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ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय  (भाग 3) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

हरिवंश के अनुसार

     'जो पापाचार किए गए थे, उनके परिणामस्वरूप इंद्र ने बारह वर्षों तक वृष्टि नहीं की।² उस समय विश्वामित्र अपनी पत्नी और पुत्रों को छोड़कर समुद्र तट पर तप करने चले गए। उनकी पत्नी अभावों से पीड़ित हो अपने दूसरे पुत्र को एक सौ गांवों के बदले


2. म्यूर, खंड 1, पृ. 376-377


बेचना चाहती थी, जिससे वह अन्य पुत्रों का भरण-पोषण कर सके। लेकिन सत्यव्रत के द्वारा बीच में हस्तक्षेप करने पर ऐसा न हो सका । सत्यव्रत ने उसके पुत्र को छुड़ा लिया और उनके परिवार को जंगली पशुओं का मांस देकर उनकी रक्षा की और अपने पिता की आज्ञा के अनुसार बारह वर्षों तक कठिन तप किया।

Brahman vs Kshatriya - dr Bhimrao Ramji Ambedkar

     जिस दूसरी घटना में इन दोनों को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी दिखाया गया है, वह त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र की है। यह कथा विष्णुपुराण और मार्कण्डेय पुराण में आती है। यह कथा इस प्रकार है:

     'एक बार जब राजा शिकार खेल रहा था तब उसने किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी जो ऐसा लगता था कि वह (आवाज) उन विधाओं (साइसेज) की थी, जिनको क्रोधोन्मत्त तपस्वी ऋषि विश्वामित्र उस रीति से अपने अधिकार में कर लेना चाहते थे, जिस रीति से किसी ने भी नहीं किया था । और इसलिए ये विधाएं उनके बल से भयभीत होकर विलाप कर रही थीं। निर्बल की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म होता है। इस कारण, और गणेश देवता से प्रेरित हो, जो उसके शरीर में प्रवेश कर गए थे। हरिश्चन्द्र ने कहा - 'कौन पापी है जो मुझे बल और तेजस्विता से दीप्तमान के रहते अपने वस्त्रों में आग लगा रहा है। शीघ्र ही उसके अंग-प्रत्यंग को मेरे धनुष से निकलने और समस्त आकाश को प्रदीप्त करने वाले बाण बेधकर रख देंगे और वह चिर निंद्रा में सो जाएगा।' यह चुनौती सुनकर विश्वामित्र उत्तेजित हो उठे। उनके क्रोध के परिणामस्वरूप सभी विधाएं मृत हो गईं, और हरिश्चन्द्र अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते की तरह कांपते हुए विनयपूर्वक बोले कि मैंने तो राजा के रूप में केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है जो इस प्रकार वर्णित है श्रेष्ठ ब्राह्मणों और अल्प साधन वाले व्यक्तियों को दान देना, निर्बल की रक्षा करना और शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध करना । विश्वामित्र तब उससे ब्राह्मण के रूप में दान मांगते हैं और एक ही वस्तु के मिलने पर मनु संतुष्ट होने की बात करते हैं। राजा उन्हें वचन देता है कि वह अपनी इच्छानुसार इन वस्तुओं में से कोई भी वस्तु चुन लें - सुवर्ण, पुत्र, पत्नी, काया, राज्य, सौभाग्य। ऋषि पहले तो राजसूय यज्ञ के लिए दान मांगते हैं। राजा के स्वीकार करने और अन्य वस्तुएं भी दान करने का वचन देने पर ऋषि उनसे उनको, उनकी पत्नी व पुत्र को छोड़कर समस्त पृथ्वी पर स्थित राज्य मांगते हैं, जिसमें शेष सभी कुछ शामिल होगा। वह उनसे उनकी समस्त संपत्ति मांगते हैं जो उनके पास है या जहां भी वह जाएंगे तब उनके पास होगी। हरिश्चन्द्र सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। विश्वामित्र तब उनसे अपने समस्त आभूषण उतारने, वल्कल वस्त्र पहनने और पत्नी शैव्या तारामती तथा पुत्र सहित राज्य छोड़ने के लिए कहते हैं। जब वह जाने लगते हैं, तब ऋषि उनको रोकते हैं और उनसे दान की दक्षिणा मांगते हैं जो उन्हें अभी


