तीसरी पहेली इस प्रकार है। इसका विवरण देना युक्तिसंगत है, क्योंकि इसका संबंध वेदों और वेदांत से है। केवल ऊपरी तौर पर ही नहीं बल्कि दार्शनिक निरूपण आवश्यक है क्योंकि इससे व्यवस्थावाद के दो विद्वानों का प्रश्न जुड़ा है, जिनका संस्कृत साहित्य में ऊंचा स्थान है। वे हैं, जैमिनि और बादरायण। इनमें पहला मीमांसा का प्रणेता है और दूसरा ब्रह्म सूत्रों का रचयिता है। इनके विषय में, पहले भी जिक्र किया जा चुका है और वैदिक आस्थाओं तथा वेदांतिक अनुमानों के प्रसंग में कुछ संकेत दे दिए गए हैं। अब हमें एक-दूसरे के दर्शन के विषय में इनके विचारों की तुलना करनी है।
इस संबंध में जैमिनि और बादरायण द्वारा विषय प्रतिपादन में दोनों के सादृश्यवाद की ओर सहसा ध्यान आकृष्ट होता है। जैसा कि प्रोफेसर बेलवल्कर ने स्पष्ट कया है, वेदांत-सूत्र कर्मसूत्रों से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। प्रणाली विज्ञान और पारिभाषिकता के संबंध में बादरायण ने बड़ी सावधानी से जैमिनि का अनुसरेंण किया है। श्रुति के पाठ के संबंध में वह जैमिनि के भाष्य को स्वीकार करते हैं। उन्होंने जैमिनि की शब्दावली को उसी भाव से प्रयुक्त किया है, जैसे जैमिनि ने। उन्होंने वैसे ही उदाहरण भी दिए हैं, जैसे जैमिनि ने दिए हैं।
सादृश्यवाद प्रकट करता है कि बादरायण ने यह अनुभव किया होगा कि वह एक विपरीत दर्शन के प्रणेता हैं जिस पर जैमिनि ने प्रहार किया है और प्रहारों का उत्तर उन्होंने जैमिनि की शैली में ही दिया है।
प्रश्न यह है कि क्या बादरायण ने जैमिनि के विरोधी की भूमिका अपनाई? वेदांत के प्रति जैमिनि के व्यवहार पर बादरायण स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैमिनि उनके विरोधी हैं। बादरायण के सूत्र 2-7 में यही कहा गया है और शंकराचार्य ने अपने भाष्य में उसकी व्याख्या की है। जैमिनि का मत है:
"कोई उस समय तक बलि नहीं देता जब तक कि उसे इस बात का ज्ञान न हो कि वह शरीर से भिन्न है और मृत्यु उपरांत वह स्वर्ग जाएगा, जहां उसे बलि का फल प्राप्त होगा। आत्मज्ञान संबंधी ज्ञान किसी का मार्ग दर्शन मात्र है। इस प्रकार बलि का उस पर प्रभुत्व है।"
संक्षेप में जैमिनि के मत में वेदांत का कथन है कि आत्मा देह से भिन्न है और वह देह से अधिक काल तक अस्तित्व में रहती है। ऐसा पर्याप्त नहीं है। आत्मा का मनोरथ स्वर्ग प्राप्ति हो सकता है। किन्तु वह स्वर्गारूढ़ नहीं हो सकती जब तक कि वैदिक यज्ञ न किया जाए। यहीं इनके कर्मकाण्ड की शिक्षा है। इस प्रकार उनका कर्मकाण्ड ही मुक्ति मार्ग है। इस प्रकार ज्ञानकांड निरर्थक है। इसीलिए जैमिनि उन लोगों के विरुद्ध है जो वेदांत¹ में आस्था रखते हैं;
1. देखें बादरायण सूत्र 3. और शंकर की टिप्पणी ।
“विदेह राजा जनक ने यज्ञ किया जिसमें उदारतापूर्वक दक्षिणा दी गई (बृह. 3.1.1.), “मान्यवर! मैं बलि दे रहा हूं ( छांदो. 5.11.5 ) जनक और अश्वपति दोनों ही आत्मज्ञानी थे। यदि वे दोनों ही आत्मज्ञानी थे तो वे मुक्ति पा चुके थे। फिर यज्ञ करने की आवश्यकता ही नहीं थी, परन्तु दोनों प्रसंगों में कहा गया है कि उन्होंने यज्ञ किया। इससे प्रमाणित होता है कि मुक्ति तभी मिल सकती है जब यज्ञ किया जाए और जैसा कि वेदांती कहते हैं, मुक्ति आत्मज्ञान से प्राप्त नहीं होती । "
जैमिनि ने एक रचनात्मक बात कही है कि शास्त्रों में निरापद कथन¹ है " आत्मज्ञान यज्ञ की अपेक्षा गौण है।" जैमिनि इसे उचित² बताते हैं कि दोनों (ज्ञान और कर्म ) समानांतर चलते हैं (मृत आत्मा को फल देने हेतु ) । जैमिनि बादरायण के ज्ञानकांड को स्वतंत्र साधन नहीं मानते। वे इसके दो आधार बताते हैं। प्रथम " आत्म-ज्ञान स्वत: कोई फलदायी नहीं।” द्वितीय "वेदों की सत्ता के अनुसार ज्ञान कर्म की अपेक्षा गौण है । "
बादरायण के ज्ञान-कांड पर जैमिनि की क्या स्थिति है? उनका उल्लेख बादरायण ने अपने सूत्रों 8-17 में किया है।
पहला³ मत है कि जैमिनि ने जिस "आत्मा" का जिक्र किया है, वह सीमित आत्मा है अर्थात् आत्मा और परमात्मा भिन्न है और शास्त्रों में परमात्मा को मान्यता है ।
