जिन क्षत्रियों की परशुराम द्वारा हत्या की गई, उनका वर्णन महाभारत के द्रोण पर्व में है। वे काश्मीर, दार्द कुंती, शुद्रक, मालव, अंग, वंग, कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्तक मर्त्तिकावत, सीवी आदि राजन्य थे।
क्षत्रिय वंश का पुनर्निर्माण किस प्रकार किया गया, यह बात भी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों के नरसंहार की इस कहानी में बताई है, कहा जाता है :
पृथ्वी पर रहने वाले सभी क्षत्रियों को इक्कीस बार नष्ट करने के बाद, जमदग्नि का यह पुत्र ( परशुराम) सभी पर्वतों में सर्वोत्तम महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने में व्यस्त हो गया। क्षत्रियों की विधवाएं संतति की इच्छा से ब्राह्मणों के पास आईं। तब ब्राह्मणों ने काम-वासना की किसी भी लालसा से मुक्त होकर उचित ऋतु में इन स्त्रियों के साथ संभोग किया। बाद में वे गर्भवती हो गईं। उनसे वंश को चलाने के लिए शूरवान क्षत्रिय लड़के-लड़कियां उत्पन्न हुए। इस प्रकार ब्राह्मणों ने अपने सदाचार से क्षत्रिय स्त्रियों से क्षत्रिय वंश का सिलसिला आगे बढ़ाया जिनकी बाद में संख्या बड़ी और वे अनेक वर्षों तक जीवित रहे। इसके बाद ही ब्राह्मणों से कम श्रेष्ठता वाले चार वर्ण उत्पन्न हुए।
भारत के अलावा किसी भी अन्य देश में वर्ग संघर्ष का ऐसा दुखांत इतिहास नहीं मिलता। यह ब्राह्मण परशुराम का झूठा दंभ ही है कि उसने क्षत्रियों की पुनर्सष्टि की।
हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए कि भारत के वर्ग संघर्ष का यह इतिहास प्राचीन है, बल्कि यह वर्ग संघर्ष निरंतर जारी है। इस वर्ग संघर्ष का हम महाराष्ट्र में मराठा शासन के समय में भी देख सकते हैं, जिसके कारण मराठा साम्राज्य नष्ट हो गया। हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि यह वर्ग-युद्ध के समान ही होते थे। भारत में वर्ग संघर्ष का एक स्थायी स्वभाव रहा है, जो चुपचाप किन्तु निश्चित रूप से अपना कार्य करता था।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह वास्तविक घटनाएं इस अर्थ में सांकेतिक हैं कि वे उनकी प्रकृति तथा चरित्र की ओर इंगित करती हैं। क्या इसी बात से कहा जा सकता है कि हिंदुओं में बंधुभाव है? इन घटनाओं को देखते हुए इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर संभव नहीं ।
हिंदू समाज में बंधुभाव के अभाव का क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? हिंदू धर्म और उसका दर्शन ही इस बात के लिए जिम्मेदार है। जैसा कि मिल ने कहा है, बंधुभाव की भावना स्वाभाविक होती है। लेकिन यह एक ऐसा पौधा है कि जो अनुकूल जमीन है ही तथा जहां उसके विकास के लिए उचित परिस्थितियां मौजूद होती हैं, बढ़ सकता है। बंधुभाव की भावना को बढ़ाने के लिए केवल यह उपदेश करने की आवश्यकता नहीं कि हम सभी ईश्वर की संतान हैं अथवा हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं यह मौलिक आवश्यकता नहीं है। किसी भावना के विकास के लिए यह एक बहुत ही बौद्धिक तर्क हो सकता है। बंधुभाव की इस भावना को बढ़ावा देने के लिए जीवन की सभी सजीव प्रक्रियाओं में सहभागी बनना आवश्यक है। जन्म, मृत्यु, विवाह तथा भोजन आदि के सुख-दुख में हिस्सेदार बनने से बंधुत्व की भावना बढ़ती है अतः जो इन प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं, वे एक दूसरे को भाई के समान मानते हैं।
प्रो. स्मिथ ने सहभोज के महत्व पर उचित जोर देते हुए समाज में बंधुभाव के निर्माण में इसे एक अत्यंत आवश्यक तत्व माना है। वे कहते हैं :
