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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग २२  ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     अब मैं उपयोगिता के दृष्टिकोण से हिंदू धर्म के दर्शन का परीक्षण करना चाहूंगा।

     हिंदू धर्म का इस पहलू से परीक्षण बहुत दीर्घ तथा विस्तार से करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जैसा प्रो. मिल ने निर्देशित किया है, न्याय तथा उपयोगिता में आपसी शत्रुता आवश्यक नहीं है। दूसरे शब्दों में जो बात एक व्यक्ति के लिए अन्याय है, वह समाज के लिए उपयोगी नहीं हो सकती। इसके अलावा हमारे सामने जातिप्रथा के परिणाम भी हैं, जिनसे हम अपरिचित नहीं हैं।

Written by Dr Babasaheb Ambedkar - Hindutwa Ka Darshan     जाति का सिद्धांत एक सिद्धांत नहीं है। इस सिद्धांत को व्यवहार में ढाला गया, इसलिए वह एक वास्तविकता है। इसके कारण हिंदू समाज ने चातुवेर्ण्य के संबंध में जर्मन दार्शनिक नीत्शे का सही अनुसरण किया है, जिसने कहा है कि 'आदर्श को अनुभव करो और वास्तविकता को आदर्श में ढाल दो। '

     किसी भी सिद्धांत का मूल्य उसके नतीजों से परखना चाहिए। इसलिए, यदि अनुभव को एक कसौटी मानना है, तब चातुर्वर्ण्य का तिरस्कार जरूरी है। एक शुद्ध सामाजिक संगठन के रूप में भी यह तिरस्कार है उत्पादकों के संगठन के रूप में भी उसका तिरस्कार किया जाना चाहिए। बंटवारे की एक आदर्श योजना के रूप में भी वह बुरी तरह से असफल हो गया है। यदि संगठन का यह एक आदर्श रूप है, तब हिंदु धर्म एक समान मंच क्यों नहीं बना सका? यदि उसे उत्पादन का एक आदर्श नमूना माना जाए, तब यह कैसे है कि उत्पादन की उसकी तकनीक आदिमानव की तकनीक से अधिक विकसित नहीं हो सकी और यदि इसे बंटवारे की एक आदर्श योजना माना जाए, तब इसके कारण धन की इतनी अधिक असमानता कैसे उत्पन्न हो गई, जहां एक ओर असीमित संपत्ति है तो दूसरी ओर असीमित गरीबी।

     परंतु मैं इस विषय को इतने संक्षेप रूप में कहकर छोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसे अनेक हिंदु जन है, जो जाति व्यवस्था की महान सामाजिक उपयोगिता का दावा करते हैं, और ऐसी व्यवस्था के न केवल निर्माण, बल्कि उसे दैवी मान्यता प्रदान करने के लिए मनु की बुद्धिमानी तथा विवेक की प्रशंसा करते हैं। जाति व्यवस्था के प्रति ऐसा दृष्टिकोण इसलिए बना, क्योंकि जाति के अलग-अलग पहलुओं पर अलग-अलग विचार किया गया।

     जाति की उपयोगिता अथवा अनुपयोगिता के परिणाम को तभी निश्चित किया जा सकता है, जब जाति के विभिन्न पक्षों को संयुक्त कर उन पर विचार किया जाए। समस्या का इस दृष्टिकोण से विचार करने पर निम्न निष्कर्ष प्राप्त होते हैं:

     (1) जाति से श्रमिकों का विभाजन होता है, (2) जाति के कारण मनुष्य की उसके कार्य के प्रति रूचि नहीं रहती, ( 3 ) जाति के कारण बुद्धि का शारीरिक श्रम से संबंध नहीं रहता, (4) जाति मनुष्य की प्रमुख रुचि को विकसित करने के उसके अधिकार को नकारती है, जिसके कारण वह निर्जीव बनता है, और (5) जाति स्थान परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाती है।