1. म्यूर खंड 1, पृ. 376-377


तक नहीं मिली है। राजा उत्तर देते हैं कि उनके पास उनकी पत्नी और पुत्र को छोड़कर कुछ भी नहीं है। विश्वामित्र राजा से कहते हैं कि उन्हें तो दक्षिणा देनी ही होगी । और ब्राह्मणों को दान देने की प्रतिज्ञा पूरी न करने पर उनका विनाश हो जाएगा। अभगा राजा इस प्रकार धमकाए जाने पर एक महीने की अवधि में दक्षिणा चुकता कर देने का वचन देता है और अपनी प्रजा को बिलखता छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्रा पर निकल पड़ता है, जिसने ऐसे कष्ट पहले कभी नहीं भोगे थे। जब वह राज्य छोड़ते समय अपने पुरजनों के विलाप पर कुछ देर के लिए रुकता है, तब विश्वामित्र आते हैं और राजा के द्वारा देर करने और रूकने पर क्रुद्ध होकर अपने दंड से रानी पर प्रहार करते है और राजा अपनी पत्नी को उसका हाथ खींचते हुए आगे निकल जाते हैं। इसके बाद हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी और पुत्र के साथ यह सोचकर काशी आते हैं कि यह तो शिव की संपत्ति होने के कारण पावन नगरी है और यह किसी मर्त्य के अधिकार में नहीं होगी। यहां वह देखता है कि निष्ठुर विश्वामित्र उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और अनुग्रह की अवधि के पूरी होने के पूर्व ही दक्षिणा देने का हठ करने के लिए तैयार खड़े हैं। इस विकट स्थिि में रानी शैव्या सिसकते हुए राजा से कहती है कि वह उसे बेच दें। यह प्रस्ताव सुनकर राजा मूर्छित हो जाता है। यह देखकर उसकी पत्नी भी मूर्छित हो जाती है। जब ये दोनों मूर्च्छित पड़े हुए होते हैं, तभी उनका भूख से पीड़ित पुत्र भी कष्ट से चिल्लाने लगता है, पिताजी! पिताजी! मुझे रोटी दो, मां मां कुछ भोजन दो। मैं भूख से व्याकुल हूं। मेरी जीभ भी सूख रही है। इसी बीच विश्वामित्र वहां वापस आते हैं और हरिश्चन्द्र के शरीर पर जल छिड़क कर उसे होश में लाते हैं तथा दक्षिणा देने के लिए पुनः पुनः हठ करते हैं। राजा फिर बेहोश हो जाता है, वह पुनः होश में लाया जाता है। ऋषि उसे धमकाते हैं। और कहते हैं कि अगर वह सूर्यास्त होने के पूर्व अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करेगा तो वह उसे शाप दे देंगे। अपनी पत्नी के बार-बार अनुरोध करने पर रजा उसे बेच देने के लिए राजी हो जाता है और कहता है, 'यदि मैं इतने निकृष्ट शब्द का उच्चारण कर सकता हूं तब क्रूर और अभागे क्या कुछ नहीं कर सकते।' वह फिर नगर में जाता है और अपने को कोसता हुआ अपनी रानी को दासी के रूप में बेचने के लिए बोली लगाता है। एक धनाढ्य वृद्ध ब्राह्मण उसकी बोली लगाता है तथा उसकी कीमत देकर अपने घर में दासी के रूप में रख लेता है। उसका पुत्र अपनी मां को ले जाता हुआ देखकर उसके पीछे-पीछे रोता और मां मां चिल्लाता हुआ भागता है। जब वह अपनी मां के पास आता है, तब वृद्ध ब्राह्मण, जिसने उसकी मां को खरीदा है, उसे लात मारता है। लेकिन वह अपनी मां को आगे जाने नहीं देता और लगातार मां मां चिल्लाता है। रानी तब ब्राह्मण से कहती है, 'दया कीजिए, मेरे स्वामी। इस बच्चे पर भी दया कीजिए। उसके बिना मैं आपके किसी काम न आ सकूंगी। मेरी दीनता पर दया कीजिए। मुझे मेरे पुत्र से अलग मत कीजिए, जैसे गौ को उसके बछड़े से अलग नहीं किया जाता है। ब्राह्मण मान जाता है और कहता है, 'यह धन लो और इस लड़के को मुझे सौंप दो। जब ब्राह्मण अपनी खरीदी हुई संपत्ति को लेकर दूर चला जाता है, तब विश्वामित्र पुनः आते हैं और अपनी मांग दुहकराते हैं। जब विपत्तिग्रस्त हरिश्चन्द्र उस थोड़े से धन को, जो उन्हें अपनी पत्नी और पुत्र को बेचने से प्राप्त हुआ था, विश्वामित्र को देते हैं, तब वह क्रुद्ध होकर कहते हैं- दुष्ट क्षत्रिय, यदि तुम यह समझते हो कि यह दक्षिणा मेरे उपयुक्त है, तब तुम मेरे कठोर तप, निष्कलंक ब्रह्मत्व, पुण्य, प्रताप और मेरे वेदाध्ययन की शुचिता का शीघ्र अनुभव करोगे । हरिश्चन्द्र उन्हें और दक्षिणा देने का वचन देते हैं और विश्वामित्र उन्हें उस दिन के शेष समय में चुकता करने की अनुमति देते हैं। भयभीत और त्रस्त राजा जब अपने को बेचना चाहता है, तब वीभत्स और क्रूर चांडाल के रूप में धर्म प्रकट होते हैं और जो भी कीमत राजा अपनी लगाता है, उस पर उसे खरीदने के लिए तैयार हो जाते हैं। हरिश्चन्द्र इस निकृष्ट कर्म को करने से इंकार कर देते हैं और कहते हैं कि इस दुर्भाग्य को स्वीकार करने की अपेक्षा, वह अपने उत्पीड़क के शाप की अग्नि में भस्म हो जाना श्रेयस्कर समझते हैं। विश्वामित्र पुनः आते हैं और कहते हैं कि वह चांडाल द्वारा कीमत के रूप में दिए जा रहे प्रचुर धन को क्यों नहीं स्वीकार कर लेते। जब हरिश्चन्द्र यह कारण बताते हैं कि वह सूर्यवंश की संतान है। तब विश्वामित्र उन्हें यह कहकर धमकाते हैं कि अगर वह अपने वचन को उक्त धनराशि स्वीकार कर पूरा नहीं करते, तब वह उन्हें शाप दे देंगे। हरिश्चन्द्र अनुनय करते हैं कि उन्हें यह नीच कर्म करने के लिए बाध्य न किया जाए और अपने ऋण को चुकाने के लिए वह विश्वामित्र का दास बनने के लिए तैयार हैं। इस पर ऋषि कहते हैं- 'अगर तुम मेरे दास हो तब, मैं तुम्हें इसी रूप में एक लाख मुद्राओं के बदले चांडाल को बेचता हूं।'

