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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग १६ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

III

     इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि अथर्ववेद मात्र जाद-टोनों इन्द्रजाल और जड़ी-बूटियों की विद्या है। इसका चौथाई भाग जादू-टोनों और इन्द्रजान से युक्त है। किन्तु यही सच नहीं है कि केवल अथर्ववेद में ही जादू-टोनों और इन्द्रजाल की भरमार है, ऋग्वेद भी इससे अछूता नहीं है। इसमें भी काले जादू-टोनों और इन्द्रजाल संबंधी मंत्रों की भरमार है। मैं ऐसे विषयों पर कुछ सूक्त उद्धृत करता हूं :

vedon ki Vishay samagri - Hindu Dharm Ki Paheliyan - dr Bhimrao Ramji Ambedkar

सूक्त 17 वा  (145)

     देवता अथवा इस मंत्र का उद्देश्य सौत से छुटकारा पाना है। ऋषि इन्द्राणी है, अंतिम पद का छंद पंक्ति है, शेष अनुष्टुप है।

     1. मैंने यह अतिशक्तिशाली बल्लरी प्राप्त की है, जो सपत्नी का विनाश करती है, जिसके द्वारा वह स्त्री अपने पति को पुनः प्राप्त करती है ।

     2. हे शुभ देवों द्वारा प्रेषित, शक्तिशाली (गुल्म) मेरी सौत का नाश कर और मेरे पति को केवल मेरा बना।

     3. हे श्रेष्ठ (गुल्म) मैं भी श्रेष्ठों में श्रेष्ठ बनूं और वह जो मेरी सौत है, घृणितों में घृणित बनें।

     4. मैं उसका नाम भी नहीं लूंगी, कोई उससे प्रसन्न न हो, अन्य सौतों को दूर भगा।

     5. मैं विजयी हूं, तू विजेता है, हम दोनों शक्तिशाली होने के कारण सौत पर विजयी होंगे।

     6. मैं तुझे विजयी बनाती हूं। जड़ी अपने सिरहाने, मैं तुझे रखती हूं मुझे और विजयी बना। तेरा मानस मुझ से मिल जाए जैसे एक गाय अपने बछड़े से मिलती है। वह जल की भाँति अबाध प्रवाहित हो।

सूक्त चतुर्थ (155वां )

     एक और चौथे मंत्र का देवता विघ्ननाशक (अलक्ष्यविघ्न) है, 2 और 3 का ब्राह्मणस्पति, 5 का विश्वदेव, भारद्वाज पुत्र श्रिम्बित ऋषि हैं। छंद अनुष्टुप है।

     1. दीनहीन, अभागी, कुरूप (देवी) उन शोषितों के साथ अपने पर्वत पर जा, मैं तुझे डरा कर भगाता हूं।

     2. वह इससे डरे (संसार), दूसरे से डरे (संसार), सर्वगर्भक्षरण करने वाली, तीव्र विषाण बृहस्पति आ, कष्टों को दूर कर ।

     3. उस काष्ठ को ग्रहण कर जो गहन समुद्र में मनुष्य से दूर बहता है। अदमनीय (देवी) दूर समुद्र में जा।

     4. असंगत स्वरों का जाप करने वाले जब सहज रूप से बढ़ते हैं, तू उन्हें भगाता है । इन्द्र के सभी शत्रुओं का नाश हो गया, वे बुलबुलों की भांति विलीन हो गए।

     5. ये (विश्वदेव) चुराए गए पशु लौटा ला उन्होंने अग्नि जागृत की, उन्होंने देवताओं को भोजन दिया, उन्हें कौन जीत सकता है।

सूक्त 12वां (163)

     क्षय रोग निवारण : ऋषि कश्यपपुख विव्रीहन है। छंद है अनुष्टुप् ।

     1. मैं तेरा चक्षु रोग हरण करता हूं। तेरी शिरोपीड़ा, तेरी नासिका, कर्ण, ठोड़ी, मानस, जिव्हा का रोग हरण करता हूं।

     2. तेरी ग्रीवा, तेरी नासिका, तेरी अस्थियों, तेरे संधि-क्षेत्रों, तेरे बाहु, तेरे स्कंध, तेरे बाजुओं का रोग हरता हूं।

     3. मैं तेरी अंतड़ियों, तेरी गुदा, उदर, हृदय, गुर्दे, यकृत और अन्य अंगों का रोग मिटाता हूं।

     4. मैं तेरी जंघाओं, घुटनों, एड़ियों, पंजों, कमर, नितंबों और गुप्तांगों का रोग हरता हूं।

     5. मैं तेरे मूत्र मार्ग, मूत्र - ग्रंथि, बालों, नाखूनों, समस्त शरीर का रोग नष्ट करता हूं।

     6. मैं तेरे प्रत्येक अंग, प्रत्येक बाल, प्रत्येक जोड़, जहां भी रोग हो, उसको मिटाता हूं।

     और क्या चाहिए जिससे स्पष्ट होता है कि वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे आध्यात्मिक अथवा नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता हो न तो उसकी विषय-वस्तु और न ही उसका स्वरूप, वेदों में संशयहीनता का औचित्य ठहराता है, जिसके ढोल पीटे गए हैं। तब ब्राह्मणों ने इतनी दृढ़ता से उन पर पवित्रता का मुलम्मा चढ़ाकर संशय रहित क्यों घोषित किया ?



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