     जाति व्यवस्था केवल श्रम का विभाजन नहीं है निस्संदेह सभ्य समाज में श्रम का विभाजन आवश्यक होता है। लेकिन किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन के साथ श्रमिकों को अपरिवर्तनीय अप्राकृतिक विभाजन नहीं किया जाता। जाति-व्यवस्था केवल श्रमिकों का विभाजन करने वाली व्यवस्था नहीं है जो कि श्रम के विभाजन से सर्वथा भिन्न है, बल्कि वह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें श्रमिकों में विभाजन की श्रेणी एक दूसरे को ऊपर निर्धारित की गई है। किसी भी देश में श्रम के विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का इस प्रकार अलग-अलग श्रेणियों में विभाजन नहीं किया गया है। जाति-व्यवस्था के इस पहलू के संबंध में आलोचना करने का एक तीसरा दृष्टिकोण भी है। श्रम का यह विभाजन अपने आप नहीं हो गया, और न ही यह किसी स्वाभाविक योग्यता पर आधारित है। सामाजिक तथा निजी कार्यक्षमता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति की योग्यता को निपुण बनाए, जिससे वह अपने जीवन व्यवसाय का चयन कर सके और उसे सुदृढ़ बना सके । जाति व्यवस्था में इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है, क्योंकि इसमें किसी भी व्यक्ति का कार्य उसके जन्म से पहले ही तय हो जाता है; उसका चुनाव उसकी मौलिक योग्यता के आधार पर नहीं, किन्तु उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर पर आधारित होता है। एक अन्य दृष्टिकोण से देखें तो व्यवसायों के क्रमिक वर्गीकरण की व्यवस्था, जो कि जाति व्यवस्था का सीधा परिणाम है, निश्चय ही हानिकारक है। उद्योग कभी भी स्थिर नहीं रहते। उनमें तीव्र तथा आकस्मिक परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों के साथ-साथ व्यक्ति को भी अपने व्यवसायों में परिवर्तन की अनुमति होनी चाहिए । बदलाव की स्थिति में अगर उसे अपने-आपको बदलने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो उसके लिए अपनी आजीविका प्राप्त करना असंभव हो जाएगा। परंतु जाति-व्यवस्था हिंदू जनों को ऐसे व्यवसाय करने की अनुमति नहीं देती जो वंश परंपरा के अनुसार उनके अपने व्यवसाय न हों। यदि किसी हिंदू को हम कोई ऐसा नया व्यवसाय, जो उसकी जाति के लिए निर्धारित नहीं है, अपनाने के बजाए भूखा मरते हुए देखते हैं, जो उसकी कारण जाति-व्यवस्था में ही मिलती है। व्यवसायों में परिवर्तन करने की अनुमति न देने से जाति-व्यवस्था देश की वर्तमान बेरोजगारी के लिए सीधी जिम्मेदार बन गई। श्रम विभाजन को लेकर जाति व्यवस्था में और भी एक गंभीर दोष है। जाति-व्यवस्था ने श्रम का जो विभाजन किया है, वह चयन के अधिकार पर आधारित नहीं है। उसमें किसी प्रकार की व्यक्तिगत भावना तथा पसंद-नापसंद का कोई स्थान नहीं है। वह पूर्ण रूप से भाग्य के सिद्धांत पर आधारित है। सामाजिक दक्षता पर विचार करने पर हम इस बात को स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि किसी भी औद्योगिक व्यवस्था में गरीबी और दुख इतनी बड़ी बुराई नहीं है, जितना कि यह वास्तविकता कि बहुत से लोगों को ऐसे व्यवसाय करने के लिए मजबूर किया जाता है जिनमें उनकी कोई रुचि नहीं होती। ऐसे व्यवसाय उनमें निरंतर घृणा, हीनभावना और कार्य से दूर भागने की प्रवृत्ति उत्पन्न करते हैं। भारत में ऐसे अनेक व्यवसाय हैं, जिन्हें हिंदू लोग हीन स्तर के व्यवसाय मानते हैं और जिसके कारण ऐसी व्यवसाय करने वालों के प्रति घृणा के लिए उकसाते हैं। ऐसे व्यवसायें को टालने की, और उनसे बचने की निरंतर इच्छा उत्पन्न होती रहती है। उसका मुख्य कारण यह है कि जो लोग इन व्यवसायों का अनुसरण करते हैं, उनकी हिंदू धर्म के द्वारा जो उपेक्षा होती है और उन पर ऐसे कार्यों को जिस प्रकार थोपा जाता है, उससे उनके मन में विफलता की भावना उत्पन्न होती है।

     जाति व्यवस्था ने जो दूसरी हानि की है, वह यह है कि उसने बुद्धि का कार्य से संबंध तोड़ दिया है और श्रम के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न की है। जाति का सिद्धांत यह है कि ब्राह्मण, जिसे बुद्धि का विकास करने की अनुमति है, उसे श्रम करने की अनुमति नहीं है, वस्तुतः उससे श्रम की हीन मानने की शिक्षा दी जाती है जब किसी शूद्र की श्रम करने की अनुमति है, परंतु अपनी बुद्धि का विकास करने की अनुमकत नही है। इसके जो भयंकर परिणाम हुए, उनका उत्तम चित्र आर.सी. दत्ता ने अंकित किया है..... । ¹