     'चांडाल सहर्ष यह धन चुकता कर देता है और दुःखी हरिश्चन्द्र को अपने निवास स्थान पर ले जाता है। चांडाल उसे श्मशान जाकर कफन चुराने का काम करने के लिए कहता है। वह बताता है कि इससे उसे 2/6 भाग प्राप्त होगा जो उस (चांडाल ) का होगा और 1/6 भाग राजा को मिलेगा। राजा ने इस भयानक क्षेत्र में नीच कर्म करते हुए बारह वर्ष व्यतीत किए, जो उसे सौ वर्षों के बराबर लगे। वह तब सो जाता है। उसे अपने जीवन के विषय में अनेक स्वप्न आए। जब वह जागा तब उसकी पत्नी अपने पुत्र का अंतिम संस्कार कराने आई, जो सर्पदंश से मर गया था। पहले तो पति-पत्नी ने एक-दूसरे को नहीं पहचाना, क्योंकि उनकी आकृति कष्ट सहते-सहते विकृत हो गई थी। हरिश्चन्द्र ने उसके विलाप से तुरंत पहचान लिया कि यह उसकी पत्नी ही है, जो दुर्भाग्य की मारी हुई है। वह बेहोश हो जाता है। रानी भी उसे पहचान लेती है, वह भी बेहोश हो जाती है। जब उनकी मूर्छा भंग होती है, तब वे दोनों रोने लगते हैं। पिता अपने पुत्र की मृत्यु पर और रानी अपने पति की अधोगति पर रोती है। वह उसके गले से लिपट जाती है और कहती है, 'मैं विभ्रम में हूं, क्या यह स्वप्न है या यथार्थ है ? यदि यह यथार्थ है, तब उन्हें धर्म का बोध हो रहा है, जो इसका आचरण करते हैं। ' हरिश्चन्द्र को अपने पुत्र की चिता में आग लगाने से पहले स्वामी के लिए शुल्क न लेने के लिए हिचक होती है, लेकिन बाद में वह हर परिणाम को भुगतने और ऐसा करने का निश्चय कर लेता है और अपने को ढाढस दिलाता है कि 'यदि मैंने दान दिए हैं और ऋषि-मुनियों को मेरे यज्ञ कर्म आदि से संतोष हैं, तब मैं स्वर्ग में अपने पुत्र और अपनी पत्नी से जाकर मिलूंगा।' रानी भी उसी प्रकार मरने का निर्णय कर लेती है। जब हरिश्चन्द्र अपने पुत्र को चिता पर रखकर भगवान श्री नारायण कृष्ण, परमात्मा का स्मरण और ध्यान कर रहे थे, तभी धर्म के आगे-आगे सभी देवतागण विवामित्र के साथ वहां उपस्थित हो गए। धर्म राजा को आवेश में कठोर कर्म करने से वर्जित करने लगे। इंद्र ने घोषणा की कि राजा, उसकी पत्नी और उसके पुत्र ने अपने सत्कर्म से स्वर्ग जीत लिया है। देवताओं ने आकाश से अमृत व पुष्पों की वर्षा की और राजा का पुत्र पुनः जीवित हो उठा तथा स्वरथ हो गया।

