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ईश्वर में विश्वास अ-धम्म है - भगवान बुद्ध और उनका धम्म (भाग ४८) - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

२. ईश्वर में विश्वास अ-धम्म है

१. इस संसार को किसने पैदा किया, यह एक सामान्य प्रश्न है । इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया, यह इस प्रश्न का वैसा ही सामान्य उत्तर हैं ।

२. ब्राह्मण-योजना मे इस सृष्टि रचयिता के कई नाम हैं -- प्रजापति, ईश्वर, ब्रह्मा या महाब्रह्मा ।

Ishwar Mein Vishwas ADhamma hai - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

३. यदि यह पूछा जाय कि यह ईश्वर कौन है, और यह कैसे अस्तित्व में आया तो इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं ।

४. जो लोग 'ईश्वर' मे विश्वास रखते हैं, वे उसे सर्व- शक्तिमान, सर्व व्यापक तथा सर्व अन्तर्यामी (सर्वज्ञ) कहते है ।

५. ईश्वर में कुछ नैतिक गुण भी बताये जाते हैं । ईश्वर को शिव (भला ) कहा जाता है, ईश्वर को न्यायी कहा जाता है और ईश्वर को दयालु कहा जाता हैं ।

६. प्रश्न पैदा होता है कि क्या तथागत ने ईश्वर को सृष्टिकर्ता स्वीकार किया है?

७. उत्तर है "नहीं"। उन्होंने स्वीकार नहीं किया ।

८. इसके अनेक कारण है कि तथागत ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया ।

९. किसी ने कभी 'ईश्वर' को नहीं देखा । लोग खाली उसकी चर्चा करते है ।

१०. ईश्वर 'अज्ञात' है, 'अदृश्य' है ।

११. कोई यह सिद्ध नहीं कर सकता कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया है, संसार का विकास हुआ है, निर्माण नहीं हुआ ।

१२. इसलिये 'ईश्वर' में विश्वास करने से कौनसा लाभ हो सकता है? इससे कोई लाभ नहीं ।

१३. बुद्ध ने कहा ईश्वराश्रित धर्म कल्पनाश्रित हैं ।

१४. इसलिये ईश्वराश्रित धर्म रखने का कोई उपयोग नहीं ।

१५. इससे केवल मिथ्याविश्वास उत्पन्न होता हैं ।

१६. बुद्ध ने इस प्रश्न को यहीं और यूं ही नहीं छोड़ दिया । उन्होंने इस प्रश्न के नाना पहलुओं पर विचार किया हैं ।

१७. जिन कारणों से भगवान् बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त को अस्वीकार किया, वे अनेक हैं ।

१८. उनका तर्क था कि ईश्वर के अस्तित्व का सिद्धान्त सत्याश्रित नहीं हैं ।

१९. भगवान् बुद्ध ने वासेठ और भारद्वाज के साथ हुई अपनी बातचीत मे इसे स्पष्ट कर दिया था ।

२०. वासेट्ठ और भारद्वाज में एक विवाद उठ खड़ा हुआ था कि सच्चा मार्ग कौनसा है और झूठा कौनसा ?

२१. इस समय महान् भिक्षु संघ को साथ लिये भगवान् बुद्ध कोशल जनपद में विहार कर रहे थे । वह मनसाकत नामके ब्राह्मण- गाँव में अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठहरे ।

२२. वासेट्ठ और भारद्वाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे । जब उन्होंने यह सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आये हैं तो वे उनके पास गये और दोनों ने भगवान् बुद्ध से अपना-अपना दृष्टिकोण निवेदन किया ।

२३. भारद्वाज बोला- “तरूक्ख का दिखाया हुआ मार्ग सीधा मार्ग है, यह मुक्ति का सीधा पथ है और जो इस का अनुसरण करता है उसे वह ले जाकर सीधा ब्रह्म से मिला देता है ।”

२४. वासेटू बोला- “हे गौतम! बहुत से ब्राह्मण बहुत से मार्ग सुझाते हैं-अध्वर्य्य ब्राह्मण, तैत्तिरिय ब्राह्मण, कंछोक ब्राह्मण तथा भीहुवर्गीय ब्राह्मण । वे सभी, जो कोई उनके बताये पथ का अनुसरण करता है, उसे 'ब्रह्म' से मिला देते हैं ।”

२५. “जिस प्रकार किसी गांव या नगर के पास अनेक रास्ते होते हैं, किन्तु वे सभी आकर उसी गांव में पहुंचा देते हैं - उसी तरह से ब्राह्मणों द्वारा दिखाये गये सभी पथ 'ब्रह्म' से जा मिलाते हैं ।”

२६. तथागत ने प्रश्न किया-- "तो वासेटु ! तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं?" वासेठ बोला, “श्रमण गौतम । हाँ मेरा यही कहना है ।"

२७. “लेकिन वासेट्ठ ! क्या तीनों वेदों के जानकार इन ब्राह्मणों में कोई एक भी ऐसा है जिसने 'ब्रह्म' का आमने-सामने दर्शन किया हो?"

