II
यदि पुष्यमित्र की क्रांति केवल राजनीतिक क्रांति थी, तब बौद्धों पर व्यापक रूप से अत्याचार करना उसके लिए कोई जरूरी नहीं था। यह तो लगभग वैसा ही कार्य था, जैसा गजनी के मोहम्मद ने हिंदू धर्म के साथ किया था। यह एक परिस्थितिजन्य साक्ष्य है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पुष्यमित्र का उद्देश्य बौद्ध धर्म को समाप्त करना और उसके स्थान पर ब्राह्मणवाद की स्थापना करना था।
एक अन्य साक्ष्य द्वारा यह पता चलता है कि मौर्य लोगों के विरुद्ध पुष्यमित्र ने जिस क्रांति का सूत्रपात किया, उसका उद्देश्य बौद्ध धर्म का विनाश और उसके स्थान पर ब्राह्मणवाद की स्थापना करना था, जो कि विधि संहिता के रूप में मनुस्मृति को अपनाए जाने के बारे में की गई घोषणा से स्पष्ट है।
मनुस्मृति को ईश्वरीय कृति कहा जाता है। यह कहा जाता है कि इसे स्वयंभू (अर्थात् ब्रह्मा) ने मनु को सुनाया था और बाद में मनु ने इसे मनुष्यों को बताया। यह दावा स्वयं
1. बनफ ल 'इंट्रोडक्शन अल हिस्टरी' ऑन बुद्धिज्म, इंडियन, (दूसरा संस्करण). पृ. 388
2. बुद्धिस्टिक स्टडीज (सं. लॉ), अध्याय 34, पृ. 820 में श्री हरप्रसाद शास्त्री का लेख देखें ।
स्मृति में किया गया है। यह आश्चर्यजनक बात है कि किसी ने भी इस दावे के आधारों की जांच करने की चिंता नहीं की। इसका फल यह हुआ कि भारत के इतिहास में मनुस्मृति की विशेषता, स्थान और महत्त्व का मूल्यांकन करने में कोई भी सफल नहीं हो सका है। हालांकि हिंदू समाज एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति से होकर गुजरा था और मनुस्मृति इसका अभिलेख है, तो भी यह बात भारत के इतिहासकारों पर भी लागू होती है। लेकिन यह भी सत्य है कि मनुस्मृति ने अपने कृतिकार के विषय में जो दावा किया है, वह बिल्कुल झूठा है और इस झूठे दावे के कारण जो आस्थाएं उपजी हैं, वह कोई तर्कसंगत नहीं हैं।
प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु की आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।¹ भृगु की इस कृति का वास्तविक नाम मनु की धर्म-संहिता है। भृगु का नाम इस संहिता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जोड़ दिया गया है। इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शताब्दी में नारदस्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार सुमति भार्गव नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु संहिता की रचना की। सुमति भार्गव कोई काल्पनिक नाम नहीं है। अवश्य ही यह कोई ऐतिहासिक व्यक्ति रहा होगा। इसका कारण यह है कि मनुस्मृति के महान टीकाकार मेधातिथे² का यह मत था कि यह मनु निश्चय ही कोई 'व्यक्ति' था। इस प्रकार मनु नाम सुमति भार्गव का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे।
सुमति भार्गव ने इस संहिता की रचना कब की ? यह संभव नहीं है कि इसकी रचना की सही तिथि बताई जाए। परंतु वह सही अवधि दी जा सकती है, जिसमें इस ग्रंथ की रचना की गई। कुछ ऐसे विद्वानों के अनुसार, जिनकी विद्वता पर संदेह नहीं किया जा सकता, सुमति भार्गव ने इस संहिता की रचना ईसा पूर्व 170 और ईसा पूर्व 150 के मध्य-काल में की और इसका नाम जान-बूझकर मनुस्मृति रखा। अब यदि हम इस तथ्य पर ध्यान दें कि पुष्यमित्र ने ब्राह्मणवाद की क्रांति ईसा पूर्व 185 में प्रारंभ की थी, तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि पुष्यमित्र ने मनुस्मृति नामक जिस संहिता को लागू किया, वह मौर्यों के बौद्ध राज्य के विरुद्ध ब्राह्मणवाद की क्रांति के सिद्धांतों का मूर्त रूप थी और यह कि मनुस्मृति ब्राह्मणवाद की अनेक संस्थाओं की उत्स थी।
