किसी समय पिंडारी तथा ठग जैसे अनेक व्यावसायिक सुसंगठित संगठनों का इन अपराधी जातियों में समावेश होता था।
पिंडारी शस्त्रधारी लुटेरे का एक हिंसक संगठन था। उनका संगठन लुटरों का एक मुक्त सैनिक शस्त्रधारी संगठन था, जो बीस हजार और उससे भी अधिक अच्छे घोड़े एक समय पर रखते थे। वे एक डाकू मुखिया की आज्ञा में रहते थे। उनमें से बहुत शक्तिशाली लुटेरे चित्त नाम के एक मुखिया के पास दस हजार घोड़े थे जिनमें पांच हजार उत्तम घुड़सवार और उसके साथ ही पैदल सेना तथा बंदूकें होती थीं। पिंडारी लोगों के पास ऐसी कोई सैनिक योजना नहीं थी जिसके तहत वे अपने अनियमित सैनिकों के मुक्त गुटों को भर्ती कर सकें ताकि ये लोग व्यावसायिक लुटेरों के संगठन बन जाएं। पिंडारी की महत्वाकांक्षा प्रदेश जीतने की नहीं होती थी। उनका लक्ष्य केवल अपने लिए लूटी संपत्ति तथा धन जमा करना ही होता था। साधारण लूट तथ डाका ही उनका व्यवसाय था। वे कोई नियम नहीं मानते थे, वे किसी के भी अधीन नहीं थे। उनकी किसी के प्रति कोई राजभक्ति नहीं थी । वे किसी का आदर नहीं करते थे और ऊंच-नीच, गरीब सभी लोगों को बिना किसी डर अथवा भेद के लूटते थे।
ठग लोग व्यावसायिक हत्यारों का एक सुसंगठित संगठन था¹, जिसमें 10 से 100 तक लोगों की टोलियां होती थीं, जो विभिन्न भेष में सारे भारत में भ्रमण करती थीं। ये लोग धनवान वर्ग के यात्रियों का विश्वास प्राप्त करते थे और उसके बाद उचित अवसर देखकर उनके गले में रूमाल अथवा फंदा डालकर उनकी गला घोंटकर हत्या करते थे और फिर बाद में उनको लूटकर दफना देते थे। यह सब कुछ किसी विशेष प्राचीन तथा निश्चित संस्कारों के अनुसार और विशेष धार्मिक विधि की पूर्ति के बाद किया जाता था, जिसमें लूट के माल का पवित्रीकरण संस्कार तथा मीठी वस्तु की आहुति दी जाती थी। वे लोग संहार की हिंदुओं की 'काली' देवी के कर्मठ उपासक थे। लाभ के लिए हत्या करना उनके लिए एक धार्मिक कर्तव्य था और उसे पवित्र तथा सम्माननीय व्यवसाय माना जाता था। वास्तव में इन लोगों को इस बात की समझ भी नहीं थी कि वे कुछ गलत कार्य कर रहे हैं और उनकी नैतिक भावनाएं उनके इस कार्य में कोई भी बाधा नहीं बनती थी । काली देवी की इच्छा, जिसके अधिकार के तहत तथा जिसके सम्मान के लिए वे अपने व्यवसाय का पालन करते थे, शुभ-शुभ लक्षणों से उसकी सहमति की बहुत ही जटिल पद्धति के माध्यम से प्रकट की जाती थी। इस आशा के पालन के लिए वे लोग कभी-कभी तो अपने इच्छित शिकार के साथ मीलों तक और कभी-कभी उससे अधिक दूरी तक भी सफर करते थे, कि जब तक उन्हें अपनी इच्छापूर्ति के लिए सुरक्षित अवसर न मिल जाता और जब उनका कार्य पूरा हो जाता था, तब वे अपने आदि देवता के समान में संस्कार पूर्ति करते थे तथा अपनी लूट का बड़ा हिस्सा उसके लिए अलग निकाल कर रखते थे। इन ठग लोगों की अपनी बेमतलब के शब्दों की भाषा थी तथा उसके साथ ही कुछ ऐसे विशेष चिह्न थे, जिनके द्वारा वे भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों में भी अपने सदस्यों को पहचानते थे। इनमें से जो लोग वृद्धावस्था अथवा विकलांग अवस्था के कारण इन कार्यों में क्रियाशील होकर भाग नहीं ले सकते थे, वे चौकीदार, जासूस तथा भोजन पकाने वालों के रूप में उनकी सहायता करते थे। उनके संपूर्ण संगठन के कारण ही वे लोग गुप्त तथा सुरक्षित रूप से अपने कार्य पर जा सकते थे परंतु मुख्य रूप से वह धार्मिक
1. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटोनिका, 11वां संस्करण, खंड 26, पृ. 896
परिवेश था जिसके अंतर्गत वे लोग अपने द्वारा की गई हत्या छुपा सकते थे और इसके कारण ही सदियों तक वे अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे। इस संबंध में यह एक बहुत ही विशेष बात है कि भारत के उस समय के हिंदू एवं मुसलमान शासकों ने ठगी को एक नियमित व्यवसाय के रूप में मान्यता दी थी। ठग लोग राज्य को कर देते थे और उन्हें राज्य बिना दंड के छोड़ देता था ।