२८. “गौतम ! नहीं ।”

२९. “क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों के गुरुओं में कोई एक भी ऐसा हैं, जिसने 'ब्रह्म' का आमने-सामने दर्शन किया हो ?”

३०. " गौतम ! निश्चय से नहीं !"

३१. “तो किसी ने 'ब्रह्म' को नहीं देखा ? किसी को 'ब्रह्म' का साक्षात्कार नहीं हुआ?" वासेट्ठ बोला- “हॉ ऐसा ही है।” “तब तुम यह कैसे मानते हो कि ब्राह्मणों का कथन सत्याश्रित है ।"

३२. “वासेट्ठ ! जैसे अंधो की कोई कतार हो । न आगे आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो, न बीच में चलने वाला अन्धा देख सकता हो और न पीछे चलने वाला अन्धा देख सकता हो - इसी तरह वासेट्ठ ! मुझे लगता है कि ब्राह्मणों का कथन केवल अंधा कथन हैं । न आगे आगे चलने वाला देखता है, न बीच में चलने वाला देखता है और न पीछे चलने वाला देखता है । इन ब्राह्मणों की बात--चीत केवल उपहासास्पद है, शब्द- मात्र जिसमें कुछ भी सार नहीं ।"

३३. “वासेट्ठ ! क्या यह ठीक ऐसा ही नहीं है जैसे किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो, जिसे उसने कभी देखा न हो?" वासे बोला, "हाँ, यह तो ऐसा ही है।”

३४. “वासेट्ठ ! अब तुम बताओ कि यह कैसा होगा जब लोग उस आदमी से पूछेंगे कि मित्र ! तुम जिस सारे प्रदेश की सुन्दरतम स्त्री से इतना प्रेम करने की बात कहते हो, वह कौन है? वह क्षत्रिय जाति से है ? ब्राह्मण जाति से है? वैश्य जाति से है अथवा शूद्रा से हैं?"

३५. महाब्रह्मा, सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुए, तथागत ने भारद्वाज और वासेट्ठ को कहा- “मित्रों ! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था, वह अपने बारे में सोचने लगा मैं ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, विजेता हूं, अविजित हूं, सर्व - द्रष्टा हूँ, सर्वाधिकारी हूँ, मालिक हूँ, निर्माता हूँ, रचयिता हूँ, मुख्य हूँ, व्यवस्थापक हूँ, आप ही अपना स्वामी हूं और जो हैं तथा जो भविष्य में पैदा होने वाले है, उन सबका पिता हूँ । मुझे ही से ये सब प्राणी उतपन्न होते हैं ।”

३६. “तो इसका यह मतलब हुआ न कि जो अब हैं और जो भविष्य में उत्पन्न होने वाले हैं, ब्रह्मा सब का पिता है?"

३७. “तुम्हारा कहना है कि यह जो पूज्य, विजेता, अविजित, जो हैं तथा जो होंगे उन सबका पिता, जिससे हम सब की उत्पत्ती हुई। है - ऐसा जो यह ब्रह्म है, यह स्थायी है, सतत रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तन शील है और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा । तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है, जो ब्रह्म के यहां से यहां आये है, सभी अनित्य क्यों हैं, परिवर्तन-शील क्यों हैं, अस्थिर क्यों हैं, अल्पजीवी क्यों हैं? मरणधर्मी क्यों है?"

३८. इसका वासेट्ठ के पास कोई उत्तर न था ।

३९. तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से सम्बन्धित था । "यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का पर्याप्त कारण है, तो फिर आदमी के दिल में कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नहीं हो सकती, उसे कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं रह सकती, न उसके मन में कुछ करने का किसी भी तरह का कोई भी प्रयत्न करने का कोई संकल्प ही पैदा हो सकता है । यदि यह ऐसा ही है तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया?”

४०. इसका भी वासे के पास कोई उत्तर न था ।

४१. तथागत का चौथा तर्क था यदि ईश्वर 'शिव' है, कल्याण-स्वरूप है तो आदमी हत्यारे, चोर, व्यभिचारी, झुठे, चुगलखोर, बकवादी, लोभी, द्वेषी और कुमार्गी क्यों हो जाते है ? क्या किसी अच्छे, भले, शिव स्वरूप ईश्वर के रहते यह सम्भव है?

