१. शुभ कर्म करो । अशुभ कर्मों में सहयोग न दो। कोई पाप कर्म न करो ।
२. यही बौद्ध जीवन मार्ग है ।
३. यदि आदमी शुभ कर्म करे तो उसे पुनः करना चाहिये । उसी में चित्त लगाना चाहिये । शुभ कर्मो का संचय सुखकर होता है । ४. भलाई के बारे में यह मत सोचो कि मै इसे प्राप्त न कर सकूंगा । बूंद बूंद पानी करके घडा भर जाता है । इसी प्रकार थोडा थोडा करके बुद्धिमान आदमी बहुत शुभ कर्म कर सकता है ।
५. जिस काम को करके आदमी को पछताना न पडे और जिसके फल को वह आनन्दित मन से भोग सके उस काम का करना अच्छा है।
६. जिस काम को करके आदमी को अनुताप न हो और जिसके फल को प्रफुल्लित मन से भोग सके, उस काम का करना अच्छा है ।
७. यदि आदमी कोई शुभ कर्म करे तो उसे वह शुभ कर्म बार बार करना चाहिये । उसे इसमें आनन्दित होना चाहिये । शुभ कर्म का करना आनन्दायक होता है।
८. अच्छे आदमी को भी बुरे दिन देखने पड जाते है जब तक उसे अपने शुभ कर्मों का फल मिलना आरंम्भ नहीं होता, लेकिन जब उसे अपने शुभ कर्मो का फल मिलना आरम्भ होता है, तब अच्छा आदमी अच्छे दिन देखता है ।
९. भलाई के बारे में यह कभी न सोचे कि मैं इसे प्राप्त न कर सकूंगा । जिस प्रकार बूंद बूंद करके पानी का घडा भर जाता है, उसी प्रकार थोडा थोडा करके भी भला आदमी भलाई से भर जाता है ।
१०. शील (सदाचार) की सुगन्ध चन्दन, तगर तथा मल्लिका-सबकी सुगन्ध से बढकर है ।
११. धूप और चन्दन की सुगन्ध कुछ ही दूर तक जाती है किन्तु शील की सुगन्ध बहुत दूर तक जाती है ।
१२. बुराई के बारे में भी यह न सोचे कि यह मुझ तक नहीं पहुंचेगी । जिस प्रकार बूंद बूंद करके पानी का घडा भर जाता है उसी प्रकार थोडा-थोडा करके अशुभ कर्म भी बहुत हो जाते है ।
१३. कोई भी ऐसा काम करना अच्छा नही, जिसके करने से पछताना हो और जिस का फल अश्रु-मुख होकर रोते हुए भोगना पडे ।
१४. यदि कोई आदमी दुष्ट मन से कुछ बोलता है वा कोई काम करता है तो दुःख उसके पीछे पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे गाडी का पहिया खींचने वाले (पशू) के पीछे पीछे ।
१५. पाप-कर्म न करे । अप्रमाद से न रहे । मिथ्या दृष्टि न रखे ।
१६. शुभ कर्मों में अप्रमादी हो । बुरे विचारो का दमन करे । जो कोई शुभकर्म करने में ढील करता है, उसका मन पाप में रमण करने लगता है ।
१७. जिस काम के कर चुकने के बाद पछताना पडे उसका करना अच्छा नही, जिसका फल अश्रु-मुख होकर सेवन करना पडे ।
१८. पापी भी सुख भोगता रहता है, जब तक उसका पापकर्म नहीं पकता, लेकिन जब उसका पापकर्म पकता है तब वह दुःख भोगता है ।
१९. कोई आदमी बुराई को 'छोटा' न समझे और अपने दिल में यह न सोचे कि यह मुझ तक नहीं पहुंच सकेगी । पानी के बूंदों के गिरने से भी एक पानी का घडा भर जाता है । इसी प्रकार थोडा थोडा पापकर्म करने से भी मूर्ख आदमी पाप से भर जाता है ।
२०. आदमी को शुभ कर्म करने में जल्दी करनी चाहिये और मन को बुराई से दूर रखना चाहीये । यदि आदमी शुभ कर्म में ढील करता है तो उसका मन पाप में रमण करने लग जाता है ।
२१. यदि एक आदमी पाप करे; तो उसे बार बार न करे । वह पाप में आनन्द न माने । पाप इकट्ठा होकर दुःख देता है ।
२२. कुशल कर्म करे, अकुशल कर्म न करे । कुशल कर्म करने वाला इस लोक मे सुखपूर्वक रहता है ।
२३. कामुकता से दुःख पैदा होता है, कामुकता से भय पैदा होता है । जो कामुकतासे एकदम मुक्त है, उसे न दुःख है और न भय है
२४. भूख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सब से बड़ा दुःख है । जो इस यथार्थ बात को जान लेता है उसके लिये निर्वाण सबसे बडा सुख है।
२५. स्वयं-कृत, स्वयं-उत्पत्न्न तथा स्वय-पोषित पापकर्म करने वाले को ऐसे ही पीस डालता है जैसे वज्र मूल्यवान् मणि को भी ।
२६. जो आदमी अत्यंत दुःशील होता है, वह अपने आपको उस स्थिति में पहुँचा देता है, जहां उसका शत्रु उसे चाहता है, ठीक वैसे ही जैसे आकाश-बेल उस वृक्ष को जिसे वह घेरे रहती है ।
