इसकी पांडुलिपि में टाइप किए हुए तैंतालीस फुलस्केप पृष्ठ हैं। इसके मूल शीर्षक 'ब्राह्मिन्स एंड क्षत्रियाज एंड दि काउंटर - रिवोल्यूशन' (ब्राह्मण व क्षत्रिय तथा प्रतिक्रांति) के कवर पर डॉ. अम्बेडकर द्वारा संशोधित शीर्षक 'ब्राह्मिन्स वर्सेज क्षत्रियाज' (ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय) दिया गया है। यह निबंध पूर्ण लगता है- संपादक
हिंदुओं के धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच अनेक संघर्षों के वृत्तांत मिलते हैं, यहां तक कि इन संघर्षो में अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए एक-दूसरे का रक्तपात भी किया गया मिलता है।
जो सबसे पहला उल्लेख मिलता है, वह राजा वेन का है। वेन एक क्षत्रिय राजा था। ब्राह्मणों के साथ उसके संघर्ष का उल्लेख अनेक लेखकों ने किया है। निम्नलिखित वृत्तांत हरिवंश से लिया गया है।
"प्राचीन काल में अत्रि के गोत्र में प्रजापति ( प्राणियों का स्वामी), धर्म का रक्षक हुआ जिसका नाम अंग था।¹ उसका उस जैसा ही पुत्र था, जिसका नाम प्रजापति वेन था। उसकी मां का नाम सुनीता था, जो मृत्यु की पुत्री थी। वह धर्म के प्रति उदासीन था । मृत्यु की पुत्री के इस पुत्र ने अपने नाना से प्राप्त दोष के कारण अपने धर्म की उपेक्षा की, और माया के वशीभूत हो आसक्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लग गया। इस राजा ने धर्मविहीन आचरण की पद्धति प्रतिष्ठित की, वेदोक्त मर्यादा का उल्लंघन कर वह न्यायविहीन कार्यों में रुचि रखने लगा। इसके शासन में लोग धर्मग्रंथों का अध्ययन न करते हुए और यज्ञ के अंत में होतृ द्वारा उच्चरित होने वाले मंत्रादि के बिना जीवनयापन करने लगे, जिससे देवताओं को यज्ञ में होमे गए सोम का पान होना समाप्त हो गया । "
'कोई भी यज्ञ या पूजा नहीं होगी यह उस प्रजापति का कठोर संकल्प था। उसका विनाश निकट आ रहा था। उसने घोषणा की मैं यज्ञ में आराध्य हूं, यज्ञ भी
1. म्यूर, खंड 1, पृ. 302-303
मैं हूं, मेरे लिए यज्ञ अर्पित किया जाए तथा मेरे लिए ही नैवेद्य अर्पित किया जाए। धर्म की मर्यादाओं का अतिक्रमण वाले राजा से, जो अपने लिए उस पद का दंभ करने लगा जिसका वह पात्र नहीं था, तब मरीचि के नेतृत्व में सभी बड़े-बड़े ऋषियों ने उससे कहा, 'हम सब एक महान (दीर्घसत्र ) यज्ञ करने जा रहे हैं जो अनेक वर्षों तक चलेगा। हे वेन, आप अधर्म का आचरण न करें, यह धर्म की सनातन रीति नहीं है। निस्संदेह, आप हर दृष्टि से अत्रि वशं के प्रजापति हैं और आपने प्रजा की रक्षा करने का दायित्व लिया है।' जब इन बड़े-बड़े ऋषियों ने इस प्रकार कहा तब उस मूर्ख वेन ने, जिसे उचित अनुचित का विवेक नहीं था, उन पर हंसकर कहा, 'मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन धर्म का नियामक है? इस पृथ्वी पर वेद, वीर्य, तप और सत्य में मेरे समान दूसरा कौन है? आप लोग मोहग्रस्त और विवेकहीन हैं और यह नहीं जानते कि मैं ही सभी जीवों और धर्मों का उत्पत्ति स्थल हूं। आपको ज्ञात होना चाहिए कि यदि मैं चाहूं तो इस पृथ्वी को उलट-पलट दूं या इसे जल से आप्लावित कर दूं या आकाश और पृथ्वी को मिलाकर एक कर दूं।' जब वेन अपने मोह और दंभ के कारण वश में नहीं किया जा सका, तब सभी ऋषि क्रोध में भर उठे। उन्होंने उस बलवान और दुर्धर्ष राजा को पकड़ लिया और उसकी बाईं जांघ को रगड़ डाला । इस जांघ के रगड़े जाने पर इससे श्याम वर्ण का एक पुरुष प्रकट हुआ, जो ठिगना था। वह डरा हुआ था। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। अत्रि ने उसे भय से कांपता हुआ देख उससे कहा, ‘निषीथ' (बैठ जाओ ) । वह निषाद वंश का प्रवर्तक हुआ और धीवरों का जनक भी हुआ, जो वेन के विकार से उत्पन्न हुए । '