1. इस बात के लिए जायसवाल की पुस्तक हिंदू पोलिटी में मनु और याज्ञवल्क्य विषयक अध्याय देखें।
2. कमेंट्री ऑन मनु 1.1
जो भी व्यक्ति मनुस्मृति की निम्नलिखित विशेषताओं पर ध्यान देगा उसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि पुष्यमित्र ने जिस क्रांति का आह्वान किया, वह केवल व्यक्तिगत आधार पर शुरू किया गया कोई साहसपूर्ण कार्य नहीं था ।
पहली ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनुस्मृति एक नवीन विधि संहिता है, जिसे पुष्यमित्र के शासन-काल में पहली बार प्रवर्तित किया गया था। पहले लोग यह समझते थे कि कोई मानव - धर्म - सूत्र नामक एक संहिता थी और जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, वह उसी पुरानी मानव-धर्म-शूत्र संहिता के आधार पर बनी है। बाद में इस मत पर लोगों का विश्वास नहीं रहा क्योंकि इस प्रकार की किसी कृति का कोई चिह्न उपलब्ध नहीं हुआ। वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रंथ विद्यमान थे। इनमें से एक मानव अर्थशास्त्र अथवा मानव राजशास्त्र अथवा मानव राजधर्म शास्त्र के नाम से एक पुस्तक बताई जाती थी । एक अन्य पुस्तक मानव गृह सूत्र के नाम से जानी जाती थी। विद्वानों ने मनुस्मृति की तुलना की है। महत्वपूर्ण विषयों पर एक ग्रंथ के उपबंध दूसरे ग्रंथ से केवल असमान ही नहीं हैं अपितु दूसरे ग्रंथ में दिए गए उपबंधों से प्रत्येक दशा में भिन्न हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि मनुस्मृति में नए शासन की नवीन विधि दी गई है।
मनुस्मृति में बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध स्पष्ट व्यवस्थाएं दी गई हैं, जिनसे यह पता चलता है कि पुष्यमित्र का नवीन शासन बौद्धों और बौद्ध धर्म का विरोधी था । इस संबंध में मनुस्मृति के निम्नलिखित सूत्रों पर ध्यान दीजिए :-
9.225. जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं... राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दें।
9.226. राजा के साम्राज्य में रहने वाले छद्मवेश में ये डाकू अपने कुकृत्यों से संभ्रात जगत को अनवरत हानि पहुंचाते हैं।
5.89. जल का तर्पण उन लोगों (आत्माओं) को अर्पित नहीं किया जाएगा जो (निर्धारित अनुष्ठानों की उपेक्षा करते हैं और जिनके लिए यह कहा जाता है कि ) उनका जन्म व्यर्थ ही हुआ है; ऐसे लोगों को भी जल तर्पण नहीं किया जाएगा जो जातियों के अवैध समागम से उत्पन्न हुए हैं; उन लोगों का भी जल तर्पण नहीं किया जाएगा जो संन्यासी (विधर्मी वर्गों के लोग ) हैं और उन लोगों को जल-तर्पण नहीं किया जाएगा, जिन्होंने आत्महत्या की है।
5.90. उन महिलाओं ( की आत्माओं को जल-तर्पण नहीं किया जाएगा ) जो विधर्मी पंथ में सम्मिलित हो गई हैं।
4.30. वह (गृहस्थ ) वचन से भी विधर्मी तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे) को सम्मान न दे।
12.95. वे सभी परंपराएं और वे सभी दर्शन की हेय पद्धतियां, जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं।
12.96. वे सभी (सिद्धांत) जो (वेद) से विमुख हैं, उत्पन्न होते और (शीघ्र ही ) मिट जाते हैं, वे व्यर्थ हैं और झूठे क्योंकि वे अर्वाक् (अर्थात् इस समय के हैं रचे हुए) हैं।