२७. अकुशल कर्मो का तथा अहितकर कर्मों का करना आसान है । कुशल कर्मों का तथा हितकर कर्मों का करना कठिन है ।
१. लोभ और कृष्णा के पीभूत न हो।
२. यही बौद्ध जीवन मार्ग है ।
३. धन की वर्षा होने से भी आदमी की कामना की पुर्ती नहीं होती । बुद्धिमान आदमी जानता है कि कामनाओं की पुर्ती में अल्प- स्वाद है और दुःख है ।
४. वह दिव्य कामभोगो में भी आनन्द नहीं मानता । वह तृष्णा के क्षय में ही रत रहता है । वह सम्यक् - सबुद्ध का श्रावक है ।
५. लोभ से दुःख पैदा होता है, लोभ से भय पैदा होता है । जो लोभ से मुक्त है उसके लिये न दुःख है न भय है ।
६. तृष्णा से दुःख पैदा होता है, तृष्णा से भय पैंदा होता है। जो तृष्णा से मुक्त है उसके लिये न दुःख है, न भय है ।
७. जो अपने आप को मान के समर्पित कर देता है, जो जीवन के यथार्थ उद्देश्य को भूल कर काम भोगो के पीछे पड़ जाता है वह बाद में ध्यानी की ओर ईर्षा भरी दृष्टि से देखता है ।
८. आदमी किसी भी वस्तु के प्रति आसक्त न हो, वस्तु- विशेष की हानि से दुःख पैदा होता है । जिन्हें न किसी से प्रेम है और न घृणा है, वे बंधन मुक्त है ।
९. काम-भोग से दुःख पैदा होता है, काम-भोग से भय पैदा होता है, जो काम-भोग से मुक्त है उसे न दुःख है और न भय है ।
१०. आसक्ति से दुःख पैदा होता है, आसक्ति से भय पैदा होता है, जो आसक्ति से मुक्त है । उसे न दुःख है और न भय है ।
११. राग से दुःख पैदा होता है, राग से भय पैदा होता है, जो राग से मुक्त है । उसे न दुःख है और न भय है ।
१२. लोभ से दुःख पैदा होता है, लोभ से भय पैदा होता है, जो लोभ से मुक्त है । उसे न दुःख है और न भय है ।
१३. जो शीलवान है, जो प्रज्ञावान है, जो न्यायी है, जो सत्यवादी है तथा जो अपने कर्तव्य को पूरा करता है-- उससे लोग प्यार करते हैं ।
१४. जो आदमी चिरकाल के बाद प्रवास से सकुशल लौटता है, उसके रिश्तेदार तथा मित्र उसका अभिनन्दन करते है ।
१५. इसी प्रकार शुभ कर्म करने वाले के गुण-कर्म परलोक में उसका स्वागत करते है ।
१. किसी को क्लेश मत दो, किसी से द्वेष मत रखो ।
२. यही बौद्ध जीवन मार्ग हैं ।
३. क्या संसार में कोई आदमी इतना निर्दोष है कि उसे दोष दिया ही नहीं जा सकता, जैसे शिक्षित घोडा चाबुक की मार की अपेक्षा नहीं रखता ?
४. श्रद्धा, शील, वीर्य, समाधि, धम्म-विचय (सत्य की खोज), विद्या तथा आचरण की पूर्णता तथा स्मृति (जागरुकता) से इस महान् दुःख का अन्त करो ।
५. क्षमा सबसे बडा तप है, 'निर्वाण' सबसे बड़ा सुख है - ऐसा बुद्ध कहते है । जो दूसरों को आघात पहुंचाये वह प्रतजित नहीं, जो दूसरों को पीडा न दे -- वही श्रमण है ।
६. वानी से बुरा वचन न बोलना किसी को कोई कष्ट न देना, विनयपूर्वक (नियमाननुसार) संयत रहना-- यही बुद्ध की देशना है ।
७. न जीवहिंसा करो न कराओ।
८. अपने लिये सुख चाहने वाला जो, सुख चाहने वाले प्राणियों को न कष्ट देता है और न जान से मारता है, वह सुख प्राप्त करेगा ।
९. यदि एक टूटे भाजन की तरह तुम नि:शब्द हो जाओ, तो तुमने निर्वाण प्राप्त कर लिया, तुम्हारा क्रोध से कोई सम्बन्ध नहीं ।
१०. जो निर्दोष और अहानिकर व्यक्तियों को कष्ट देता है, वह स्वयं कष्ट भोगता है ।
११. चाहे वह अलंकृत हो, तो भी यदि उसकी चर्थ्या विषय नहीं, यदि वह शान्त है, दान्त हैं. स्थिरचित है, ब्रह्मचारी है, दुसरों के छिद्रान्वेषण करता नहीं फिरता - वह सचमुच एक श्रमण है एक भिक्षु है ।
१२. क्या कोई आदमी लज्जा के मारे ही इतना संयत रहता है कि उसे कोई कुछ कह न सके, जैसे अच्छा घोडा चाबुक की अपेक्षा नहीं रखता ?
१३. यदि कोई आदमी किसी अहानिकार, शुद्ध और निर्दोष आदमी के विराद्ध कुछ करता है तो उसकी बुराई आकर उसी आदमी पर पड़ती है ठीक वैसे ही जैसे हवा के विराद्ध फेंकी हुई धूल फेंकने वाले पर ही आकर पडती है ।