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अपना आप और आत्म - विजय  - भगवान बुद्ध और उनका धम्म (भाग ७५) - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर  

६. अपना आप और आत्म - विजय

१. यदि अपना आप है तो आदमी को आत्मविजयी होना चाहिये ।

२. यही बौद्ध जीवन मार्ग है ।

३. आदमी का अपना-आप ही उसका मालिक है, दूसरा कौन मालिक हो सकता है? यदि आदमी अपने आप को सयत रखता है तो वह दुर्लभ स्वामित्व को प्राप्त करता है ।

Apna aap aur Atma - Vijay - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

४. जो मूर्ख अर्हतो के, आर्यों के अथवा शीलवानों के शासन को उपेक्षा की दृष्टि से देखता है और झूठे सिद्धांतो का अनूकरण करता है, तो जिस प्रकार काष्ठ (बांस) के फल उसके अपने विनाश का ही कारण बनते है, उसी प्रकार उस आदमी के कर्म उसके अपने विनाश का ही कारण बनते है ।

५. आदमी अपने आप ही पाप कर्म करता है, अपने आप ही उससे मैला होता है। अपने आप ही पाप कर्म से विरत रहता है, अपने आप ही उससे शुद्ध होता है । शुद्धि - अशुद्धि प्रत्येक की व्यक्तिगत बात है । एक दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता ।

६. जो 'सुन्दर ही सुन्दर' देखता रहता है जो इन्द्रियों में असंयत है, जो भोजन में मात्रज्ञ नहीं है जो शिथिल होता है और जो हीन-
वर्ध्य होता है उस आदमी को उसके अपने असंयत कर्म ही ऐसे पछाड देते है जैसे वायु दुर्बल पेड को ।

७. जो 'सुन्दर ही सुन्दर' नहीं देखता रहता, जिस की इन्द्रियां संयत है, जो भोजन में मात्रज्ञ है, जो श्रद्धावान है तथा वीर्य्यवान है वह उसी प्रकार पछाड़ नहीं खा सकता जैसे वायु से पर्वत ।

८. यदि आदमी को अपना आप प्रिय हैं तो उसे अपने आप पर कडी नजर रखनी चाहिये ।

९. सबसे पहले अपने-आप को ही ठीक मार्ग पर लगाये, तब दूसरों को उपदेश दे । बुद्धिमान आदमी को चाहिये कि कोई ऐसा अवसर न दे कि दूसरे ही उसे कुछ कह-सुन सकें ।

१०. अपने-आप को ही काबू में रखना कठिन है । यदि आदमी जैसा उपदेश दूसरों को देता है स्वय उसके अनुसार चले तो वह दूसरों को काबू में रख सकता है । अपना आप ही काबू में रखना कठिन है ।

११. आदमी स्वयं पाप करता है और स्वयं भोगता है । स्वयं ही वह पाप से विरत रहता है और स्वयं ही परिशुद्ध होता है । शुद्धि और अशुद्धि दोनो ही व्यक्तिगत है । कोई एक किसी दूसरे को परिशुद्ध नहीं कर सकता ।

१२. एक आदमी युद्ध में हजारों-लाखों को जीत लें, एक आदमी अपने- - आप को जीत ले, वही सच्चा संग्राम - विजयी है ।

१३. पहले अपने आप को ठीक मार्ग पर लगाए, तब दुसरो को उपदेश दें बुद्धिमान आदमी को चाहिए कि वह शिकायत का अवसर न दे ।

१४. यदि आदमी जैसा उपदेश दूसरो को देता है, स्वयं उसके अनुसार चले तो वह दूसरों को काबू में रख सकता है । अपना आप काबू में रखना कठिन है ।

१५. निश्चय से आदमी आप अपना रक्षक है । दूसरा कौन रक्षक हो सकता है? यदि आदमी आप अपनी रक्षा करता है तो वह ऐसे रक्षक को प्राप्त करता है, जिसके समान रक्षक मिलना दुर्लभ है ।

१६. यदि आदमीको अपना-आप प्रिय है तो उसे अपनी सुरक्षा करनी चाहिए ।

१७. आदमी स्वयं अपने पाप का फल भोगता है । स्वयं ही वह परिशुद्ध होता है । शुद्धि और अशुद्धि दोनों व्यक्तिगत हैं, कोई किसी दूसरे को परिशुद्ध नहीं कर सकता ।

१८. आदमी स्वयं अपना संरक्षक है। दूसरा कौन संरक्षक हो सकता है? यदि आदमी अपना संरक्षण करता है तो वह ऐसे संरक्ष को प्राप्त करता है जिसके समान संरक्षक मिलना कठिन है।

 

