चौथा उदाहरण निमि का है। निमि इक्ष्वाकु के पुत्रों में से एक था। ब्राह्मणों के साथ उसके संघर्ष का वर्णन विष्णुपुराण में मिलता है, जो इस प्रकार है:
'निमि ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से एक यज्ञ का पौरोहित्य करने का अनुरोध किया, जो एक सहस्त्र वर्ष तक चलने वाला था।¹ वशिष्ठ ने उत्तर दिया, मैंने पहले ही इंद्र को एक यज्ञ का पौरोहित्य करने का वचन दे रखा है, जो पांच सौ वर्ष तक चलेगा। राजा ने कुछ भी नहीं कहा। वशिष्ठ चले गए और उन्होंने यह अनुमान लगाया कि राजा ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। लौटने पर उन्होंने देखा कि निमि ने यज्ञार्थ गौतम (जो वशिष्ठ के समान ब्रह्मर्षि थे) और अन्य ऋषियों को नियुक्त कर रखा है। उनको राजा की ओर से इस बात की कोई सूचना नहीं दी गई थी यह देखकर उन्हें क्रोध हो आया। उन्होंने राजा को जो उस समय सोया हुआ था, शाप दिया कि उसका शरीरांत हो जाए । जब निमि जागे तब उन्हें पता चला कि उन्हें बिना किसी सूचना दिए शाप दिया गया है। उन्होंने वशिष्ठ को ऐसा ही शाप देकर उसका प्रतिकार किया और वह मृत्यु को प्राप्त हो गए। निमि के शरीर को सुरक्षित रख दिया गया। जिस यज्ञ को निमि ने शुरू किया था, उसकी समाप्ति के बाद देवताओं ने ऋषियों के अनुरोध पर यह इच्छा प्रकट की कि निमि को पुनरुज्जीवित कर दिया जाए। लेकिन निमि ने इसे अस्वीकार कर दिया। तब देवताओं ने निमि को उसकी इच्छा के अनुसार सभी जीवित प्राणियों की आंखों में प्रस्थापित कर दिया। इसी कारण सभी प्राणी अपनी आंखें खोलते और बंद करते हैं। (निमिष का अर्थ पलक का उठना और गिरना होता है ) । '
पांचवां प्रसंग वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच विवाद का है। वशिष्ठ ब्राह्मण पुरोहित थे और विश्वामित्र एक क्षत्रिय थे। उनकी हार्दिक इच्छा ब्रह्मर्षि बनने की थी। निम्न उद्धरण रामायण से है जिससे यह पता चलता है कि वह ब्रह्मर्षि क्यों बनना चाहते थे। 'कहते हैं कि प्राचीन काल में कुश नाम का एक राजा था।² वह प्रजापति का पुत्र था। कुश का एक पुत्र था, जिसका नाम कुशनाभ था। वह गाधि का पिता था। गाधि विश्वामित्र का पिता था। विश्वामित्र ने सहस्त्रों वर्ष पृथ्वी पर राज्य किया। एक बार जब वह पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर रहा था, वह वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुंचे जहां अनेक संत, ऋषि, मुनि और भक्त सुखपूर्वक रहते थे। उसे पहले तो वहां ब्रह्मा के पुत्र का आतिथ्य ग्रहण करने में संकोच हुआ, किंतु बाद में उसने अपने साथियों सहित उनका आतिथ्य ग्रहण कर लिया। विश्वामित्र
1. म्यूर, खंड 1, पृ. 316
2. वही, खंड 1, पृ. 397-400
उनकी विलक्षण गौ पर मुग्ध हो गया, जिसने सभी को भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध कराए थे। विश्वामित्र ने पहले तो यह कहा कि एक लाख गौ के बदले वह गौ उनको सौंप दी जाए। उसने कहा कि यह गौ रत्न - स्वरूप है और चूंकि रत्न राजा की संपत्ति होती है अतः इस गौ पर उसका अधिकार है। जब इस कीमत को स्वीकार नहीं किया गया, तब राजा ने और भी कीमत देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। तब वह कृतघ्नतापूर्वक और बलपूर्वक बोला कि यह गौ उसे ले जाने दी जाए, वह बलपूर्वक इस गौ को ले जाएगा। जब वह ऐसा करने लगा, तब वह गौ उसके परिचारकों से अपने को छुड़ाकर अपने स्वामी के पास आ गई और उससे बोली तुम मुझे त्याग रहे हो। उसने उत्तर दिया कि वह उसे नहीं त्याग रहा है, लेकिन राजा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। गौ ने उत्तर दिया, 'लोग क्षत्रिय को बलशाली नहीं समझते। ब्राह्मण अधिक शक्तिशाली होते हैं। ब्राह्मणों का बल अतुलनीय है। विश्वामित्र