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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग २६  ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     वेद और भगवतगीता, दोनों की शिक्षा की हम मनुस्मृति की उस शिक्षा के साथ तुलना करते हैं, जो मैंने हिंदू धर्म का दर्शन स्पष्ट करने के लिए उदाहरण के रूप में की है। इन दोनों में भी क्या अंतर है? इन दोनों में केवल एक ही अंतर है, वेद तथा भगवतगीता में एक सर्वसाधारण सिद्धांत का विचार है, जब कि मनुस्मृति में उस सिद्धांत की विशेषताएं तथा अन्य विस्तारित बातों को स्पष्ट करने पर ध्यान दिया गया है। लेकिन जहां तक मनुस्मृति, वेद तथा भगवतगीता के सार के संबंध है, ये सभी एक ही नमूने पर बुने गए हैं। इन सभी के भीतर एक ही प्रकार का धागा चलता है और वास्तव में वह सभी एक ही वस्त्र के हिस्से हैं।

Hindutva Ka Darshan Hindi Books - Dr Babasaheb Ambedkar     इसका कारण भी स्पष्ट है । ब्राह्मण, जो कि उपनिषद के अलावा लगभग संपूर्ण हिंदू धर्म साहित्य के लेखक थे, उन्होंने उनके द्वारा रचित सिद्धांतों को स्मृति, वेद तथा भगवतगीता इन सभी में अंतभूर्त करने की उत्तम सावधानी बरती। इसलिए हिंदू धर्म का दर्शन एक जैसा ही होगा, चाहे हम मनुस्मृति अथवा वेद अथवा भगवतगीता को हिंदू धर्म के उपदेश के रूप में लेते हैं।

     दूसरा, ऐसा कहा जा सकता है कि मनुस्मृति कानून की एक पुस्तक है और वह नैतिक आचार-संहिता नहीं है तथा हिंदू धर्म के दर्शन के रूप में, मैंने यहां जो कुछ भी प्रस्तुत किया है, वह केवल कानून का दर्शन है और वह हिंदू धर्म का नैतिक दर्शन नहीं है।

     ऐसा मानने वाले के लिए मेरा उत्तर बहुत सरल है। मेरी यह धारणा है कि हिंदू धर्म में उसका काननन दर्शन तथा उसका नैतिक दर्शन, इन दोनों में कोई भेद नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिंदू धर्म में वैधानिक तथा नैतिक दोनों में भी कोई अंतर नहीं है तथा जो बात वैधानिक है, वही बात नैतिक भी है।

     मेरी इस धारणा के समर्थन के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। हम ऋग्वेद के धर्म शब्द का अर्थ¹ लेते हैं। 'धर्म' शब्द ऋग्वेद में 58 बार मिलता है। उसका प्रयोग छह भिन्न-भिन्न अर्थों में किया गया है। इसका प्रयोग (1) प्राचीन तथा (2) कानून (3) कोई भी ऐसी व्यवस्था जो समाज में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखती है, (4) निसर्ग का मार्ग, (5) किसी पदार्थ की उत्तमता, और ( 6 ) उत्तम तथा बुरे लोगों के कर्तव्य इन बातों को स्पष्ट करने के लिए हुआ है। इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि धर्म शब्द को हिंदू 'धर्म' में दो प्रकार के अर्थ से प्रारंभ से ही प्रयोग किया जा रहा है। यह एक कारण है कि हिंदू धर्म के दर्शन वैधानिक दर्शन, और नैतिक दर्शन में किसी प्रकार का भेद क्यों नहीं है।


1. यह पैरा श्री यशवंत रामकृष्ण डाटे के इस विषय पर लेख से लिया है जो मराठी पत्रिका 'स्वाध्याय नं. 7, 8. प्रथम वर्ष के पृ. 18-21 पर प्रकाशित है।


इससे हम ऐसा नहीं कह सकते है कि हिंदुओं में कोई नैतिक आचार-संहिता नहीं है। निश्चित रूप से उनमें ऐसी आचार संहिता है । परंतु यह बहुत ही उचित होगा कि हम उन आचरण के नियमों की प्रकृति तथा स्वरूप जान लें, जिन्हें हिंदू नीतिक शास्त्र नैतिक कहते हैं।