बादरायण का दूसरा⁴ मत है कि वेद आत्मज्ञान के पक्षधर हैं और वेदों की यज्ञ में भी आस्था है।
बादरायण का तीसरा मत⁵ है कि जिनकी वेदों में निष्ठा है, उन्हें ही यज्ञ की अनुमति है। परन्तु जो उपनिषदों के अनुगामी हैं, उन पर यह निर्देश लागू नहीं। जैसी कि शंकराचार्य ने व्याख्या की है:
"जिन्होंने वेद पढ़े हैं और जो कर्मकांड के ज्ञाता हैं वे यज्ञ करा सकते हैं। उनके लिए यज्ञ कराना निषिद्ध है, जिन्होंने उपनिषदों से आत्मज्ञान अर्जित किया है। ऐसे ज्ञान की कर्मकांड से कोई तुलना नहीं। "
बादरायण का चौथा मत⁶ है कि जन्हें ब्रह्मानंद प्राप्त है, उनके लिए कर्मकांड वैकल्पिक है। जैसा कि शंकराचार्य ने स्पष्ट किया है:
"कि कुछ लोगों ने स्वतः ही कर्मकांड का त्याग कर दिया है। बात यह है कि ज्ञान प्राप्ति के उपरांत भी कुछ लोग दूसरों के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करने हेतु कर्मकांड करना पसंद करते हैं, जबकि कुछ उसका परित्याग कर देते हैं। जो आत्मज्ञानी होते हैं, उनके लिए कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती । "
1. बादरायण सूत्र 4
2. देखें बादरायण सूत्र 5
3. बादरायण सूत्र 6 शंकर की टिप्पणी।
4. बादरायण सूत्र 7 शंकर की टिप्पणी ।
5. देखिए बादरायण सूत्र 8
6. देखिए बादरायण सूत्र 8
उनकी अंतिम और निर्णायक टिप्पणी¹ है कि:
'आत्मज्ञान कर्मकांड का प्रतिरोधी है। इसलिए वह कर्मकांड का साधन नहीं है।' और इसके समर्थन में वे उन शास्त्रों का सहारा लेते हैं² जो संन्यास को चौथा आश्रम मानते हैं और संन्यासियों को कर्मकांड द्वारा नियत यज्ञ से मुक्त रखते हैं।
बादरायण के सूत्रों में अनेक ऐसे सूत्र पाए जाते हैं जो दोनों परम्पराओं के विद्वानों के परस्पर विरोधी विचारों को परिलक्षित करते हैं। परन्तु उपरोक्त में से एक ही पर्याप्त है जिसकी अपनी विशेषता है। यदि कोई इस विषय की उपेक्षा कर देगा तो स्थिति विभिन्न हो जाती है। जैमिनि ने वेदांत को मिथ्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर निंदा की है और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है। इस लांछन के विरुद्ध बादरायण ने क्या किया? क्या उन्होंने भी जैमिनि के कर्मकांड को मिथ्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर निंदा की है और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है? उन्होंने मात्र अपने वेदांत शास्त्र का औचित्य ठहराया है। परन्तु उनसे और अधिक अपेक्षा थी। हम अपेक्षा कर सकते थे कि बादरायण भी जैमिनि के कर्मकांड को मिथ्या धर्म कहते। बादरायण में साहस नहीं है। इसके विपरीत वे क्षमाप्रार्थी बनते हैं। वे स्वीकार कर लेते हैं कि जैमिनि का कर्मकांड शास्त्रों पर आधारित है और शास्त्र प्रामाणिक तथा पवित्र हैं जिनका खण्डन नहीं किया जा सकता ।
यही इतिश्री नहीं है। बादरायण ने कहा कि उपनिषद् के दो भाव हैं। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उपनिषद वैदिक साहित्य के अंग हैं। उनका कथन है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वेदांत अथवा ज्ञानकांड, वेदों के कर्मकांड के विरुद्ध नहीं हैं। दरअसल, बादरायण के वेदांत सूत्र का यही स्वरूप है।
बादरायण का यह सिद्धांत, जो वेदांत सूत्रों का महत्व देता है और जिसके अनुसार उपनिषद वेदों का अंग हैं और वेद तथा उपनिषदों में कोई टकराव नहीं है- यह उपनिषद काल वेद तथा उपनिषद के संबद्ध सूत्रों के विपरीत है। बादरायण का रवैया समझ में नहीं आता। परन्तु यह स्पष्ट है कि बादरायण का मामला एक ऐसे विचित्र और दयनीय व्यक्ति का है जिसने अपना संघर्ष इसी बात को स्वीकार करके प्रारंभ किया कि अपने विरोधी की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया। वेदों में संशयहीनता के संदर्भ में बादरायण ने जैमिनि की सत्ता क्यों स्वीकार कर ली ? उसने सत्य का मार्ग क्यों छोड़ा, एक अटल सत्य का साथ। यह ऐसी पहेली है जिसका उत्तर अपेक्षित है।
1. देखिए बादरायण सूत्र 16
2. देखिए बादरायण सूत्र 17