छांदोग्य उपनिषद के कथनानुसारः
"मुझे उपदेश करें।" ऐसा कहते हुए नारद जी सनत्कुमार के पास गए। नारद से सनत्कुमार ने कहा तुम जो कुछ जानते हो, उसे बतलाते हुए मेरे पास आओ, फिर मैं तुम्हें तुम्हारे ज्ञान से आगे उपदेश करूंगा। (2) ऐसा सुनकर नारद ने कहा, "मैं ऋग्वेद पढ़ा हूं, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद भी जानता हूं। सिवाय इनके इतिहास, पुराण रूप पंचमवेद, वेदों का वेद व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, कलानिधि शास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, शिक्षाकल्प, छन्द और चितिरूप ब्रह्मविद्या, भूतशास्त्र, धनुर्वेद, ज्योतिषविद्या, गारुडुविद्या, नृत्य, यह सब मैं जानता हूं। (3) यह सब जानते हुए भी वह मैं केवल शब्दार्थ मात्र ही जानता हूं, आत्मा को मैं नहीं जानता । मैंने आप पूज्यजनों जैसे महापुरुषों से सुना है आत्मज्ञानी शोक को पारकर जाता है। मैं तो शोक करता हूं। ऐसे शोकग्रस्त मुझे शोक से पारकरें, अर्थात् मुझे अभय प्राप्त कराएं। ऐसा सुनकर सनत्कुमार ने नारद से कहा- अभी तक यह जो कुछ तुम जानते हो वह नाममात्र ही है, (4) क्योंकि ऋग्वेद नाम है, यजुर्वेद, सामवेद, चौथा अथर्वण वेद, पांचवां वेद इतिहास पुराण, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात ज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, वेद विद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्योतिष, गारुड़, विद्या संगीतादि कला और शिल्पशास्त्र - ये सब भी नाम ही हैं। (अतः प्रतिमा में विष्णु बुद्धि के समान) तुम नाम की ब्रह्म बुद्धि से उपासना करो। (5) वह जो नाम ब्रह्म है, ऐसी उपासना करता है, जहां तक नाम की गति है, वहां तक नाम के विषय में उस उपासक की यथेष्ट गति हो जाती है। जो "यह ब्रह्म है” इस प्रकार नाम की उपासना करता है। नारद ने कहा, 'क्या नाम से बढ़कर भी कोई वस्तु है ? सनत्कुमार ने कहा, नाम से भी बढ़कर वस्तु है। तब नारद ने कहा, मुझे उसका ही उपदेश करें। "
बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है:
इस (सुषुप्तावस्था में) पिता, पिता नहीं होता है, माता, माता नहीं होती है, अर्थात् वहां जन्य भाव संबंध नहीं रह जाता। लोक, अलोक हो जाते हैं। देव, देव नहीं और वेद, वेद नहीं हो पाते हैं, अर्थात् सभी साध्य - साधन का अभाव हो जाता है। यहां पर चोर, चोर नहीं होता है। भ्रूण हत्यारा, अभ्रूणहत्यारा हो जाता है। चांडाल - चांडाल नहीं रह जाता है। पौल्कस, पौल्कस नहीं हो पाता है। परिव्राजक अपरिव्राजक और वानप्रस्थी अतापस हो जाता है। इस समय संत (प्राणी) का लाभ या हानि से कोई संबंध नहीं रह जाता, न गुण से, न पाप से, क्योंकि तब वह हृदयस्थ समस्त दुखों को विस्तृत कर जाता है। कठोपनिषद का मत निम्न प्रकार से है:
"आत्मा उपदेश से प्राप्त नहीं। न ही ज्ञान से, न पठन-पाठन से वह उसी को प्राप्त होती है जिसे वह चाहे । आत्मा उसी शरीर में वास करती है जिसे वह चुन लेती है । "
"यद्यपि आत्मा का ज्ञान कठिन है तथापि समुचित साधनों से उसे जाना जा सकता है। वह (लेखक) कहता है इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे न तो उपदेश से, न वेदों के ज्ञान से, न बुद्धि से न पुस्तकों के रखने से न मात्र पठन-पाठन से फिर वह कैसे प्राप्य हो, वह यह कहता है?"