1. उद्धारण पांडुलिपि में उपलब्ध नहीं है संपादक


     जाति, मनुष्य को निर्जीव बनाती है। वह मनुष्य को निष्फल बनाने की प्रक्रिया है। शिक्षा, संपत्ति तथा परिश्रम सभी के लिए आवश्यक है, यदि व्यक्ति एक स्वतंत्र तथा परिपूर्ण मनुष्य बनना चाहता है, संपत्ति एवं परिश्रम के बिना शिक्षा का होना व्यर्थ है । उसी प्रकार शिक्षा तथा परिश्रम के बिना संपत्ति को होना व्यर्थ है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इनमें से हर चीज आवश्यक है। यह सभी बातें मनुष्य मात्र के विकास के लिए आवश्यक हैं।

     ब्राह्मण को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, क्षत्रिय को शस्त्र चलाने की शिक्षा लेनी चाहिए, वैश्य को व्यापार करना चाहिए और शूद्र को सेवा करनी चाहिए - यह सब, परिवार में परस्पर निर्भरता का जो सिद्धांत निहित है, उस रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पूछा जाता है कि एक शूद्र को धन प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है, जब अन्य तीनों वर्ग उसकी सहायता करने के लिए मौजूद हैं? शूद्र को शिक्षा प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है जब जरूरत होने पर पढ़ने-लिखने के लिए वह ब्राह्मण के पास जा सकता है? जब क्षत्रिय उसकी रक्षा करने के लिए तैयार हैं, तब उसे शस्त्र धारण करने की क्या आवश्यकता है? चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत को इस अर्थ से समझते हुए कहा जा सकता है किस समाज में शूद्र को एक रक्षित व्यक्ति के रूप में, और अन्य तीनों वर्गों को उसके रक्षक के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार का अर्थ लगाने से यह एक सरल तथा प्रलोभित करने वाला सिद्धांत बन जाता है । चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत के पीछे यही सही दृष्टिकोण है, ऐसा जानते हुए भी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था न तो अपने-आप में एक परिपूर्ण व्यवस्था है, और न ही छलपूर्ण उद्देश्य से मुक्त है। यदि ब्राह्मण, ज्ञान प्राप्त करने में क्षत्रिय सैनिक बनने में और वैश्य व्यवसाय करने में असफल हो जाए, तब कैसी स्थिति उत्पन्न होगी? इसके अलावा यदि वे अपना कार्य करते भी हैं, परंतु शूद्र के प्रति अथवा एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन नहीं करते, तब भी कैसी स्थिति उत्पन्न होगी? यदि वह तीनों वर्ण शूद्र को किसी न्यायोचित आधार पर सहायता करने से इंकार करते हैं अथवा उसका दमन करने के लिए एकत्रित हो जाते हैं, तब उसकी अवस्था कैसी हो जाती है? तब शूद्रों के हितों की रक्षा कौन करेगा? अथवा इसी संदर्भ में वैश्य अथवा क्षत्रिय के हितों की रक्षा कौन करेगा, जब उनके सीधेपन का कोई ब्राह्मण लाभ उठाने का प्रयास करता है? शूद्र की अथवा इस संबंध में ब्राह्मण अथवा वैश्व की स्वतंत्रता की रक्षा कौन करेगा, यदि क्षत्रिय ही उनके इस अधिकार को छीनने का प्रयास करता है। एक वर्ग की दूसरे वर्ग पर परस्पर निर्भरता को टाला नहीं जा सकता है। एक तरफा ही नहीं, एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर निर्भर रहने के लिए कभी-कभी अनुमति प्रदान करना आवश्यक हो जाता है। परंतु एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर उसकी सभी अत्यावश्यक जरूरतों के लिए निर्भर क्यों रखा जाता है? शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को मिलनी चाहिए। अपनी रक्षा के साधन प्रत्येक के पास होने चाहिएं। अपने स्व-संरक्षण के लिए प्रत्येक मनुष्य की यह अत्यंत महत्वपूर्ण जरूरते हैं। उनका पड़ोसी शिक्षित तथा शस्त्रधारी है, यह बात उस व्यक्ति के लिए, जो स्वयं अशिक्षित तथा निःशस्त्र है, किसी प्रकार उपयोगी हो सकती है? यह संपूर्ण सिद्धांत ही निरर्थक है। ये कुछ ऐसे प्रश्न है, जिनकी चातुर्णर्य का समर्थन करने वालों को कोई चिंता नहीं है। परंतु यह बहुत ही उचित प्रश्न है । चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत के पीछे भिन्न-भिन्न वर्गों में रक्षित तथा रक्षक का संबंध होने की भावना निहित है, इस बात को जानते हुए भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि यदि रक्षक के बुरे कार्य से रक्षा का कोई प्रबंध नहीं है तो इसमें रक्षित व्यक्ति के हितों की हानि ही होगी । चातुर्वर्ण्य की वास्तविक मूल भावना में रक्षित तथा रक्षक