     हिंदू जिसे नैति मानते हैं, उस आचार संहिता का स्वरूप जानने के लिए यह उचित होगा कि हम अपना कार्य यह मानकर आरंभ करें कि समाज में आचरण¹ के तीन स्तर होते हैं, जिनमें फर्क करना आवश्यक है। (1) मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वभाव से निर्मित होने वाला आचरण, (2) समाज के नियमों से नियंत्रित आचरण, और (3) व्यक्तिगत विवेक बुद्धि से नियंत्रित आचरण । पहले स्तर के आचरण को हम नैतिक आचरण नहीं कहते हैं। वह अनैतिक भी नहीं है। यह आचरण उन शक्तियों द्वारा नियंत्रित होता है, जो अपने उद्देश्य में नैतिक नहीं होती, परंतु परिणामों के लिए मूल्यवान होती है यह शक्तियां शारीरिक सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक होती हैं। इनका एक निश्चित उद्देश्य होता है, जैसे कि भूख मिटाना अथवा शत्रु के विरोध में शस्त्र उठाना। परंतु लक्ष्य वह होता है जो हमारे शारीरिक, अथवा स्वाभाविक रूप से निर्धारित किया जाता है और जब तक इसको केवल एक न टालने की बात मानकर चलते हैं और उसकी तुलना अन्य कीमती तथा स्वीकृत बातों से नहीं करते, तब तक वह उचित रूप से नैति नहीं मानी जा सकती है। दूसरे स्तर का आचरण निस्संदेह सामाजिक है। जहां-जहां मनुष्य गुट बनाकर रहते हैं, वहां-वहां उनके कार्य करने के कुछ निश्चित मार्ग होते हैं जो उस गुट के लिए समान रूप से लागू होते हैं और वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं इन स्वीकृत तौर-तरीकों को उस गुट की लोक-नीति या नैतिकता कहा जाता है। उन नियमों का पालन करना, यही उस गुट का निर्णय है, ऐसा माना जाता है। उस गुट का कल्याण उनके साथ संबद्ध है, ऐसा माना जाता है। प्रत्येक कोई व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह उनका पालन करे और व्यक्ति उनके विपरीत आचरण करता है, तब उसे यह महसूस कराया जाता है कि गुट को यह बात मंजूर नहीं है इस आचरण को हम सही अर्थ में नैतिक आचरण नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इसमें अंतिम उद्देश्य को समाज द्वारा निर्धारित श्रेष्ठ मानक माना गया है। यदि उसे नैतिक कहा गया है तो इसलिए क्योंकि वह समाज की नैतिकता और लोक-नीति के अनुरूप है इसे पारंपरिक रूप से तो नैमि कहा जा सकता है। तीसरे स्तर का जो आचरण है उसे ही केवल सही अर्थ तथा संपूर्ण रूप में नैतिक कहा जा सकता है ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि इस प्रकार से एक व्यक्ति उचित बात को मानता है अथवा उत्तम बात को स्वीकार करता है और उसकी पूर्ति के लिए मुक्त रूप से पूरी लगन से कार्य करता है, वह व्यक्ति किसी बात को केवल इसलिए


1. इसमें मैंने पूर्णतः 'क्राउले एवं तुफ्तृस' की व्याख्या का अनुगमन किया है जो उन्होंने अपनी नीति विषयक पुस्तक में दी है।



नहीं मानता है क्योंकि वह अटल है अथवा उसका पालन इसलिए नहीं करता क्योंकि उसे समाज की मान्यता है। पर व्यक्ति अपने ध्येय का स्वयं चयन करता है और उसे महत्वपूर्ण मानकर उसके लिए स्वयं को जिम्मेदार ठहराता है उसकी नैतिकता विचारों से संबंधित होती हैं।

     इन तीन स्तरों में से किस स्तर पर हिंदुओं की नैतिकता अधिष्ठित है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनकी नैतिकता तीसरे स्तर पर स्थित नहीं। इसका अर्थ यह है कि हिंदू सामाजिक है। किन्तु सही अर्थों में नैतिक नहीं हैं जिन उद्देश्यों को वह प्राप्त करता है उनकी वही जिम्मेदारी नहीं लेता। वह स्वेच्छा से समाज का एक साधन बन जाता है और अनुसरण करने में ही संतोष पाता है। वे अपने समाज से बिना किसी भय के अपना अलग मत व्यक्त करने के लिए मुक्त नहीं है। पाप से संबंधित उसकी जो धारणाएं है, वे उसके अनैतिक चरित्र का एक निश्चित प्रमाण है। विष्णुपुराण में पापकर्मों की एक सूची आती है, जो नौ वर्गों में विभाजित है:

     (1) अतिपातक (घोर पाप) निकट संबंधियों के साथ व्यभिचार जिसके लिए आत्मदहन जैसे प्रायश्चित व्यवस्था का विधान है।

     (2) महापातक (बड़ा पाप ) ब्राह्मण की हत्या, पूजा विधि जल को पीना, ब्राह्मण के ‘सवर्ण अलंकारों की चोरी, गुरु, पत्नी के साथ यौन संबंध और इसके साथ ही ऐसे पाप करने वालों के साथ सामाजिक संबंध रखना ।

     (3) अनुपातक (छोटे इसी प्रकार के पाप ) इनमें कुछ अन्य वर्गों के लोगों की हत्या, झूठे साक्ष्य देना और मित्र की हत्या, संबंध और ब्राह्मण की जमीन अथवा संपत्ति की चोरी करना तथा कुछ विशेष प्रकार यौन संबंध और व्यभिचार आदि का समावेश होता है।