७. बुद्धि, न्याय और संगति

१. बुद्धिमान बनो, न्यायशील रहो और संगति अच्छी रखो ।

२. यही बौद्ध जीवन-मार्ग हैं ।

३. यदि कोई ऐसा आदमी मिले जो वरजने योग्य से वर्जित करे, जो ताडना भी दे और जो बुद्धिमान हो, तो उस आदमी का कहना ऐसे ही माने जैसे किसी खजाना बताने वाले का । जो उसका अनुकरण करेगा, उसके लिये यह अच्छा ही होगा बुरा नहीं होगा ।

४. जो सख्त-सुस्त कहता है, जो शिक्षा देता है, जो अनुचित कर्म से रोकता है--उससे सत्पुरुष प्यार करते है असत्पुरुष घुणा ।

५. पापी पुरुषों की संगति न करे । नीच पुरुषों की संगति न करे । सदाचारियो को मित्र बनाये, श्रेष्ठ पुराषो को मित्र बनाये ।

६. जो धर्म्मामृत का पान करता है, वह विप्रसन्न चित्त से सुखपूर्वक रहता है। श्रेष्ठ पुराषो द्वारा उपदिष्ट धम्म में पण्डित आदमी सदा सुखी रहता है।

७. पानी ले जाने वाले जहां चाहते है वहा पानी ले जाते हैं, जो बाण बनाने वाले है वे बाण को सीधा करते हैं, बढई लोग लकड़ी सीधा करते है ओर पण्डितजन अपने आप को विनीत (नियमानुसार चलने वाला) बनाते है ।

८. जिस प्रकार एक घन पर्वत वायु के झोके से हिलता - डोलता नहीं, उसी प्रकार पण्डितजन निन्दा - प्रशंसा से विचलित नहीं होते ।

९. धम्म सुन चुकने तेनु अनन्तर पण्डित जन गहरी, गम्भीर झील की तरह शान्त हो जाते है ।

१०. सत्पुरुष सभी परिस्थितियों में सम बने रहते है । सत्पुरुष इच्छाओं की तृप्ति के निमित्त कभी मुंह नही खोलते, वे सुख वा दुःख का अनुभव होंने पर ऊचा-नीचा भाव प्रदर्शित नहीं करते ।

११. जब तक पाप-कर्म पकता नहीं तब तक मूर्ख आदमी इसे मधु की तरह मधुर समझता है । लेकिन जब पाप-कर्म पता है मूर्ख आदमी दुःखी होता है ।

१२. जब मूर्ख आदमी पाप-कर्म करता है, तो वह नहीं जानता है ( कि मै पाप कर्म कर रहा हूँ), लेकिन वह आग से जले की तरह अपने पाप कर्म से जलता है ।

१३. जागने वाले की रात लम्बी होती है, श्रान्त आदमी का योजना लम्बा होता है, धम्म न जानने वाले मूर्ख आदमी का जीवन लम्बा होता है ।

१४. यदि आदमी को अपने से श्रेष्ठ वा अपने समान साथी न मिले, तो उसे अकेले ही अपने जीवन-पथ पर आगे बढ़ना चाहिये, मूर्ख आदमियों की संगति (अच्छी) नही ।

१५. यह मेरे पुत्र है, यह मेरा धन है, यही सोच सोच कर मूर्ख आदमी दुःखी होता रहता है । अपना आप ही अपना नहीं है । कहीं और कहाँ धन!

१६. जो मूर्ख आदमी अपने को मूर्ख समझता है, उतने अंश में वह भी पण्डित है, असली मूर्ख वह है जो मूर्ख होकर भी अपने-आप को पण्डित समझता है ।

१७. यदि एक मूर्ख आदमी जन्म भर भी किसी कि पण्डित संगति करे तो भी वह सद्धम्म को नहीं जान सकता जैसे कड़छी दाल रस को ।

१८. लेकिन कोई मेधावी यदि मुहूर्त भर भी पण्डित की संगती करे जो भी वह सद्धम्म को जान ले सकता है, जैसे जिह्वा दाल के रस को ।

१९. दुर्मेधा मूर्ख स्वयं अपना शत्रु आप होता है, क्योंकि वह ऐसे पाप कर्म करता है जिनका फल कटु होता है ।

२०. उस कार्य का करना अच्छा नहीं जिसके लिये आदमी को पछताना पडे जिसका फल रोते हुए भोगना पडे ।

२१. उस कार्य का करना अच्छा है, जिसके कर चुकने के बाद पछताना न पडे और जिसका फल आदमी प्रफुल्ल मन से प्रीतियुक्त कर भोग सके ।

२२. जब तक पाप-कर्म पकता नहीं, तब तक मूर्ख आदमी उसे मधु की तरह मधुर समझता रहता है । लेकिन जक पाप-कर्म पकता है, तब मूर्ख आदमी दुःखी होता है ।

२३. छिपा हुआ पाप-कर्म प्रकट होकर जब मूर्ख के लिये दुःख का कारण बनता है, तो वह उसके शुक्त अंश का नाश कर देता है, बल्कि उसके सिर के टुकडे टुकडे कर देता है ।