यद्यपि बहुत शक्तिशाली हैं, लेकिन वह आपसे अधिक शक्तिशाली नहीं हैं। आपमें अपूर्व बल है। आप मुझे ले चलें । आपने ब्रह्मशक्ति से बल अर्जित किया है। मैं इस दुराचारी राजा के गर्व, शक्ति और प्रयत्नों को विफल कर दूंगी।' उसने रंभा - रंभा कर सैंकड़ों पहल्व पैदा कर दिए, जिन्होंने विश्वामित्र के समस्त दल का नाश कर दिया। ये पहल्व विश्वामित्र द्वारा एक-एक कर मौत के घाट उतार दिए गए। तब उसने शक और यवन पैदा किए, जो अत्यंत बलशाली और सशस्त्र भी थे। उन्होंने राजा की सेना का संहार कर दिया। राजा ने इन्हें भी पछाड़ दिया। तब उस गौ ने रंभा कर अपने शरीर से विभिन्न जातियों के योद्धा उत्पन्न कर दिए। इन योद्धाओं ने विश्वामित्र की सारी सेना, पदातिकों, हाथियों, अश्वों, रथों आदि को नष्ट कर दिया। तब राजा के सैंकड़ों पुत्र विभिन्न शस्त्र धारण कर क्रोध में भर वशिष्ठ की ओर झपटे, लेकिन वे सभी ऋषि के मुख से निकलने वाली आग में झुलस कर भस्म हो गए । विश्वामित्र इस प्रकार अब निस्सहाय हो गया। उसने अपने एक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बना दिया और वह हिमालय की ओर चला गया, जहां वह तप करने लग गया। उसने वहां भगवान शंकर के दर्शन किए। उन्होंने उसकी प्रार्थना पर उसे युद्धकला की विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं की शिक्षा दी और दैवी अस्त्र प्रदान किए, जिनके बल पर उसने वशिष्ठ के आश्रम को उजाड़ डाला और वहां के निवासी भागने लगे । वशिष्ठ ने तब विश्वामित्र को चुनौती दी और उन्होंने अपने ब्रह्मदंड को उठा लिया। विश्वामित्र ने भी अपने आग्नेयास्त्र को उठा लिया और अपने शत्रु को ललकारा। वशिष्ठ ने उसे अपनी शक्ति के प्रदर्शन की चुनौती दी और कहा कि वह उसके गर्व को शीघ्र चूर्ण कर देंगे। वह बोले, 'क्षत्रिय के बल और ब्राह्मण के बल में यह तुलना कैसी? नीच क्षत्रिय, मेरा ब्रह्मतेज देख। तब गाधि के पुत्र के द्वारा फेंका गया आग्नेयास्त्र ब्राह्मण के दंड से परास्त हो गया, जैसे अग्नि जल से शांत हो जाती है। विश्वामित्र द्वारा तब बहुत से दैवी प्रक्षेपास्त्र, जैसे ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश और विष्णु चक्र तथा शिव का त्रिशूल अपने शत्रु पर फेंके गए। लेकिन ब्रह्मा के पुत्र ने इन सभी को अपनी प्रबल गदा के आघात से चूर्ण कर दिया। अंत में उस योद्धा ने ब्रह्मा का भयंकर अस्त्र फेंका, जिस पर सभी देवता स्तब्ध रह गए। यह अस्त्र भी ब्राह्मण ऋषि का कुछ न कर सका। वशिष्ठ ने अब रौद्र रूप धारण कर लिया था। उनके शरीर के हर छिद्र से अग्नि और धुआं निकल रहा था। उनके हाथ में ब्रह्मदंड निर्धूम अग्नि पिंड या यमराज का दंड जैसा लग रहा था। ऋषि-मुनियों द्वारा शांत किए जाने पर, जिन्होंने उनको अपने प्रतिद्वंद्वी से श्रेष्ठ घोषित किया, वशिष्ठ ने अपने क्रोध को शांत किया। विश्वामित्र तब कराहते हुए बोला, क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्राह्मण की शक्ति ही शक्ति है। ब्राह्मण के एक ही दंड द्वारा मेरे समस्त शस्त्रास्त्र नष्ट हो गए।
'इस प्रकार पराजित राजा के लिए इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता कि वह इस असहाय, हीन अवस्था में मौन धारण कर ले, या वह ब्रह्मत्व के पद को प्राप्त करने के लिए अपनी उन्नति का प्रयत्न करे। उसने अंतिम विकल्प को चुना। 'इस पराभव पर पूर्ण विचार कर मैं अपनी इंद्रियों और चित्त को अपने वश में कर कठोर तप करूंगा, जो मुझे ब्राह्मणत्व के पद पर ले जाएगा।' वह अत्यंत विषण्ण तथा संतप्त हो अपने शत्रु के प्रति घृणा का भाव भर आर्तनाद करता अपनी पत्नी के साथ दक्षिण की ओर चला आया और अपने संकल्प को पूरा करने लग गया। एक सहस्त्र वर्ष बाद ब्रह्मा प्रकट हुए और उन्होंने यह घोषणा की कि उसने राजर्षि का पद प्राप्त कर लिया है। उसकी कठोर तपस्या के फलस्वरूप लोग उसे राजर्षि के पद को प्राप्त हुआ समझने लगे।'