वे कौन से विधर्मी हैं जिनके बारे में मनु ने संकेत किया है और वे नए राजा से किसे चाहते हैं कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे और वह कौन-सा गृहस्वामी है, जिसके लिए उसके जीवन काल में और मृत्यु के बाद आदर देने की बात नहीं उठती? आधुनिक युग का यह व्यर्थ का दर्शन क्या है जो वेदों से भिन्न है और अज्ञान पर आधारित है तथा जिसका निश्चय ही विनाश हो जाएगा? इसमें कोई संदेह नहीं कि मनु के शब्दों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलंबी है, और वेदों से भिन्न आधुनिक युग का दर्शन जिसे निस्सार कहा गया है, बौद्ध धर्म है। मनुस्मृति के एक अन्य टीकाकार कुल्लुक भट्ट स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनु के इन श्लोकों में विधर्मियों से तात्पर्य बौद्ध धर्मावलंबियों और बौद्ध धर्म से है ।
तीसरा साक्ष्य वह स्थान है जो मनुस्मृति के लिए निर्धारित किया गया है। मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोकों पर ध्यान दीजिए :
1. 93. ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण, ज्येष्ठ होने से, वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही संपूर्ण सृष्टि का स्वामी होता है।
1.96. समस्त सृजन में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ हैं, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।
1.100. पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब ब्राह्मणों का है, अर्थात् ब्राह्मण अच्छे कुल में जन्म लेने के कारण इन सभी वस्तुओं का स्वामी है।
1.101. ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है। तथा दूसरे व्यक्ति की कृपा से इन सबका भोग करते हैं।
10.3. जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।
11.35. ब्राह्मण के बारे में यह घोषित है कि वह विश्व का सृजक, दंडदाता, अध्यापक है और इसलिए सभी सृजित मानवों का उपकारक है, कोई भी व्यक्ति जो अहितकारी नहीं कह सकता और न उसके विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग कर सकता है।
मनु आगे दिए गए शब्दों के द्वारा ब्राह्मणों को असंतुष्ट करने के विरोध में राजा को यह चेतावनी देता है :
9.313. (राजा) को घोरतम विपत्ति में भी ब्राह्मणों को क्रुद्ध होने के लिए उत्तेजित नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण क्रोधित होने पर उस राजा को उसकी सेना, हाथियों, घोड़ों, वाहनों को नष्ट कर सकते हैं।
मनु ने इससे आगे भी घोषणा की है। :
11.31. नियमों को अच्छी तरह जानने वाले ब्राह्मण को किसी दुःखदायी आघात की स्थिति में राजा से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अपनी शक्ति द्वारा ही उस व्यक्ति को दंड दे सकता है जो उसे आघात पहुंचाता है।
11.32. उसकी निजी शक्ति जो केवल उसी पर निर्भर करती है, राजकीय शक्ति से प्रबल होती है जो दूसरे व्यक्तियों पर निर्भर है। अतः ब्राह्मण अपनी शक्ति से ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।
ब्राह्मणों को देवता स्वरूप समझना और उन्हें राजा से ऊंचा स्थान देना तब तक संभव नहीं होगा जब तक राजा स्वयं ब्राह्मण न हो और मनु द्वारा व्यक्त विचारों से सहानुभूति न रखता हो। पुष्यमित्र और उसके उत्तराधिकारियों ने ब्राह्मणों के इन अतिशयोक्तिपूर्ण दावों को सहन नहीं किया होगा, जब तक कि वे स्वयं ब्राह्मण न रहे होंगे और ब्राह्मणवाद की स्थापना में रुचि न रखते होंगे। वास्तव में यह अधिक संभव है कि मनुस्मृति पुष्यमित्र के ही आदेश पर रची गई थी। यह ग्रंथ ब्राह्मणवाद का दर्शन-ग्रंथ है।