२४. झूठे यश की कामना भिक्षुओं और विहारों में अपनी प्रधानता की इच्छा, दूसरों से सत्कृत पुजित होने की भावना - एक मूर्ख लिये छोड़ दो ।

२५. आदमी के बाल पक जाने से ही वह 'वृद्ध' नहीं होता । उसके बाल भले ही सफेद हो गये हों, वह 'व्यर्थ बूढा हुआ' कहलाता है ।

२६. जिसमें सत्य है, शील है, करुणा है, संयम है, शुद्धि है तथा बुद्धि है वही वास्तविक (वृद्ध) हैं ।

२७. अधिक बोलने से वा सुर्वण होने से ही कोई ईर्ष्यालु, कंजूस, बेईमान आदमी 'आदरणीय' नहीं बनता ।

२८. जिसके ये सब दुर्गुण जड-मूल से जाते रहे हैं, जो घुणा से मुक्त है तथा जो बुद्धिमान है--वही आदरणीय कहलाता है ।

२९. एक आदमी यदि जोर-जबर्दस्ती किसी से कोई काम करा लेता है तो उससे वह 'न्यायी' नही माना जाता । ऐसा नहीं, जो ‘धम्म' ओर ‘अधम्म' की पहचान रखता है, जो बुद्धिमान है और जो जोर-जबर्दस्ती से नही, बल्कि धम्मानुसार दूसरों का मार्ग- प्रदर्शन करता है ऐसे विज्ञ, धम्मरक्षक को ही 'न्यायी' कह सकते हैं ।

३०. बहुत बोलने से ही कोई आदमी 'पण्डित' नहीं होता । जो क्षमाशील होता है, जो घृणा और से मुक्त होता है वही पण्डित कहलाता है ।

३१. बहुत बोलने से ही आदमी धम्म-धर नहीं होता, बल्कि जो चाहे थोडा धम्म सुने जो उसे कार्थ्य रुप में परिणित करता है, जो धम्म के विषय कभी प्रमाद नहीं करता, वही 'धम्मधर' कहलाता है ।

३२. यदि आदमी को कोई बुद्धिमान साथी मिले, धैर्यवान, तो वह सब खतरों से बचकर, सुखपूर्वक किन्तु विवेक-युक्त, उसके साथ रह सकता है ।

३३. लेकिन यदि आदमी को कोई बुद्धिमान साथी न मिले, धैर्यवान, तो उसे चाहिये कि उस राजा की तरह जिसने अपने विजित देश को पीछे छोड़ दिया है या जंगल में हाथी की तरह अकेला ही रहे ।

३४. अकेला रहना ही अच्छा है, मूर्ख आदमी की संगति अच्छी नहीं; आदमी अकेला रहे, कोई पाप कर्म न करे; थोडी सी इच्छायें रखे, जैसे जंगल में हाथी ।

३५. समय पडने पर, मित्रों का होना सुखकर होता है, भोग की सामग्री सुखकर होती है, शुभ कर्म का करना सुखकर होता है, अन्त समय आ पड़ने पर पुण्यों का किया रहना सुखकर होता है, सारे दुःख का नाश सुखकर है ।

३६. मातृत्व सुखकर है, पितृत्व सुखकर है तथा श्रमणत्व सुखकर है ।

३७ वृद्ध होने तक शील-प -पालन सुखकर है, दृढतापूर्वक प्रतिष्ठित श्रद्धा सुखकर है, प्रज्ञा का लाभ सुखकर है तथा पापों का न करना सुखकर है।

३८. मूर्ख की संगति देर तक कष्ट देती है, मुर्ख की संगति शत्रु के समान सदा दुःखद है बुद्धिमान की संगति सगे-सम्बन्धियों की संगति के समान सदा सुखद है।

३९. इसलिये आदमी को चाहिये कि प्रज्ञावान, बुद्धिमान, विज्ञ, क्षमाशील, धम्मधर तथा श्रेष्ठ आदमी का ऐसे ही अनुसरण करे जैसे चन्द्रमा नक्षत्रपथ का ।

४०. प्रमाद में न पडे और काम-भोगों के पीछे भी न पडे । अप्रमादी को विपुल सुख प्राप्त होता है ।

४१. जब बुद्धिमान आदमी प्रमाद को अप्रमाद से दबा देता है तो प्रज्ञा के प्रासाद पर चढकर, स्वयं शोक रहीत होता हुआ वह धैर्यवान शोकग्रस्त मूर्ख जनता को ऐसे देखता है जैसे पर्वत पर चढा हुआ कोई धैर्यवान, नीचे जमीन पर खडी हुई जनता को । ४२. प्रमादियो मे अप्रमादी, सोने वालो में जागरुक बुद्धिमान आदमी दूसरो को पीछे छोड़कर स्वंय इस प्रकार आगे बढ जाता है जैसे किसी दुर्बल घोडे को पीछे छोडकर शीघ्रगामी घोडा ।



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