का संबंध चाहे निहित हो ही, परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि व्यवहार में यह एक मालिक तथा नौकर का ही संबंध रहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, यह तीनों वर्ण यद्यपि अपने परस्पर संबंधों से संतुष्ट न भी हों, परंतु उन्होंने आपस में समझौता कर लिया है, ब्राह्मणों ने क्षत्रिय की स्तुति की और दोनों ने वैश्य को भी संतोष से जीने दिया, ताकि वे उस पर निर्भर होकर अपना जीवन व्यतीत कर सके। लेकिन तीनों शूद्र का दमन करने की बात पर सहमत थे। उसे संपत्ति प्राप्त करने की अनुमति नहीं दी गई, ताकि वह इन तीनों वर्णों से मुक्त न हो सके। उसे ज्ञान अर्जित करने से मना किया गया, ताकि वह अपने हितों की रक्षा करने हेतु निरंतर सतर्क न रहे सके। उसे शस्त्र धारण करने की मनाई की गई, ताकि वह इन तीनों वर्णों के प्रभुत्व के विरुद्ध विद्रोह न कर सके। शूद्रों के साथ इन तीनों वर्गों ने कैसा व्यवहार किया, यह बात हमें मनु के इस विधान से स्पष्ट हो जाती है। सामाजिक अधिकारों से संबंधित मनु के विधि-नियमों से अधिक कुख्यात अन्य दूसरी विधि - नियमावली नहीं है। किसी स्थान का कोई भी सामाजिक अन्याय का उदाहरण उसके सामने फीका पड़ जाएगा। जिन सामाजिक बुराइयों के तहत उन पर अत्यचार किए गए, उन्हें अनगिनत लोगों ने क्यों सहन किया? दुनिया के दूसरे देशों में सामाजिक क्रांतियां हो गईं, भारत में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हो सकी, इस प्रश्न से मैं निरंतर चिंतित रहता हूं। इस प्रश्न का मैं केवल एक ही उत्तर दे सकता हूं वह यह है कि चातुर्वर्ण्य की इस व्यवस्था ने  हिंदू समाज के निचले स्तर के लोगों को किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष वृत्ति के लिए पूर्णरूप से अयोग्य बना दिया है। वे शस्त्र धारण नहीं कर सकते और बगैर शस्त्र के विद्रोह नहीं कर सकते। वे सभी हल चलाने वाले लोग थे अथवा हम ऐसा कह सकते हैं। कि उन्हें हल चलाने को मजबूर किया गया और उन्हें अपने हल को तलबार में बदलने की अनुमति नहीं थी। उनके पास संगीनें नहीं थीं और इसलिए उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अपने हल पर बैठे रहने के अलावा कुछ कर नहीं सकता था । चातुर्वर्ण्य के कारण उन्हें शिक्षा प्रापत नहीं हो सकी। अपनी मुक्ति के बारे में न तो वे कुछ सोच सकते थे और न ही उन्हें कोई जानकारी थी। उन्हें निम्न बनकर रहने के लिए मजबूर किया गया और उससे मुक्ति का मार्ग ज्ञात न होने के कारण तथा मुक्ति का कोई साधन न होने के कारण वे अपनी स्थायी गुलामी से संतुष्ट हो गए और इसे उन्होंने अपनी नियति मान लिया, जिससे वे अलग नहीं हो सकते। यह सच है कि बलवानों ने यूरोप में भी स्वयं को शोषण करने से नहीं रोका; उन्होंने कमजोर लोगों का शोषण किया, परंतु यूरोप में बलवान लोगों ने दुर्बल लोगों का इतने निर्लज्ज रूप से अपने शोषण के विरुद्ध असहाय नहीं बनाया, जितना कि भारत के हिंदुओं के मामले में देखने को मिलता है। बलवान और दुर्बल लोगों में सामाजिक संघर्ष यूरोप में भारत की तुलना में अधिक तीव्रता से चले हैं और वहां दुर्बल लोगों को सैनिक व्यवसाय में शस्त्र धारण करने की अनुमति है, उन्हें वोट देने का राजनीतिक अधिकार है, तथा शिक्षा के कारण नैतिक अधिकार भी है। यूरोप में बलवानों ने दुर्बल वर्गों से उनकी मुक्ति के यह तीन अधिकार कभी नहीं छीने। तथापि चातुर्वर्ण्य के कारण भारत में जनता से यह तीनों अधिकार भी छीन लिए गए हैं। तब चातुर्वर्ण्य से और अधिक नीच सामाजिक संगठन की व्यवस्था कौन-सी है जो लोगों को किसी भी कल्याणकारी कार्य करने के लिए निर्जीव तथा विकलांग बना देती है। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इतिहास में इस संबंध में भरपूर प्रमाण उपलब्ध हैं। भारतीय इतिहास में एकमात्र ऐसा समय जो कि स्वतंत्रता वह महानता तथा वैभव का प्रतीक कहा जाता था, वह मौर्य साम्राज्य काल था । अन्य सभी अवधियों में देश को पराभाव तथा अंधकार से गुजरना पड़ा, परंतु मौर्य कालखंड एक ऐसा कालखंड था, जिसमें चातुर्वर्ण्य पूर्ण रूप से निर्मल हो गया था, जब शूद्र जन, जो कि प्रजा का एक मुख्य भाग थे, आत्मनिर्भर हो गए थे और देश के शासक बन गए थे। वह काल जब चातुर्वर्ण्य के फलने-फूलने पर देश के लोगों के एक बड़े समूह को लाचार जीवन व्यतीत करना पड़ा, पराभाव तथा अंधकार का समय है।