दूसरा उदाहरण पुरुरवा का है। वह एक और क्षत्रिय राजा था। वह इला का पुत्र और मनु वैवस्वत का पौत्र था। उसका ब्राह्मणों के साथ संघर्ष हो गया। इस संघर्ष का विवरण महाभारत के आदि पर्व में मिलता है जो निम्नलिखित है:
‘इसके बाद इला से मेधावी पुरुरवा का जन्म हुआ।¹ जैसा कि हमने सुना है, वह उसकी माता भी थी और पिता भी। उसने महासागर में तेरह द्वीपों में राज्य किया। उसकी सारी प्रजा देव थी। वह स्वयं भी प्रख्यात था। पुरुरवा को सत्ता का मद हो गया। तब उसने ब्राह्मणों से बैर मोल ले लिया और भारी प्रतिरोध के बावजूद भी उसने उनके सारे रत्न छीन लिए। इस पर स्वर्ग से सनतकुमार आए और उन्होंने उसे चेतावनी दी, जिसे उसने अनसुनी कर दिया। इस पर ब्राह्मणों ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया। जिसके परिणामस्वरूप शक्ति के मद में विमूढ़ हुए इस राजा की मृत्यु हो गई। '
तीसरा संघर्ष नहुष और ब्राह्मणों के बीच हुआ जो कुछ अधिक गंभीर था । नहुष पुरुरवा का पौत्र था। महाभारत में इसका दो स्थानों पर उल्लेख है। एक बार वन पर्व में और दूसरी बार उद्योग पर्व में निम्नलिखित विवरण महाभारत के उद्योग पर्व से लिया गया है:
1. म्यूर, खंड 1. पू. 307
'वृत्रासुर वध के पश्चात् इंद्र को ग्लानि हुई कि उन्होंने एक ब्राह्मण की हत्या कर दी है।¹ (क्योंकि वृत्र को ब्राह्मण कहा जाता था ) इस कारण वह जल में छिप गया। देवराज के लुप्त हो जाने पर स्वर्ग और पृथ्वी, सभी जगह अव्यवस्था फैल गई। ऋषियों और देवताओं ने तब नहुष से राजा बनने के लिए निवेदन किया। आरंभ में उसने स्वयं को निर्बल बताकर अनिच्छा प्रकट की, किंतु उनके बहुत कहने पर उसने यह उच्च पद ग्रहण कर लिया। इस पद की प्राप्ति से पूर्व वह सद्जीवन व्यतीत करता था। किंतु अब वह भोग और विलास में लिप्त रहने लगा। यहां तक कि वह इंद्र की पत्नी इंद्राणी को पाने की भी कामना करने लगा, जिसे उसने संयोगवश देख लिया था। रानी अंगिरस बृहस्पति की शरण में गई, जो देवताओं के गुरु थे। उन्होंने उसे अभयदान दिया। इस हस्तक्षेप के विषय में सुनकर नहुष उत्तेजित हो उठा। परंतु देवताओं ने उसे शांत कर दिया और परस्त्री गमन के दोषों की ओर संकेत किया, परंतु उसने एक न मानी और कामासक्त नहुष अपनी बात पर अड़ा रहा कि इस संबंध में वह स्वयं इंद्र से घटकर नहीं था । '
'इंद्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ ऋषि के जीवित रहते हुए दुराचार किया था। ‘तुमने उसे रोका क्यों नहीं? इंद्र ने अन्य अनेक पाशविक और अधार्मिक कृत्य किए हैं, उसने अनेक छल प्रपंच किए हैं। तब तुमने उसे क्यों नहीं रोका?" नहुष के कहने पर वे तब इंद्राणी को लाने गए। परंतु बृहस्पति ने उसे नहीं सौंपा। बृहस्पति के कहने पर इंद्राणी ने नहुष को कुछ मोहलत देने के लिए राजी कर लिया कि वह अपने पति की खोज-खबर कर ले। यह अनुरोध स्वीकार कर लिए जाने पर वह अपने पति की खोज पर निकल पड़ी और उपश्रुति (रात्रि की देवी और रहस्य उद्घाटक ) की सहायता से उसने हिमालय के उत्तर में जाकर इंद्र को ढूंढ़ लिया, जो वहां पर महासागर में स्थित एक महाद्वीप में स्थित एक झील में उग रहे कमल की नाल में अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपा हुआ बैठा था । उसने नहुष की कुत्सित मनोवृत्ति के विषय में इंद्र को बताया और उससे कहा कि वह अपनी शक्ति का उपयोग करे और उसकी रक्षा करे । नहुष की अधिक शक्ति को देखते हुए इंद्र ने तुरंत कोई कदम उठाने से मना कर दिया। परंतु उसने अपनी पत्नी को एक सुझाव दिया, जिसके अनुसार नहुष को उसके पद से नीचे गिराया जा सकता था। उसने उससे यह कहा कि वह नहुष से यह कहे कि वह उस पालकी पर चढ़कर आए जिसे ऋषि ढो रहे हों, तो वह उसके सम्मुख स्वयं को सहर्ष समर्पित कर देगी । '