यज्ञ समारोह में आयोजित सहभोज प्राचीन धार्मिक जीवन के आदर्श को व्यक्त करने का एक उचित माध्यम है। ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि वह एक सामाजिक कर्म है और उसमें देवता तथा उनके उपासक, दोनों न केवल एक साथ भाग लेते हैं बल्कि, जैसा पहले बताया गया है, किसी मनुष्य के साथ मिल-बैठकर खान-पान करना इसके साथ भाईचारा व्यक्त करने तथा परस्पर सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का भी प्रतीक है। यज्ञ समारोह में आयोजित सहभोज में एक बात सीधी व्यक्त होती है कि देवता तथा उसके उपासक, दोनों एक ही पंक्ति में साथ-साथ भोजन करते हैं। लेकिन इसके अलावा उनमें उन सभी बातों का समावेश होता है जो उनके परस्पर संबंधों को व्यक्त करती है। जो लोग भोजन के लिए एक साथ बैठते हैं, वे लोग सभी सामाजिक कार्यों के लिए एकजुट होते हैं। जो लोग सहभोज नहीं कर सकते, वे एक-दूसरे के लिए पराये होते हैं। न उनमें धार्मिक एकता होती है और न परस्पर सामाजिक कर्तव्य । ¹
1. दि रिलीजन आफ सैमाइट्स, पृ. 269
जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों पर भी हिंदूओं में सुख-दुख को बांटने की भावना नहीं है हर चीज अलग-अलग और विशिष्ट है। हिंदू अलग है, और जीवनपर्यन्त विशिष्ट बना रहता है। भारत में आने वाले विदेशी को 'हिंदू पानी', 'मुसलमान पानी' की ही पुकार नहीं सुनाई देती। जो ब्राह्मण काफी हाउस, ब्राह्मण भोजनालय जहां अब्राह्मण हिंदू नहीं जा सकते, ब्राह्मण प्रसुति गृह, मराठा प्रसूति गृह, और भाटिया प्रसूति गृह आदि मिलते हैं, हालांकि ब्राह्मण, मराठा और भाटिया सभी हिंदू हैं यदि किसी ब्राह्मण के घर में बच्चे का जन्म होता है; तब अब्राह्मण को नहीं बुलाया जाता है औन न ही उसे वहां जाने की इच्छा होगी। यदि ब्राह्मण परिवार में विवाह हो, तब भी गैर-ब्राह्मण को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा जाता और तो और, ब्राह्मण की मृत्यु हो जाने पर उसकी शव-यात्रा में कोई भी अब्राह्मण सम्मिलित होने का अधिकारी नहीं है। इस तरह से एक जाति से सुख-दुख दूसरी जाति के सुख-दुख नहीं होते। एक जाति को दूसरी जाति के प्रति लगाव नहीं होता। इतना ही नहीं, दान-धर्म भी जाति तक ही सीमित होता है। हिंदुओं में ऐसी कोई सार्वजनिक दान-धर्म की प्रथा नहीं है, जो सबके लिए मुक्त हों आप ब्राह्मणों के लिए ब्राह्मण धर्मदान संस्था पाएंगे और इसमें भी चित्तपावन ब्राह्मणों के लिए चित्तपावन ब्राह्मण धर्मदान संस्था, देशस्थ ब्राह्मनों के लिए देशस्थ ब्राह्मण धर्मदान संस्था। करहाड़े ब्राह्मणों के लिए करहाड़ ब्राह्मण संस्था, जो सारस्वत ब्राह्मणों में भी कुंडलेश्वर ब्राह्मण धर्मदान संस्था आदि। इस प्रकार एक हिंदू दूसरे हिंदू के साथ जीवित रहते हुए भी कोई वस्तु आपस में नहीं बांटता । बात यहीं तक नहीं जब वे मर जाते हैं, तब भी वे अलग और पृथक ही रहते है। कुछ हिंदू अपने मृतकों को दफनाते हैं, तो कुछ हिंदू उन्हें जलाते हैं। लेकिन जो लोग दफनाते हैं, उनकी श्मशान भूमि एक नहीं होती। प्रत्येक का श्मशान भूमि में अपने मृतकों को दफनाने का अलग-अलग क्षेत्र होता है जो लोग जलाते हैं, वे एक ही स्थान पर अपने मृतकों को नहीं जलाते । यदि वे ऐसा करते भी हैं तो भी चबूतरा अलग बनाया जाता है।
तब इस बात में क्या कोई आश्चर्य है कि हिंदुओं के लिए बंधुभाव की भावना क्यों पराई है? जीवन के सुख-दुख को आपस में बांटने पर जहां पूर्ण मनाही हो, वहां बंधुभाव की भावना कैसे पनप सकती है?