     (4) उपपातक (छोटे पाप) झूठा ब्यान देना, कुछ विशेष धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा करना व्यभिचार, गैर कानूनी कब्जा, बड़े भाई से पहले विवाह करने का अपराध, देवता तथा पितरात्मा के प्रति उत्तरदायित्व न निभाना तथ नास्तिक होना आदि ।

     (5) जाति ब्रह्मसंकर (जाति खोने का पाप ) ब्राह्मण को शारीरिक वेदना पहुंचाना, ऐसी वस्तुओं को सूंघना जिन्हें नहीं सूंघना चाहिए, कुटिल व्यवहार करना तथा कुछ अस्वाभाविक अपराध करना ।

     (6) सामकरीकरण (वर्ग संकर जाति में पतन होने वाले पाप) जंगली अथवा पालतू जानवरों की हत्या ।

     (7) आपवित्रकरण (ऐसे पाप, जो किसी को भिक्षा ग्रहण योग्य नहीं मानते ) नीचे व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और भेंट वस्तु स्वीकार करना । शूद्र की सेवा करना, उसके साथ रहना, उसे पैसा उधार देना और उसके साथ व्यापार करना ।

     (8) मलवाह (ऐसे पाप जो अपवित्र बनाते हैं) पक्षी, जलचर प्राणी, तथा कीड़ों की हत्या करना ऐसे फल अथवा वनस्पति खाना जिससे मद्यपान के समान नशा हो जाता है।

     (9) प्रकीर्ण (मिले जुले) ऐसे सभी पाप कर्म जिनका ऊपर के प्रकारों में समावेश नहीं है।

     पापों की यह पूरी सूची नहीं है परंतु निश्चित ही वह एक लंबी तथा विस्तृत सूची है जो हिंदु के पाप की धारणाओं के बारे में हमें पर्याप्त जानकारी देती है। प्रथम स्थान पर वह मनुष्य का उसकी सुनिर्धारित आचार संहिता के पतित होने का अर्थ व्यक्त करती है। दूसरे स्थान पर उसका अर्थ है, मनुष्य का अस्वच्छ होकर अपवित्र बन जाना। पातक शब्द का मूल अर्थ भी यही है। इसका मतलब है, पतन होना और अस्वच्छ होना। दोनों ही मामलों में हिंदु धारणा के अनुसार पाप आत्मा का रोग है । पहले अर्थ में वह केवल बाहरी आचरण के नियम का उल्लंघन है। दूसरे अर्थ में शरीर का अपवित्र होना, जिसे धार्मिक यात्रा अथवा यज्ञदान दोनों के द्वारा भी स्वच्छ तथा पवित्र बनाया जा सकता है। परंतु आत्मा का अपवित्र होना, जो बुरे विचार तथा उद्देश्यों के कारण होता है, इस अर्थ से यह धारणा कभी भी नहीं रही।

     इस बात से स्पष्ट है कि हिंदुओं की नैतिकता केवल सामाजिक है। इसका अर्थ यह है कि उनकी नैतिकता का स्तर पूर्ण रूप से पारंपरिक तथा औपचारिक है। इस नैतिकता के दो हानिकारक पहलू हैं। प्रथम स्थान पर यह बात निश्चित नहीं है कि इसे हमेशा ईमानदारी और पवित्रता की प्रेरणा से आवेशित किया जाएगा। क्योंकि यह बात तभी हो सकती है जब नैतिकता किसी व्यक्ति की भावना तथा उद्देश्य में बहुत गहरा प्रवेश करती है और जिसके कारण मानवीय आचरण में किसी प्रकार का बहाना करने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है। दूसरे स्थान पर व्यावहारिक नैतिकता मनुष्य के लिए एक प्रकार के रुकावट तथा अपने वहाव में खींचने की शक्ति दोनों ही हैं। वह आम आदमी को रोकने का काम करती है और जो लोग आगे बढ़ना चाहते हैं। उन्हें भी किसी पानी के जहाज के समान लंगर के पीछे जकड़ कर रखने का कार्य करती है। औपचारिक नैतिकता केवल नैतिक स्थिरता का ही दूसरा नाम है। जहां-जहां औपचारिक नैतिकता ही एकमात्र नैतिकता है, उन सभी मामलों में यही बात लागू होती है। परंतु हिंदुओं की औपचारिक नैतिकता गुण सम्पन्न आचरण का एक और भी दुष्ट पहलू है जो उसकी विशेषता है व्यावहारिक नैतिकता गुण आचरण की बात है । सामान्यतः गुण-संपन्न आचरण ऐसा होना चाहिए जो सर्वसाधारण अथवा सार्वजनिक दृष्टि से उत्तम हो। परंतु हिंदु धर्म में गुण संपन्न आचरण का ईश्वर की पूजा अथवा समाज का सर्वसाधारण हित, इनके साथ कोई संबंध नहीं है। हिंदु धर्म में गुण-संपन्न आचरण का संबंध ब्राह्मण के प्रति आदर-सम्मान व्यक्त करने तथा उसे दक्षिणा देने से है। महामानव ब्राह्मण की पूजी करना, यही हिंदू नीति शास्त्र है।



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