1. म्यूर, खंड 1, पृ. 310-313
'इंद्राणी ने से कहा नहुष 'हे देवताओं के राजा, मैं चाहती हूं कि आपका वाहन ऐसा हो जो सर्वथा नवीन हो जैसा न विष्णु के पास हो, न रुद्र के पास और न ही असुरों और राक्षसों के पास । हे देव! सभी प्रमुख ऋषि परस्पर मिलकर आपकी पालकी उठाएं। इससे मुझे सुख मिलेगा। नहुष ने गर्व में भरकर इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और अपनी प्रशंसा करते हुए उसने यह उत्तर दिया- 'मैं इतना निर्बल नहीं हूं कि जो ऋषि मुनियों को अपनी पालकी का वाहक न बना सकूं। मैं महाशक्ति का अनन्य भक्त हूं, भूत, भविष्य और वर्तमान का स्वामी हूं। यदि मैं क्रुद्ध हो जाऊं तो पृथ्वी ठहर नहीं सकती। सब कुछ मुझ पर निर्भर है... इसलिए हे देवी! तुम जो कहती हो उसे मैं पूरा करूंगा। सप्तऋषि और सभी ब्रह्मऋषि मुझे ढोएंगे। हे सुंदरी! मेरा प्रताप और मेरा ऐश्वर्य देखना।' तदनुसार उस दुरात्मा, अधर्मी, अत्याचारी, मदांध, स्वेच्छाचारी ने ऋषियों को अपने वाहन में जोत दिया और चलने का आदेश दिया। इंद्राणी तब फिर बृहस्पति के पास गई। उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि नहुष अपनी क्रोधाग्नि से स्वयं भस्म हो जाएगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि मैं आततायी के इस विनाश और इंद्र के छिपने के स्थान का पता लगाने के लिए स्वयं एक यज्ञ करूंगा।
'इसके बाद इंद्र की खोज करने और उन्हें बृहस्पति के पास लाने के लिए अग्नि को भेजा गया। बृहस्पति ने इंद्र को आने पर बताया कि उसकी अनुपस्थिति में क्या-क्या हुआ। जिस समय इंद्र कुबेर, यम, सोम और वरुण के साथ नहुष के विनाश की बात सोच रहे थे, तभी अगस्त्य ऋषि आए और इंद्र को उसके प्रतिद्वंद्वी के पतन की सूचना देकर बधाई दी। उन्होंने इस प्रकार कहा: 'पापी नहुष को ढोते हुए जब देवता और शुभ्र ब्राह्मण ऋषिगण थकने लगे तो उन्होंने नहुष से एक कठिनाई हल करने के लिए कहाः वासव ! आप सभी योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं। क्या आप उन ब्राह्मण मंत्रों को श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं, जो पशुओं की बलि के समय पढ़े जाते हैं? 'नहीं' नहुष ने कहा । उसकी मति भ्रष्ट हो गई थी। ऋषियों ने प्रतिवाद किया और कहा- 'तुमने अधर्म में फंसकर धर्म-परायणता गंवा दी है। हम इन मंत्रों को श्रेष्ठ समझते है। जिनका हमारे पूर्व महर्षि पाठ करते थे। तब ( अगस्त्य ने आगे कहा) नहुष ने अधर्म से प्रेरित होकर मेरे सिर पर लात मारी। इसके परिणामस्वरूप राजा का गौरव समाप्त हो गया और उसका ऐश्वर्य विलीन हो गया। वह तुरंत घबरा उठा और भयाक्रांत हो उठा। मैंने उससे कहा, अरे बेवकूफ, तूने उन ब्राह्मण मंत्रों का निरादर किया है जो प्राचीन ऋषियों द्वारा रचे गए हैं और जो ब्राह्मण ऋषियों के द्वारा प्रयुक्त होते रहे हैं। तूने मेरे सिर पर लात मारी है। तूने ब्राह्मण ऋषियों से चाकरी करवाई है और अपने ढोने के लिए ऋषियों से पालकी उठवाई है। तेरी कुवासना के फलस्वरूप तेरे सारे पुण्य नष्ट हो गए हैं। तेरा पतन हो जाए तू स्वर्ग से गिरकर पृथ्वी पर जा और सहस्त्रों वर्षों तक एक अजगर के रूप में जीवन बिता। जब यह अवधि समाप्त होगी, तू स्वर्ग में आ सकेगा। ' इस प्रकार वह पापी देवताओं के राजा के पद से च्युत हो गया । हे इंद्र! अब हमें सुखी होना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों का शत्रु नष्ट हो गया है। तुम तीनों लोकों की सत्ता संभालो । वहां के प्राणियों की रक्षा करो। हे शचीपति अपनी इंद्रियों को वश में रख अपने शत्रुओं का नाश करो और ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करो । '