लेकिन इन सभी सवालों में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हिंदु लोग जीवन के सुख-दुख आपस में बांटने से क्यों इंकार करते हैं? यहां यह बताना, आवश्यक नहीं है कि वे इन्हें बांटने से इसलिए इंकार करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा ही करने के लिए कहता है। हिंदू धर्म शिक्षा देता है सहभोज न करने की अंतर्विवाह न करने की, और परस्पर संबंध न रखने की। यह नहीं करना, वह नहीं करना, यहीं हिंदू धर्म के उपदेश का सार है। सभी लज्जित करने वाली बातें जो मैंने यहां बताई हैं, हिंदू समाज की अलग और पृथक प्रवृत्ति को स्पष्ट करती है, जो हिंदु धर्म के दर्शन की देन है। यही दर्शन बंधुभाव को पूरी तरह नकारता है।
न्याय की दृष्टि से हिंदुत्व के दर्शन का किया गया यह संक्षिप्त विश्लेषण सिद्ध करता है कि हिंदू धर्म समानता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का विरोधी है।
बंधुत्व और स्वतंत्रता, यह दोनों तत्व सही मायने में धारणाएं हैं। मौलिक तथा बुनियादी तत्व हैं समानता और मानव व्यक्तित्व के प्रति आदर। बंधुभाव तथा स्वतंत्रता, यह दोनों धारणाएं इन मूल तत्वों से ही आगे बढ़ती हैं। इस बात को हम ऐसे भी कह सकते हैं कि समानता मूल धारणा और मानव व्यक्तित्व के प्रति आदर है। तब जहां समानता को नकारा गया है, तब यह मानना चाहिए कि अन्य सभी बातों को भी नकारा गया है। दूसरे शब्दों में, यह बात दर्शाना मेरे लिए पर्याप्त है कि हिंदुत्व में समानता नहीं थी लेकिन जिस प्रकार से मैंने हिंदुत्व का परीक्षण किया वैसा पहले नहीं किया गया था, और तब मैंने सोचा कि हिंदुत्व बंधुत्व और स्वतंत्रता, दोनों से वंचित रखने वाला है, यह कहना ही पर्याप्त नहीं है ।
लार्ड एक्टन की महत्वपूर्ण धारणा के परीक्षण के साथ में अपनी चर्चा समाप्त करना चाहूंगा। महान लार्ड महोदय कहते हैं कि असमानता की बढ़ोतरी ऐतिहासिक परिस्थिति के कारण होती है। धर्म के स्वीकृत मत के रूप में इस पर कभी पालन नहीं किया गया। यह स्पष्ट है कि अपना यह मत बनाते समय लार्ड एक्टन ने हिंदू धर्म की और ध्यान नहीं दिया, क्योंकि हिंदु धर्म में असमानता एक स्वीकृत धार्मिक सिद्धांत हैं और उसे जान-बूझकर एक पवित्र धर्म मत के रूप में प्रचारित किया जाता है वह एक अधिकृत धार्मिक तत्व है और कोई भी सरेआम उसका पालन करने में लज्जा अनुभव नहीं करता। हिंदू समाज की दृष्टि से असमानता धार्मिक सिद्धांत के रूप में जीवन का एक धर्म-सम्मत विधान है और एक निश्चित मत के रूप में निरंतर इसकी शिक्षा दी गई है। यह एक अधिकृत मत है। वस्तुतः असमानता हिंदू धर्म की आत्मा है।