     ‘स्वर्गिक वस्त्र और मालाओं से आभूषित हो राजा और रानी ने अपने पुत्र को गले लगा लिया। हरिश्चन्द्र ने कहा कि जब तक मुझे अपने स्वामी चांडाल की अनुमति नहीं मिल जाती और उनको प्रचुर धन नहीं दे देता, तब तक मैं स्वर्ग नहीं जा सकता। धर्म तब राजा को यह रहस्य बताते हैं कि मैंने स्वयं ही चांडाल का स्वरूप धारण कर रखा था। तब राजा पुनः कहता है कि मैं तब तक यहां से विदा नहीं ले सकता, जब तक मेरी प्रजा को मेरे साथ स्वर्ग चलने की अनुमति नहीं होती, क्योंकि मेरे पुण्य में उसका भी अंश है, चाहे वह एक दिन के लिए ही चले। इसे इंद्र स्वीकार करते हैं। विश्वामित्र राजा के पुत्र रोहिताश्व को राज - सिंहासन पर आसीन कराते हैं और तब हरिश्चन्द्र, उनके साथी और अनुयायी एक साथ स्वर्गारोहण करते हैं। इस चरमोत्कर्ष के बाद जब वशिष्ठ ने यह वृत्तांत गंगा के जल में बारह वर्षों तक निवास करने के बाद सुना, जो हरिश्चन्द्र के कुल पुरोहित थे, तो वह उस क्लेश के कारण बहुत क्रुद्ध हुए जो ऐसे श्रेष्ठ राजा को भोगना पड़ा, जिसके गुणों और ईश्वर तथा ब्राह्मण भक्ति की वह प्रशंसा करते थे। उन्होंने कहा कि जब विश्वामित्र ने उनके अपने सौ पुत्रों का वध किया था, तब उन्हें इतना क्रोध नहीं आया था। उन्होंने विश्वामित्र को बगुला बन जाने का शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि वह दुष्ट व्यक्ति, ब्राह्मणद्रोही, मेरे शाप से बुद्धिमान जीवों के समाज से बहिष्कृत हो जाए तथा अपनी बुद्धि खोकर वक बन जाए। विश्वामित्र ने इसके बदले वशिष्ठ को शाप दे दिया और उन्हें अरि नामक पक्षी बना दिया। इन नए रूपों में दोनों में भयंकर युद्ध हुआ । अरि आकाश में दो सहस्त्र योजन अर्थात् - 18,000 मील ऊपर उड़ सकता था और वक 3,090 योजन तक ही उड़ सकता था। जब अरि ने अपने पंजों से आक्रमण किया, तब वक ने अपने प्रतिद्वंद्वी पर वैसे ही आक्रमण किया। इन दोनों के डैनों की फड़फड़ाहट से भयंकर चक्रवात आए, पर्वत चूर्ण होने लगे, सारी पृथ्वी कांपने लगी, समुद्र में जल तट के ऊपर की तरफ चढ़ने लगा, पृथ्वी टूटकर पाताल की ओर जाने लगी। इन दोनों के युद्ध से अनेक जीवों की मृत्यु हो गई। इस भयंकर अव्यवस्था को देखकर वहां सभी देवताओं सहित ब्रह्मा उपस्थित होते हैं और दोनों प्रतिद्वंद्वियों को युद्ध बंद करने का आदेश देते हैं। इस आदेश पर दोनों को भयंकर क्रोध हो उठता है, लेकिन ब्रह्मा उनको उनके मूल रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं और परस्पर शांति रखने की सलाह देते हैं।



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