण और मंत्रों की अपेक्षा उनके परवर्ती होने के सिवाय ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि सूत्रों को श्रुति न बनाया जाय। क्या ब्राह्मण ग्रंथकारों को स्वयं ज्ञात था कि ऋषियों की अधिकांश रचनाओं और ब्राह्मण ग्रंथों के उद्भव के बीच युगों का अंतराल है। इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है। किन्तु जिस दुस्साहस के साथ भारतीय ब्रह्मज्ञानियों ने ब्राह्मण ग्रंथों को वही पद और उनका काल मंत्रों के सामन निर्धारण किया, उससे यह प्रकट होता है कि इसका कोई विशिष्ट कारण रहा होगा कि सूत्रों को उतनी ही पावनता और प्राथमिकता न दी जाए।"

    सूत्रों को श्रुति की श्रेणी में न रखना एक पहेली है जिसका निराकरण किया जाना चाहिए।

    इस विषय पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के समक्ष अन्य कूट प्रश्न भी हैं। उनका संबंध सूत्रों की श्रेणी में आने वाले साहित्य की विषयसामग्री में परिवर्तन और उनकी सापेक्ष प्रामाणिकता से है।

    एक कूट प्रश्न साहित्य की उस श्रेणी से सम्बद्ध है जिसे ब्राह्मण कहा जाता है। एक समय ब्राह्मण ग्रंथ श्रुति की श्रेणी में आते थे। परन्तु लगता है, कालांतर में उनका यह स्थान नहीं रहा। स्मृति के निम्नांकित उद्धरण को देखने से लगता है कि मनु¹ ने “ब्राह्मण ग्रंथों” को श्रुति की श्रेणी से हटा दिया :

    "श्रुति का अर्थ है वेद और 'स्मृति' का अर्थ है विधान । इनकी विषय - सामग्री पर तर्क नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें कर्त्तव्य बोध है। ब्राह्मण ग्रंथ, जो बुद्धिवादी लेखों पर आधारित हैं, वे ज्ञान के इन दो स्रोतों की निंदा करें तो उन्हें संशयवादी और निंदक जानकर बहिष्कृत किया जाए जो कर्त्तव्य-बोध चाहते हैं, उनके लिए श्रुति सर्वोच्च सत्ता है।

    ब्राह्मण ग्रंथों को श्रुति से क्यों निकाला गया ?"

Ш

    अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते है। जो स्मृति कहलाता है। जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति हैं। स्मृतियों की संख्या लगातार बढ़ती रही और यह सिलसिला अंग्रेजों के आगमन तक जारी रहा। मित्रमिश्र 57 स्मृतियों का, नीलकंठ 97 का और कमलाकर 131 स्मृतियों का उल्लेख करते हैं। हिन्दुओं द्वारा पवित्र समझे जाने वाले धार्मिक साहित्य में स्मृति साहित्य अपेक्षाकृत अधिक है।

    वेदों और स्मृतियों के बीच संबंध के बारे में अनेक बातें हैं।


1. कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि 'वेद' शब्द में ब्राह्मण भी संकलित हैं। यह वास्तव में एक सच्चाई है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मनु ने 'श्रुति' को प्रतिबंधित अर्थ में प्रयुक्त किया ताकि 'ब्राह्मणों' को अलग रखा जाए। इस कथन की इस बात से पुष्टि होती है कि मनुस्मृति में ब्राह्मणों का उल्लेख नहीं है सिवाय एक स्थान पर (4.100) जहां वह कहता है कि मंत्रों का ही अध्ययन किया जाना चाहिए।


    पहली बात यह है कि जैसा बौधायन, गौतम और आपस्तम्ब को धर्मशास्त्र का स्थान प्राप्त था, स्मृति को वह मान्यता प्राप्त नहीं थी¹। स्मृति का संबंध मूल रूप से संस्कारों और परम्पराओं से था समाज के विद्वान उसकी अनुमति देते और अनुशंसा करते थे। जैसा कि प्रोफेसर अल्तेकर का मत है:

    आरम्भ में अपने लक्षण और विषय सामग्री के कारण स्मृति सदाचार के समान थी और वही उनका आधार था। स्मृतियां अस्तित्व में आईं तो स्वाभाविक था सदाचार की परिधि सिमट गई, क्योंकि उसको अधिकांशतः संहिताओं में बांध लिया गया था। उन्होंने उन प्राचीन प्रथाओं से जोड़ना आरंभ कर दिया गया जो स्मृतियों में संहिताबद्ध नहीं थी अथवा जो नवीन थी और वे आरम्भिक धर्मशास्त्रों तथा स्मृतियों में संहिताबद्ध हो गई थीं इस कारण सामाजिक मान्यता प्राप्त हो गयी थी।

    दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि स्मृतियां वेद और श्रुति से भिन्न समझी जाती थीं। जहां तक उनकी मान्यता और प्रामाणिकता का प्रश्न था, उनका आधार नितांत भिन्न था। श्रुतियों को दैवी मान्यता थी। स्मृतियों की मान्यता सामाजिक थी। उनकी प्रामाणिकता के संबंध में पूर्व मीमांसा में दो नियमों का प्रावधान किया गया था। प्रथम नियम यह है कि यदि श्रुति के दो पाठों में भिन्नता है तो दोनों प्रामाणिक थे, और यह समझा जाता था कि वेदों ने यह विकल्प किया हुआ था कि उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लिया जाए। दूसरा नियम यह है कि यदि स्मृति का कोई पाठ श्रुति के विपरीत है तो उसे तत्काल रद्द कर दिया जाए । यह नियम कठोरता से पालन किए जाते थे और इसका परिणाम यह हुआ कि स्मृतियों को न तो वेदों के समान स्थान मिला और न प्रामाणिकता ।

    यह आश्चर्यजनक बात है कि एक समय ऐसा आया जब ब्राह्मणों ने कलाबाजी खाई और स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ घोषित कर दिया। प्रोफेसर अल्तेकर ने कहा है:

    स्मृतियों ने श्रुतियों के कुछ सिद्धांतों को वास्तव में निरस्त कर दिया जो तत्कालीन युग की भावना के अनुरूप नहीं थे अथवा जिनका स्मृतियों से टकराव था । वैदिक परम्परा के अनुसार प्रातः देव कर्म और दोपहर बाद पितृ कर्म करने का विधान था। कालांतर में पितृ तर्पण लोकप्रिय हो गया और प्रातःकाल किया जाने लगा क्योंकि प्रातः स्नान दैनिक कार्यों में सम्मिलित हो गया। यह तरीका उपरोक्त नियम के अनुसार वैदिक प्रथा का प्रत्यक्ष उल्लंघन था। स्मृति- चंद्रिका के लेखक देवमभट्ट ने कहा है कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। श्रुति नियम को समझा गया कि उसमें पितृ तर्पण का उल्लेख है। पितृ - कर्म का नहीं। श्रुति साहित्य से ज्ञान होता है कि विश्वामित्र ने शुनःशेप को गोद ले लिया था। यद्यपि उनके स्वयं एक सौ पुत्र जीवित थे। इस प्रकार यह अनुमति मिलती है कि किसी व्यक्ति के भले ही उसके अपने अनेक पुत्र जीवित हों, वह किसी अन्य के पुत्र को गोद ले सकता है । परन्तु मित्रमिश्र का कथन है कि यह व्यवस्था दोषपूर्ण है। हम यह कल्पना कर सकते हैं कि स्मृतियों की प्रथाएं भी श्रुति व्यवस्थाओं पर आधारित हैं जो इस समय उपलब्ध नहीं है परन्तु उनका अस्तित्व माना जा सकता है।


1. इस विषय पर काणे मेमोरियल वाल्यूम, पृ. 18-25 पर प्रो. अल्तेकर का प्रभावपूर्ण लेख 'धर्म के स्रोत के रूप में स्मृतियों का स्थान' देखें।


    वैदिक कथन “ना शेषो ज्ञेन्याजातमस्ति" पुत्र गोद लेने की प्रथा के विरुद्ध है जिसे कालातीत में स्मृति साहित्य में अनुसंशित किया गया। यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि किस प्रकार स्मृति ने श्रुति को ठिकाने लगा दिया। परन्तु मित्रमिश्र का कथन है कि इस प्रथा में कोई दोष नहीं है। श्रुति का कथन मात्र अर्थवाद है। यह अपनी ओर से कोई निर्देश नहीं देतीं। दूसरी और स्मृतियों ने दत्तक पुत्र की व्यवस्था की है जिससे कि होम आदि उपयुक्त रीति से सम्पन्न हो सकें। इस प्रकार स्मृति के पाठ द्वारा अर्थवाद श्रुति को पूर्णतः निरस्त कर दिया, जिसने ऐसा विधान किया था।



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