अंग्रेजों ने इस देश का शासक बनने के बाद ही ठगों के दमन का प्रयास किया । सन् 1835 तक 382 ठगों को फांसी दी गई और 986 लोगों को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भगाया गया अथवा आजीवन कैद की सजा दी गई। यहां तक कि काफी अंतराल के बाद भी सन् 1879 में पंजीकृत ठगों की संख्या 344 थी और भारत सरकार का ठगी एवं डकैती विभाग सन् 1904 तक अस्तित्व में था। इसके बाद उसका स्थान केंद्रीय अपराध अन्वेषण विभाग ने ले लिया। आज जब कि इन अपराधी जातियों के लिए अपराधियों के संगठित संगठन के माध्यम से जीवन व्यतीत करना संभव नहीं है, फिर भी अपराध करना उनका मुख्य व्यवसाय बना हुआ है।
इन दो वर्गों के अलावा एक तीसरा वर्ग भी है, जो ऐसे लोगों का बना हुआ है, जिन्हें अस्पृश्य नाम से जाना जाता है।
इन अस्पृश्यों के नीचे कुछ अन्य लोग भी हैं, जिन्हें अप्रवेश्य माना जाता है। अस्पृश्य वे लोग होते हैं जिनके स्पर्श करने पर मनुष्य अपवित्र बन जाता है। अप्रवेश्य या पहुंच के बाहर के लोग वे लोग हैं जिनके कुछ अंतर के नजदीक आने पर मनुष्य अपवित्र हो जाता है। नायडी लोगों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे लोग हैं जो न पहुंचने योग्य की श्रेणी में आते हैं और हिंदुजनों में से सबसे नीची जाति के हैं, जो कुत्ते का मांस खाते हैं। ये वे लोग हैं जो भीख मांगने के कार्य में भारी आग्रह करते हैं, और कोई भी पैदल चलने वाले वाहन चलाने वाले अथवा नाव चलाने वाले व्यक्ति का एक आदरयुक्त अंतर रखते हुए वे मीलों तक उसका पीछा करते हैं। यदि उन्हें कुछ दिया जाए तब उसे नीचे जमीन पर रखना चाहिए और भीख देने वाले व्यक्ति से एक पर्याप्त दूरी तक चले जाने के बाद से भिखारी लोग बहुत ही घबराते हुए आगे आते हैं और उसे उठाते है। उन्हीं लोगों के बारे में श्री थर्स्टन कहते है - 'इन आश्रित (नायडी) लोगों का, जिनकी मैंने परीक्षा की और शोरानूस में उनकी गिनती की, यद्यपि वे केवल तीन मील की दूरी पर रहते थे, अपनी परंपरागत अपवित्रता के कारण नदी पर बनाए गए लंबे पुल पर चल नहीं सकते थे, और इसके लिए उन्हें घूमकर अनेक मीलों का रास्ता तय करके आना पड़ता था ।
इनमें न पहुंचने योग्य लोगों के नीचे न देखने योग्य लोग हैं।
मद्रास राज्य के तिन्नेवेल्ली जिले में न देखने योग्य लोगों का एक ऐसा वर्ग है, जिन्हें पूरड वन्नन कहा जाता है उनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्हें दिन में विचरण करने की इजाजत नहीं होती क्योंकि उनका दर्शन भी अपवित्र माना जाता है। इन दुर्भाग्यशाली लोगों को रात्रि के समय कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। वे अंधेरा होने पर अपने घर से निकलते हैं और तब वापस लौटते हैं, जब बिज्जू रीछ के समान किसी भी प्राणी की झूठी आवाज सुनते हैं।
इन सभी वर्गों की कुल जनसंख्या पर हम विचार करें। आदिवासी लोगों की कुल मिलाकर 250 लाख आवादी है। अपराधी जातियां 45 लाख हैं और अस्पृश्यों की संख्या 500 लाख है। इन सबको मिलाकर कुल संख्या 795 लाख बनती है। अब हम यह पूछ सकते हैं कि ये लोग हिंदू धर्म में रहते हुए भी नैतिक, भौतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अध: पतन की अवस्था में कैसे रह रहे हैं। हिंदू जन कहते है कि उनकी संस्कृति अन्य किसी भी संस्कृति से पुरानी है यदि ऐसा है, तब हिंदू धर्म इन लोगों को उन्नत करने में उन्हें ज्ञान देने में तथा उनमें आशा जगाने में असफल क्यों रहा? यह कैसे हो सकता है कि हिंदू धर्म उन्हें सुधारने में भी असफल हो गया ? यह कैसे हो सकता है कि जब लाखों लोग शर्मनाक तथा अपराधी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो रहे थे तब हिंदू धर्म हाथ बांधकर खड़ा रहा? इन सब प्रश्नों का क्या उत्तर है? इन सबका केवल एक ही उत्तर है कि हिंदू धर्म अपवित्रता के भय से व्याकुल है। उसमें शुद्धता लाने की शक्ति नहीं है। उसमें सेवाभाव की चेतना ही नहीं है और ऐसा इसलिए है क्योंकि उसकी मूल प्रकृति अमानवीय तथा अनैतिक है उसे धर्म कहना ही गलत बात है। इसका दर्शन, जिसके लिए धर्म का अस्तित्व है, उसका ही विरोधी है ।