उपनिषदों में कितनी प्रतिकूलता है और इनकी दार्शनिकता कितनी असंगत है, इसका आभास तभी हो सकता है जब कोई हिंदुओं की विवाह पद्धति 'अनुलोम' और 'प्रतिलोम' शब्दों का उत्पत्ति समझेगा । उसकी उत्पत्ति के विषय में काणे का कथन है: ¹
'अनुलोम और प्रतिलोम (विवाह की परम्परा) ये दोनों वैदिक साहित्य में दुर्लभ हैं। बृहदारण्यक उपनिषद ( II 1.15 ) और कौषीतकि बृहदारयण्क उपनिषद IV, 18 में ‘प्रतिलोम' शब्द का प्रयोग उस स्थिति के लिए किया गया है, जब कोई ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय के पास जाए। "
अनुलोम का अर्थ है, शास्त्रानुसार सहज परम्परा से कार्य सम्पन्न होना, प्रतिलोम का अर्थ है, सहज परम्परा के विपरीत । श्री काणे के कथनानुसार प्रतिलोम की परिभाषा के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि उपनिषदों को वैदिक साहित्य की मान्यता नहीं है। उन्हें यदि तिरस्कृत भी नहीं किया गया है तो भी वैदिक ब्राह्मणों ने उनका स्थान तुच्छ रखा है। यह समझना एक पहेली है कि ब्राह्मण, जो वेदांत के विरोधी थे, कालातीत में वही उसके समर्थक और पक्षधर क्यों बन गए ।
यह वेदांत की एक पहेली है। एक अन्य बात भी है, केवल वेदांती ही वेद विरोधी नहीं हैं। न वे यह मानते हैं कि मोक्ष का साधन कर्मकाण्ड है। सर्व दर्शन संग्रह के लेखक माधवाचार्य ने वेदों के दो विरोधियों का जिक्र किया है वे हैं चार्वाक और बृहस्पति। वैदिकों पर उनकी आलोचना अधिक तार्किक है। निम्नांकित उद्धरण से चार्वाक का विरोध परिलक्षित होता है जो उन्होंने वेद के विरोध में कहा है। ²
“यदि आपको इस पर आपत्ति है, यदि परलोक में सुख जैसा कुछ नहीं तो बुद्धिमान अग्निहोत्र क्या करें? बल क्यों दे? जिन पर भारी अपव्यय होता है और थकान होती है ? आपकी आपत्ति को कोई भिन्न साक्ष्य नहीं माना जा सकता क्योंकि अग्निहोत्रादि जीविकोपार्जन के साधन मात्र हैं। क्योंकि वेद में तीन दोष हैं। अर्थात् मिथ्या कथन, अन्तर्विरोध और पुनरुक्ति । तब फिर छद्म वेशी जो स्वयं को वैदिक पंडित मानते हैं, तथा परस्पर संघर्षरत रहते हैं, उनमें ज्ञान मार्गी कर्मकांडियों की मान्यताओं को असत्य ठहराते हैं और कर्मकांडी ज्ञान मार्गियों की मान्यताएं ठुकरा देते हैं, अंततः तीनों वेद पोंगापंथियों के असंगत चारण काव्य के रूप में रह जाता है। इस संबंध में प्रसिद्ध लोक कथन इस प्रकार हैं-
'अग्निहोत्र, तीनों वेद, तापस के तीन पद और भस्म रमाकर कुरूप होना, " ये बृहस्पति के कथनानुसार उनकी कमाई के धंधे हैं जो मनुष्यता तथा बुद्धि रहित हैं।
1. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, खंड 2, भाग 1, पृ. 52
2. सर्व दर्शन संग्रह (कावैल द्वारा अनूदित), पृ. 64
बृहस्पति वेदों के विरोध में अधिक साहसी एवं उग्र थे, जैसा कि माधवाचार्य ने उद्धृत किया है। बृहस्पति का तर्क¹ है:
स्वर्ग की कोई सत्ता नहीं है, मोक्ष कुछ नहीं है। न ही पुनर्जन्म होता है। न चार जातियों के कर्म, क्रम आदि कोई वास्तविक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, तापस के तीन पद, और शरीर पर भस्म ईश्वर ने उनकी कमाई का साधन बनाया जो ज्ञान और पौरुष विहीन हैं। ज्योति स्तोम संस्कार में, यदि कोई जीव काट दिया जाता है और यदि वह सीधे स्वर्गगामी होता है तो बलिदाता अपने पिता की बलि क्यों नहीं दे देता ?
यदि श्राद्ध से परलोक संतुष्ट होते हैं तो इहलोक में भी जब कोई यात्रा आरम्भ करता है तो यात्रा प्रबंध करना व्यर्थ है । "
यदि श्राद्ध से परलोक में संतुष्टि होती है तो इहलोक में उन्हें भोजन क्यों नहीं दिया जाता जो स्वर्ग से विमान आने की प्रतीक्षा में बैठे हैं।
जब तक जीवन है तो सुख से क्यों न रहें। क्यों न ऋण लेकर भी घी पिएं। यदि मरणोपरांत देह भस्म बन जाती है तो वापस कैसे आ सकती है?
देह त्याग के पश्चात् कोई यदि परलोक चला जाता है तो वह अपने परिजन के मोह में फंसकर लौट क्यों नहीं आता?
इस प्रकार सब कमाई के धंधे हैं जो ब्राह्मणों ने बना रखे हैं।
ये सभी संस्कार मृतकों के लिए हैं अन्यत्र इनसे कोई फल नहीं मिलता, तीनों वेदों के सृष्टा विदूषक और दुरात्मा हैं।
पंडितों, झारपड़ी, तुरपड़ी के सर्वविदित सूत्र और देवी के लिए परोक्ष पूजा सभी अश्वमेघ की प्रशंसा में हैं।
इनका अन्वेषण इन्हीं विदूषकों ने किया और इसी कारण पुरोहितों को विभिन्न प्रकार से चढ़ावा मिल जाता है।
जबकि इसी प्रकार निशाचरों ने मांस भक्षरण की प्रशंसा की है।
वैदिक ब्राह्मणों और वेदांतियों ने किस प्रकार सांठ-गांठ हो गई, परन्तु उन्होंने चार्वाक और बृहस्पति को क्यों स्वीकार नहीं किया? इस पहेली का उत्तर नहीं मिलता।
1. सर्व दर्शन संग्रह, पू. 10