४२. तथागत का पाँचवां तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ, न्यायी और दयालू होने से सम्बधित था ।

४३. यदि कोई ऐसा महान् सृष्टि-कर्ता है जो न्यायी भी है और दयालु भी है, तो संसार में इतना अन्याय क्यों हो रहा है? भगवान बुद्ध का प्रश्न था । उन्होंने कहा:- “जिसके पास भी आंख है वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता है ? ब्रह्मा अपनी रचना को सुधारता क्यों नहीं हैं? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकनेवाला नहीं तो उसके हाथ ही क्यों ऐसे है कि शायद कभी किसी का कल्याण करते हों ? उसकी सारी की सारी सृष्टि दुःख क्यों भोग रही है ? वह सभी को सुखी क्यों नहीं रखता है? चारों ओर ठगी, झूठ और अज्ञान क्यों फैला हुआ है ? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार ले जाता है ? सत्य और न्याय क्यों पराजित हो जाते हैं? मैं तुम्हारे ब्रह्म को परं अन्यायी मानता हूँ जिसने केवल अन्याय को आश्रय देने के लिये ही इस जगत की रचना की ।"

४४. “यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है जो उन्हे सुखी अथवा दुखी बनाता है, और जो उन से पाप- पुण्य कराता है तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सनता है । या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नहीं है या ईश्वर न्यायी और नेक नहीं है अथवा ईश्वर अन्धा है ।"

४५. ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध उनका अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।

४६. भगवान् बुद्ध के अनुसार धम्म की धुरि ईश्वर और आदमी का सम्बन्ध नहीं है, बल्कि आदमी आदमी का सम्बन्ध हैं । धम्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमियों के साथ कैसे व्यवहार करे ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सके।

४७. एक और भी कारण था जिसकी वजह से तथागत ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के इतने खिलाफ थे ।

४८. वह धार्मिक रस्मों और व्यर्थ के धार्मिक क्रिया-कलाप के विरोधी थे । उनके विरोध का कारण यही था कि ये सब मिथ्या- विश्वास के घर हैं और मिथ्या विश्वास सम्यक दृष्टि का शत्रु है । उस सम्यकदृष्टि का जो तथागत के आर्य अष्टांगिक मार्ग का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है।

४९. तथागत की दृष्टि में ईश्वर-विश्वास बडी ही खतरनाक बात थी । क्यों कि ईश्वर विश्वास की प्रार्थना और पूजा की सामर्थ्य में विश्वास का उत्पादक है, और प्रार्थना कराने की जरूरत ने ही पादरी - पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अन्ध-विश्वास को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरूद्ध कर दिया ।

५०. ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध दिये गये इन तर्कों में से कुछ व्यावहारिक थे, कुछ मात्र सौद्धान्तिक । तथागत जानते थे कि ये ईश्वर के अस्तित्व के विश्वास के लिये एकदम मारक - तर्क नहीं हैं।

५१. लेकिन इसका यह मतलब नही कि तथागत ने कोई मारक- तर्क दिया ही नहीं। एक तर्क उन्होंने दिया जो निश्चयात्मक रूप से ईश्वर-विश्वास के लिये प्राण घातक हैं । यह उनके प्रतीत्य-समुत्पाद के सिद्धान्त के अन्तर्गत आता है ।

५२. इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है, यह मुख्य प्रश्न ही नहीं है । न यही प्रश्न मुख्य है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की वा नहीं की? असल प्रश्न यह है कि रचयिता ने सृष्टि किस प्रकार रची ? यदि हम इस प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर दे सके कि संसार की रचना कैसे हुई तो उसमें से ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त का कुछ औचित्य सिद्ध हो सकता है । ५३. महत्वपूर्ण प्रश्न वह है कि क्या ईश्वर ने सृष्टि भाव (किसी पदार्थ) में से उत्पन्न की अथवा अभाव (-शून्य) में से? ५४. यह तो विश्वास करना असम्भव है कि 'कुछ नहीं' में से 'कुछ' की रचना हो गई ।

५५. यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना 'कुछ' में से की है तो वह 'कुछ' जिस में से नया 'कुछ' उत्पन्न किया गया है - ईश्वर के किसी भी अन्य चीज के उत्पन्न करने के पहले से चला आया है । इसलिये ईश्वर उस 'कुछ' का रचयिता नही स्वीकार किया जा सकता तो 'कुछ' उसके भी अस्तित्व के पहले से चला आ रहा है ।

५६. यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने 'कुछ' में से उस चीज की रचना कर दी है जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का आदि कारण नहीं कहला सकता ।

५७. भगवान् बुद्ध का यह आखिरी तर्क ऐसा था कि जो ईश्वर विश्वास के लिये सर्वथा मारक था, जिसका कुछ जवाब नहीं था ।

५८. मूल-स्थापना ही असत्य होने से ईश्वर की सृष्टि का रचयिता मानना अ-धम्म है । यह केवल 'झुठ' में विश्वास करना हैं ।



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