ऐसी स्थिति में, यदि मैं हिंदू नीति शास्त्र को भी हिंदू धर्म के दर्शन का अनुमान करने के लिए आधार बनाता हूं, तब भी क्या फर्क पड़ता है? हिंदू धर्म के अधिकांश छात्र यह बात भूल जाते हैं कि जिस प्रकार हिंदू धर्म में कानून और धर्म में कोई अंतर नहीं है, इसी तरह कानून और नीति-शास्त्र, दोनों में कोई अंतर नहीं है। दोनों का संबंध एक ही बात से है। वह बात यह है कि निम्न स्तर के हिंदुओं के आचरण को नियंत्रित करना, ताकि वे श्रेष्ठ हिंदुओं के उद्देश्यों की पूर्ति कर सकें।
तीसरे, यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि मैंने उपनिषद जो कि हिंदू दर्शन का सही स्रोत है, उस पर विचार न करके, हिंदू धर्म के दर्शन का बिल्कुल ही झूठा चित्र प्रस्तुत किया है।
मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैंने उपनिषदों पर विचार नहीं किया है। लेकिन इसके लिए मेरे पास कुछ कारण हैं और मेरा यह विश्वास है कि ऐसा न करने के वह बहुत ठोस कारण हौ हिंदू धर्म दर्शन से मेरा संबंध धर्म के दर्शन के एक भाग के रूप में है। मेरा संबंध हिंदू दर्शन से नहीं है। यदि मेरा संबंध हिंदू दर्शन से होता, तब मेरे लिए आवश्यक हो जाता है कि मैं उपनिषद की छानबीन करूं। परंतु फिर भी उपनिषद् की छानबीन करने के लिए मैं तैयार हूं क्योंकि मैं यह संदेह नहीं रखना चाहता हूं कि जिसे मैंने हिंदू धर्म का दर्शन बताया है, वही वास्तव में उपनिषद का दर्शन भी है।
उपनिषद का दर्शन बहुत ही कम शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। इक्सले द्वारा इसे बहुत ही संक्षेप में उत्तम ढंग से व्यक्त किया गया है।¹ वह कहता है उपनिषद दर्शन इस बात से सहमत है कि
“मन के अथवा किसी वस्तु के हृदय स्वरूप में होने वाले क्रमिक बदलाव के सूत्र के अंतर्गत छुपी हुई स्थायी वास्तविकता अथवा पदार्थ के अस्तित्व को समझने में ही उपनिषद दर्शन का सार है। विश्व का सारभूत पदार्थ है ब्रह्मा और व्यक्ति की ‘आत्मा' और ब्रह्मा तथा आत्मा दोनों भी एक दूसरे के केवल उनकी अभिव्यक्ति, भावना, विचार, इच्छाएं, सुख तथा दुख के कारण अलग हैं, जिसके कारण जीवन का भ्रामक मायाजाल खड़ा होता है जो लोग अज्ञानी होते हैं, वे उसे ही सच्चाई मानते हैं। इसलिए उनकी आत्मा नित्य भ्रांतियों से घिरी रहती है, जो अपनी इच्छाओं के बंधनों में जकड़ कर दुख - यातनाओं की सजा सहन करते हैं। '
उपनिषद के ऐसे दर्शन का भला क्या उपयोग है? उपनिषद के दर्शन का मतलब है स्वचेतना के विनाश द्वारा अपनी इच्छाएं नष्ट करके तथ संन्यास लेकर जीवन के अस्तित्व के संघर्ष के पीछे हटना । जीवन-पद्धति के रूप में हक्सले² ने उसकी बहुत ही कठोर शब्दों में आलोचना की है :
1. इवोल्यूशन एंड ऐथिक्स, पृ. 63
2. इवोल्यूशन एंड ऐधिक्स, पू. 64
"भारतीय संन्यासियों - तपस्वियों ने तपश्चर्या द्वारा शारीरिक रूप से जितना कष्ट सहा उसका अन्यत्र उदाहरण कठिन है। आधुनिक युग की किसी भी संन्यासी मठवादी प्रथा ने मानवीय मन को र्निविकार निंद्रित अवस्था की उस हद तक नहीं गिराया, जो उसकी सर्वमान्य पतिवत्रता का पागलपन की भावना से भर जाने का खतरा उत्पन्न करती हो। "
परंतु उपनिषद के दर्शन की यह आलोचना लाला हरदयाल³ ने उसकी जो सार्वजनिक भर्त्सना की है, उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है, वे कहते हैं -