ऐसा प्रतीत होता है कि यह संघर्ष सुदास नाम के राजा के शासनकाल में शुरू हुआ था, जो इक्ष्वाकु वंश के थे। वशिष्ठ सुदास के कुल पुरोहित थे। किसी कारण से, जो स्पष्ट नहीं, बताया जाता है कि सुदास ने विश्वामित्र को अपना कुल पुरोहित नियुक्त कर दिया। इससे विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच बैर हो गया। एक बार यह बैर-भाव हो जाने पर दीर्घ समय तक चलता रहा।
दोनों के बीच इस संघर्ष ने विचित्र मोड़ ले लिया। यदि विश्वामित्र किसी विवाद में फंस जाते हैं तो वशिष्ठ बीच में आ कूदते और विश्वामित्र का विरोध करने लगते। वह एक-दूसरे को नीचा दिखाने जैसा कार्य था ।
इस संबंध में पहली घटना सत्यव्रत से संबंधित है, जिसका एक नाम त्रिशंकु भी था। इस कथा का वर्णन हरिवंश में हुआ है, जो निम्नलिखित है:
'इस बीच वशिष्ठ राजा (सत्यव्रत के पिता) और अपने बीच यजमान और पुरोहित का संबंध होने के कारण अयोध्या नगर, राज्य और रनिवास का प्रबंध करने लग गए।¹ लेकिन सत्यव्रत या तो मूर्खतावश या दैवी प्रेरणा वश वशिष्ठ से निरंतर अधिकाधिक
1. म्यूर खंड 1, पृ. 377-378
क्रुद्ध रहने लगा, जिन्होंने उसके पिता को किसी (उचित) कारण से उसे राज्याधिकार से वंचित करने से नहीं रोका था। सत्यव्रत बोला विवाह संस्कार तभी वैध होता है जब सप्तपदी हो जाए। जब मैंने उस सुंदरी का हरण किया था, तब यह सप्तपदी नहीं हुई थी, लेकिन वशिष्ठ ने जो धर्म के नियम जानते हैं, मेरी कोई सहायता नहीं की। इस प्रकार सत्यव्रत मन ही मन वशिष्ठ के प्रति क्रुद्ध रहने लगा, जिन्होंने एक दृष्टि से वही किया जो उचित था। न सत्यव्रत ने अपने पिता द्वारा आरोपित मौन व्रत को ( उसके औचित्य को) समझा... जब उन्होंने उस कठिन तप का समर्थन किया, तब उन्होंने यह समझा कि उन्होंने उसके परिवार की प्रतिष्ठा को बचा लिया है। पूज्य मुनि वशिष्ठ ने (जैसा कि ऊपर कहा गया है) उसके पिता को उसे राज्याधिकार से वंचित करने से नहीं रोका, बल्कि उन्होंने उसके पुत्र को राजा बनाने का निश्चय कर लिया। जब वह शक्तिमान राजकुमार बारह वर्षों की कठिन तपस्या पूरी कर रहा था और उसके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था, तभी उसकी दृष्टि वशिष्ठ की गौ पर पड़ी जो सभी प्रकार की मनोकामना पूरी करती है। उसने क्रोध, विभ्रम, दुर्बलता के वशीभूत और भूख से पीड़ित हो तथा दस कर्तव्यों की उपेक्षा कर उसकी हत्या कर दी... और उसका मांस अपने खाने के लिए रख लिया तथा कुछ मांस विश्वामित्र के पुत्र को भी खाने के लिए दिया । यह सुनकर वशिष्ठ उस पर कुपित हो गए और उन्होंने शाप देकर उसका नाम त्रिशंकु रख दिया, क्योंकि उसने तीन प्रकार के पाप किए थे । जब विश्वामित्र अपने आश्रम में लौटे, तब वह उस जीविका को देखकर संतुष्ट हुआ जो उसकी पत्नी को मिलती थी और उन्होंने त्रिशंकु से वर मांगने के लिए कहा। जब ऐसा कहा गया, तब त्रिशंकु ने सदेह स्वर्ग जाने का वर मांगा। बारह वर्षों तक अनावृष्टि के सभी कष्ट समाप्त हो गए। मुनि (विश्वामित्र) ने त्रिशंकु को उसके पिता की राजगद्दी पर बिठाया और उसके निमित्त यज्ञ किया। पराक्रमी कौशिक ने देवताओं और वशिष्ठ¹ द्वारा प्रतिरोध किए जाने के बावजूद राजा को सदेह स्वर्ग में प्रतिष्ठित कर दिया।'
1. जैसा कि हरिवंश में एक दूसरी जगह वर्णन आता है कि त्रिशंकु को उसके पिता ने कुवासना से प्रेरित होकर एक नागरिक की पत्नी का हरण करने के अपराध में घर से बाहर कर दिया और वशिष्ठ ने इस निष्कासन को रोकने के लिए कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। यह प्रसंग इसी ओर संकेत करता है।