     जाति के कारण परिवर्तनशीलता रुक जाती है। कभी-कभी ऐसा समय भी आता है, जब समाज को किसी संकटकालीन स्थिति से अपने-आपको बचाने के लिए अपने सभी साधन एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाना अनिवार्य हो जाता है। उदाहरण के लिए, जब युद्ध के समान संकट आते हैं, तब समाज के लिए अपने सभी साधन सैनिक कार्रवाई के लिए स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है। प्रत्येक का युद्ध में लड़ना आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति सैनिक होना चाहिए, लेकिन क्या जाति से सिद्धांत के अंतर्गत यह संभव हो सकता है? स्पष्ट है कि ऐसा नहीं है। भारतीय इतिहास में पराभाव की जो एक परंपरा बनी हुई है, उसके लिए जाति-व्यवस्था ही जिम्मेदार है। जाति-व्यवस्था सर्वसाधारण की गतिशीलता रोक देती है, अथवा केवल क्षत्रिय ही युद्ध में लड़ें, ऐसी अपेक्षा की जाती थी। शेष, ब्राह्मण तथा वैश्य लोगों ने शस्त्र धारण नहीं किए थे और शूद्र, जो कि देश का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा था, वे शस्त्र धारण कर ही नहीं सकते थे। इसका नतीजा यही होना था कि जब क्षत्रियों का एक छोटा-सा वर्ग किसी विदेशी शत्रु द्वारा पराजित हो जाए, तब संपूर्ण देश उस शत्रु के चरणों में चला जाए। यहां तक कि वह किसी भी प्रकार के प्रतिकार के योग्य भी नहीं रहता। भारतीय युद्ध अधिकतर केवल अकेले युद्ध अथवा संघर्ष होते थे। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि तब एक बार क्षत्रिय हार खा जाते, सभी कुछ समाप्त हो जाता। आखिर ऐसा क्यों? इस बात का सीधा उत्तर यही है कि समाज में सर्वसाधारण की गतिशीलता को मान्यता नहीं दी गई थी और जाति का यह सिद्धांत लोगों की मानसिकता में बहुत गहरा धंसा हुआ था।

     यदि उपरोक्त निष्कर्ष सही है, तब ऐसे दर्शन या तत्वज्ञान को, जो समाज को अलग-अलग टुकड़ों में बांटता हो, जो कार्य की रुचि से अलग करता हो, जो मनुष्य के वास्तविक हितों के अधिकार को नष्ट करता हो और जो संकट के समय समाज को सुरक्षित करने के लिए अपने साधनों को गतिशील बनाने के मार्ग में रूकावटें पैदा करता हो, ऐसा दर्शन सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर सफल है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? इसलिए हिंदू धर्म का दर्शन न तो सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर, और न ही व्यक्तिगत न्याय की कसौटी पर खरा उतरता है ।



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