इन सभी तथ्यों पर ध्यान देने के बाद अब कोई संदेह नहीं रहता कि पुष्यमित्र की क्रांति का एकमात्र उद्देश्य बौद्ध धर्म का विनाश करना तथा ब्राह्मणवाद की पुनः स्थापना
करना था।
भारत का इतिहास जिस रीति से लिखा गया है, उससे मैं अगर संतुष्ट होता, तब इस अध्याय के लिए भारत के इतिहास के बारे में मेरी उपर्युक्त टिप्पणी की कोई आवश्यकता नहीं थी। सच तो यह है कि मैं बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूं। इसकी वजह यह है कि मुसलमानों के हमलों और इन हमलों में उनकी जीत पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है। पन्ने पर - पन्ने यह दिखाने के लिए लिखे गए हैं कि किस तरह एक के बाद एक मुसलमानों के हमले इस तरह होते गए, जैसे पहाड़ की चोटी से बरफ और चट्टानें बार-बार गिर रही हों, और इन हमलों ने कैसे गांव के गांव उजाड़ दिए और शासकों को अपदस्थ करते गए। भारत के इतिहास से यह बताने की कोशिश की गई कि इसमें एक ही महत्त्वपूर्ण बात मुसलमानों के आक्रमणों की सूची है। लेकिन अगर इसी संकीर्ण दृष्टि से देखा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुसलमानों के आक्रमण ही पठनीय नहीं हैं। यहां ऐसे ही अनेक आक्रमण हुए हैं, जो भले ही कोई अधिक महत्त्वपूर्ण न रहे हों। अगर हिंदू भारत पर मुसलमान आक्रमण कारियों ने आक्रमण किए तो बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमणकारियों ने आक्रमण किए थे। हिंदू भारत पर मुसलमानों के आक्रमण और बौद्ध भारत पर ब्राह्मणों के आक्रमण, , दोनों में बहुत-सी समानताएं हैं। हिंदू भारत के मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपने-अपने वंश की समृद्धि के लिए परस्पर लड़ाइयां लड़ीं। अरबों, तुर्कों, मंगोलों और अफगानों ने आपस में एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन इनमें एक बात समान थी। उनका उद्देश्य मूर्तिपूजा को नष्ट करना था। इसी प्रकार बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रम ाकारियों ने परस्पर अपने ही वंश की श्रीवृद्धि के लिए लड़ाइयां लड़ीं। शुंगों, कण्वों और आंध्रों ने परस्पर एक-दूसरे पर अपनी धाक जमाने के लिए लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन हिंदू भारत पर मुसलमान आक्रमणकारियों की तरह उनका एक समान उद्देश्य था बौद्ध धर्म और मौर्यों द्वारा स्थापित बौद्ध साम्राज्य का विनाश। अगर हिंदू भारत पर मुसलमानों के आक्रमण इतिहासकारों के लिए विवेचन का विषय बन सकते हैं, तो बौद्ध भारत पर ब्राह्मणों के आक्रमण भी विवेचन का विषय होना चाहिए। बौद्ध भारत में बौद्ध धर्म के दमन के लिए ब्राह्मणों ने जो उपाय और साधन अपनाए थे, उन उपायों और साधनों की तुलना में कम हिंसापूर्ण और कठोर नहीं थे, जो मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदू धर्म का दमन करने के लिए अपनाए थे। सामान्य जनता के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पर स्थाई प्रभाव की दृष्टि से यदि हम विचार करें तो कहा जा सकता है कि बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमण का इतना अधिक गंभीर प्रभाव