“उपनिषद यह दावा करता है कि उसके ज्ञान से प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। परिपूर्णता की यह लालसा ही भारत के कृत्रिम अध्यात्मवाद का आधार बन गई है। उपनिषद के यह लेख मूर्ख विचार, असंगत कल्पनाएं तथा भ्रमित करने वाले अनुमानों से भरे हैं और हमने यह बात नहीं समझी कि यह सभी निरर्थक हैं। हम पुराने ही रास्तों पर चल रहे हैं। हम अत्युत्तम यूरोपीयन सामाजिक विचारों का अनुवाद करने के स्थान पर, इन्हीं पुरानी किताबों का संपादन करते रहते हैं। यदि फ्रेडरिक हेरीमन, ब्रयूक्स, बेबेल एनातोले फ्रांस, हार्वे, हाईकाल, जीडिग्स और मार्शल अपना समय डुंस, स्कोटस और थामस एक्वीनस आदि के निबंधों की पुनर्रचना और पेंटाटियूय का कानून तथा बिओवुल्फ की कविता की गुण संपन्नता की चर्चा करने में बिताते, तब यूरोप की स्थिति कैसी रहती? भारतीय विद्वानों तथा बुद्धिजीवियों की जो बातें निरर्थक तथा पुरानी हैं, उनके प्रति एक प्रकार का पागल मोह है। इस प्रकार विकासशील मनुष्यों द्वारा स्थापित संस्थाएं अपने युवकों को वेदों के माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने का उद्देश्य रखती हैं। बुद्धिमानी प्राप्त करने की लालसा में यह कितना गलत कदम है। यह ऐसा प्रयास है, जैसे कोई कारवौं किसी रेगिस्तान से ताजे पानी की खोज में भरे हुए समुद्र के किनारे की ओर चले जा रहा है। भारत के नवयुवकों, अपने दुर्गंधयुक्त आध्यात्मिक ग्रंथों में बुद्धिमत्ता देखने का प्रयास न करो। इनमें शब्दों की अंतहीन कसरत के अलावा कुछ भी नहीं है। राझायू और वोल्टेयर, प्लेटों और एरीस्टोटल, हाइकल और स्पैंसर, मार्क्स और टालस्टाय, रस्किन और कौमटे तथा उसकी समस्याओं को समझना चाहते हैं। "
3. मार्डन रिव्यू, जुलाई,
परंतु, आलोचना को दूर रखें, तब क्या हिंदू धर्म पर सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के रूप में उपनिषद के दर्शन का कोई प्रभाव है? इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उपनिषद दर्शन के हिंदुओं की सामाजिक और नैतिक व्यवस्था पर कोई भी प्रभाव न होने की दृष्टि से यह बहुत ही प्रभावहीन तथा परिणाम शून्य ही रहा है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे के कारणों को जानना इस स्थान पर अनुचित नहीं होगा । एक कारण बिल्कुल स्पष्ट है। उपनिषद का दर्शन अपूर्ण ही रहा और इसके कारण उससे कोई परिणाम प्राप्त नहीं हो सका, जो होना चाहिए था। यह बात तब पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाती है यदि हम यह पूछें कि उपनिषद की क्या प्रमुखता है। प्रो. मैक्समूलर¹ के शब्दों में उपनिषद का मूल स्वर है 'स्वयं को पहचानों'। उपनिषद का ‘स्वयं को पहचानों” का मतलब है, 'सत्य क्या है, उसे जान लो, जो तुम्हारे अहंकार के नीचे दबा हुआ है, और उसे प्राप्त करो तथा उसे उसके श्रेष्ठतम तथा नित्य रूप में जानो। वह ऐसा एक है जिसके समान कोई दूसरा नहीं है, और यही संपूर्ण विश्व की अंतर्मन भावना है।'