पड़ा कि उसकी तुलना में हिंदू भारत पर मुसलमानों के आक्रमण का प्रभाव वस्तुतः सतही और क्षणिक रहा । मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदू धर्म के बाहरी प्रतीकों, जैसे मंदिरों और मठों आदि को तो नष्ट किया था, लेकिन उन्होंने हिंदू धर्म को न तो निर्मूल किया और न उन्होंने उन सिद्धांतों या मतों से जनता को विमुख करने की ही कोशिश की, जो सामान्य जन के आध्यात्मिक जीवन को संचालित करते थे। ब्राह्मण आक्रमणों के प्रभाव ने उन सिद्धांतों में आमूल परिवर्तन कर दिया, जिनकी शिक्षा बौद्ध धर्म में एक शताब्दी से आध्यात्मिक जीवन के सच्चे और शाश्वत सिद्धांतों के रूप में दी थी और जो जन सामान्य द्वारा जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिए गए और जिनका अनुपालन भी होता था। अगर हम इस रूपक को थोड़ा उलट कर कहें, तो कह सकते हैं कि उन्होंने किसी जलाशय में नहाते वक्त उसके जल को खूब हिलाया - डुलाया व मथा, और यह भी कुछ देर तक किया। उसके बाद वह थक गए और बाहर निकल आए, जिससे जलाशय फिर शांत हो गया। अगर हम हिंदू धर्म के सिद्धांतों को प्रतीक के लिए बालक मान लें तो कहा जा सकता है कि उन्होंने कभी भी जलाशय से बालक को बाहर निकाल कर नहीं फेंका। लेकिन बौद्ध धर्म के विरुद्ध संघर्ष में ब्राह्मणवाद ने तो सब कुछ ही बदल दिया। उन्होंने जलाशय से बौद्ध धर्म रूपी बालक और सारे जल को बाहर निकाल फेंका और उसकी जगह अपना जल भर दिया और वहां अपना बालक ले आए। ब्राह्मणवाद यह देखने के लिए नहीं रुका कि स्वच्छ और सुगंधियुक्त जल की तुलना में जो बौद्ध धर्म के पावन स्रोत से निःसृत हो रहा था, उसका जल कितना मटमैला और गंदा है। ब्राह्मणवाद इस बात पर विचार करने के लिए नहीं रुका कि बौद्ध शिशु की तुलना में उसका अपना शिशु कितना विकृत और कुरूप है। ब्राह्मणवाद ने अपने आक्रमणों के द्वारा बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने के लिए राजनैतिक शक्ति प्राप्त की और उसने बौद्ध धर्म को समूल नष्ट भी किया। इस्लाम ने हिंदू धर्म को नष्ट कर उसके स्थान पर अपने को स्थापित नहीं किया । इस्लाम ने अपने उद्देश्य को कभी भी व्यापक नहीं होने दिया । ब्राह्मणवाद ने यह कार्य किया। इसने बौद्ध धर्म को धर्म के रूप में निकाल बाहर किया और स्वयं उसका स्थान ले लिया।
इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हिंदू भारत पर मुसलमान आक्रमणों के कारण जितना भी प्रभाव उत्पन्न हो सकता था, उसकी तुलना में बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमणों का प्रभाव भारत के इतिहासकारों के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन इतिहासकारों ने उन दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तनों पर बहुत कम ध्यान दिया है, जो मौर्यों द्वारा निर्मित बौद्ध भारत को झेलने पड़े और यदि कहीं कुछ वर्णन हुआ भी तो वहां ऐसे प्रश्नों का सटीक विवेचन करने पर ध्यान नहीं दिया गया जो सहज ही उत्पन्न होते हैं, जैसे शुंग, कण्व और आंध्र कौन थे, उन्होंने बौद्ध भारत को नष्ट क्यों किया जिसका निर्माण मौर्यों ने किया था। इस तरह उन परिवर्तनों का विवेचन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, जो ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म पर विजय पाने के बाद राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में किए थे।