आत्मा और ब्रह्म एक है, यह एक सच्चाई है, एक महान सत्य है जो उपनिषदों ने कहा कि उन्होंने खोज निकाला और इसलिए उन्होंने मनुष्य से कहा कि वे उसे जानें। अब उपनिषद का दर्शन परिणाम शून्य क्यों रहा, इसके अनेक कारण हैं। उसकी चर्चा किसी अन्य स्थान पर करना चाहूंगा। परंतु इस स्थान पर मैं केवल एक ही कारण का उल्लेख करता हूं। उपनिषद के तत्ववेत्ता यह बात नहीं समझ सके कि केवल सत्य को जानना ही पर्याप्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को सत्य से प्रेम करना भी सीखना चाहिए । दर्शन और धर्म में जो भेद है, वह दो प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है। दर्शन का संबंध सत्य को जानने के साथ होता है। धर्म का संबंध सत्य पर आस्था करने के साथ होता है। दर्शन अपरिवर्तनय होता है। परंतु धर्म परिवर्तनशील होता है। यह भिन्नताएं एक ही वस्तु के केवल दो पहलू हैं। दर्शन अपरिवर्तनीय होता है। क्योंकि वह केवल सत्य जानने से ही संबंधित है। धर्म परिवर्तनीय है क्योंकि वह सत्य पर आस्था करने से संबंधित है, जैसा कि मैक्सप्लोमन² ने उत्तम प्रकार से स्पष्ट किया है :
'.........जब तक कि धर्म परिवर्तनशील नहीं रहता और किसी वस्तु के लिए हमें प्रेम भावना उत्पन्न नहीं करता है, हमें उस वस्तु के बिना रहना ही उत्तम होगा, जिसे हम धर्म कहते हैं क्योंकि धर्म सत्य की दृष्टि है और यदि हमारी सत्य की दृष्टि के साथ उसके प्रति प्रेम की भावना नहीं रहती है, तब हमारे लिए यही उत्तम होगा कि हम उस दृष्टि को ही न प्राप्त करें। बुरा मनुष्य वही होता है, जिसने सत्य को केवल उसका तिरस्कार करने के लिए देखा है। टेलीसन ने कहा है, 'जब हम किसी को देखते हैं, तब उस पर अत्यधिक प्रेम करना चाहिए।' परंतु ऐसा नहीं होता है। इस बात को उसकी वस्तुपरकता से देखते हुए जो श्रेष्ठ होता है, वह उसकी भिन्नता तथा अंतर के कारण चमकता है जिससे हम भयभीत हो जाते हैं, और जिससे हम डरते हैं, उससे घृणा करने लगते हैं। "
1. हिब्बर्ट लेक्चर 1878, पृ. 317
2. दि नेमिसिस ऑफ इन्इफैक्चुअल रिलीजन, अडेल्फी, जनवरी, 1941
सभी लोकोत्तर दर्शनों की यही नियति है। उनका जीवन के मार्ग पर कोई प्रभाव नहीं रहता। जैसा ब्लेक ने कहा है, 'धर्म राजनीति है और राजनीति बंधुत्व है' दर्शन को धर्म बनाना आवश्यक है। इसका मतलब है कि उसे कार्यरत नीति - शास्त्र बनना चाहिए। वह केवल अध्यात्मवाद नहीं रहना चाहिए। जैसा प्लामन ने कहा है -
‘यदि धर्म एक अध्यात्मवाद बनकर रह जाए और उसके अलावा कुछ भी नहीं, तब एक बात निश्चित है कि उसका सीधे तथा सामान्य मनुष्यों के साथ कोई संबंध नहीं होगा ।
“धर्म को पूर्ण रूप से अध्यात्मवाद की पकड़ में रखने का मतलब है, उसे मूर्खता का विषय बनाना। क्योंकि जिस प्रकार हम किसी ऐसी बात में जो प्रत्यक्ष तथा सजीव रूप से राजनीति में परिणामकारक नहीं है, विश्वास करते हैं उसी प्रकार अंततः धर्म में विश्वास करना भी कठोर शब्दों में एक मूर्खता ही है, क्योंकि किसी परिणामकारक अर्थ से ऐसा विश्वास किसी प्रकार का फर्क नहीं करता और समय तथा आकांक्षा की इस दुनिया में जो बात कोई फर्क नहीं कर सकती, वह अस्तित्वहीन ही होती है । "
इन्हीं कुछ कारणों के कारण उपनिषद का दर्शन परिणामशून्य साबित हुआ ।
इसलिए यह बात निर्विवाद है कि हिंदु नीति - शास्त्र और उपनिषदों के दर्शन के बावजूद, मनु द्वारा उद्घोषित हिंदू धर्म के दर्शन से एक बिंदी अथवा बहुत ही मामूली सी बात भी नहीं मिटाई जा सकी। मनु ने धर्म के नाम पर जो कलंकित शिक्षा दी, उसे नष्ट करने के लिए वे बहुत ही परिणामशून्य तथा शक्तिहीन थे और उनके अस्तित्व के होते हुए भी हम यह भी कह सकते हैं कि -
हिंदू धर्म तेरा नाम असमानता है।