१. सारिपुत्र और मौगल्यायन की दीक्षा के बाद दो महीने तक भगवान बुद्ध राजगृह में ही रहें ।
२. यह सुनकर कि तथागत राजगृह में विराजमान हैं, उनके पिता शुद्धोदन ने संदेश भिजवाया- "मैं मरने से पूर्व अपने पुत्र को देखना चाहता हूँ । दूसरों को उसका धम्मामृत पान करने को मिला है उसके पिता को नहीं, उसके सम्बन्धियों को नहीं ।"
३. शुद्धोदन के दरबारियों में से एक का पुत्र कालुदायिन ही यह संदेश लेकर गया था ।
४. संदेश-वाहक ने आकर कहा- "हे लोक पूज्य! आपका पिता आपको देखने के लिये उतना ही उत्सुक है जैसे कमलिनी सूर्योदय के लिये ।"
५. तथागत ने पिता की प्रार्थना स्वीकार कर ली और बड़े भिक्षुसंघ को साथ ले पितृ-गृह की और प्रस्थान किया ।
६. भगवान बुद्ध जगह जगह ठहरते हुए आगे बढ़ रहे थे, लेकिन कालुदायिन तेजी से चलकर पहले पहुँच गया ताकि शुद्धोदनको यह सूचना दे सके कि भगवान् बुद्ध आ रहे है और रास्ते पर है ।
७. शीघ्र ही यह समाचार शाक्य जनपद में फैल गया । हर किसी की जबान पर था कि राजकुमार सिद्धार्थ- जो बोध प्राप्त करने के लिये गृह त्याग कर चला गया था अब ज्ञान प्राप्त कर वापस कपिलवस्तु आ रहा है ।
८. अपने सम्बन्धियों और मन्त्रियों को लेकर शुद्धोदन और महाप्रजापति अपने पुत्र की अगवानी के लिये गये । जब उन्होंने दूर से ही अपने पुत्र को देखा, उसके सौन्दर्य, उसके व्यक्तित्व, उसके तेज का उनके मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा । वे मन ही मन बडे प्रमुदित हुए । किन्तु उनके पास शब्द न थे कि वे उसे व्यक्त कर सकें ।
९. निश्चय से वह उनका पुत्र था, उसकी शक्ल-सूरत वहीं थी । महान् श्रमण उनके हृदय के कितना समीप था और तब भी उनके बीच की दूरी कितनी अधिक थी ! वह महामुनि, अब उनका पुत्र सिद्धार्थ नहीं रहा था, अब वह बुद्ध था, सम्यक् संबुद्ध था, अर्हत था, लोक-गुरु था ।
१०. अपने पुत्र के धाम्मिक पद का ध्यान कर शुद्धोदन रथ से उतरा और सर्वप्रथम अभिवादन किया । बोला -- “तुम्हें देखे सात वर्ष बीत गये । इस क्षण की हम कितनी प्रतीक्षा करते रहे !”
११. तब शुद्धोदन के सामने सिद्धार्थ विराजमान हुए । राजा आँखे फाडफाड कर अपने पुत्र की ओर देखता रहा । उसकी इच्छा हुई कि उसे नाम लेकर पुकारे किन्तु उसका साहस नहीं हुआ । सिद्धार्थ, वह मन ही मन बोला, सिद्धार्थ अपने पिता के पास लौट आओ, और फिर उसके पुत्र बन जाओ । लेकिन अपने पुत्र की दृढ़ता देखकर उसने अपनी भावनाओं को वश में रखा । शुद्धोदन तथा प्रजापति दोनों निराश हो गये ।
१२. इस प्रकार अपने पुत्र के ठीक सामने पिता बैठा था -- अपने दुःख में वह सुखी था, अपने सुख में वह दुःखी । उसे अपने पुत्र पर अभिमान था, किन्तु वह अभिमान चूर चूर हो गया जब उसे ध्यान आया कि उसका पुत्र कभी उसका उत्तराधिकारी न बनेगा ।
१३. “मैं तुम्हारे चरणों पर अपना राज्य रख हूँ", उसने कहा, “किन्तु यदि मैंने ऐसा किया तो तुम उसे मिट्टी के मोल का भी न समझोगे ।"
१४. तथागत ने सान्त्वना दी- "मैं जानता हूँ राजन्! तुम्हारा हृदय प्रेम से गदगद हैं । तुम्हे अपने पुत्र के लिये महान दुःख हैं । लेकिन प्रेम के जो धागे तुम्हें अपने उस पुत्र से बांधे हुए हैं, जो तुम्हे छोड़ कर चला गया, उसी प्रेम के अन्तर्गत तुम अपने सारे मानव- बन्धुओं को बांध लो । तब तुम्हे अपने पुत्र सिद्धार्थ से भी बडे किसी की प्राप्ति होगी, तुम्हे मिलेगा वह जो सत्य का संस्थापक है, तुम्हें मिलेगा वह जो धम्म का मार्ग-दर्शक है और तुम्हे मिलेगा वह जो शान्ति का लाने वाला है । तब तुम्हारा हृदय निर्वाण से भर जायेगा ।"
१५. जब शुद्धोदन ने अपने पुत्र, बुद्ध के ये वचन सुने वह प्रसन्नता के मारे कांपने लगा । उसकी आंखों में आंसू थे और उस के हाथ जुड़े थे, जब उसने कहा -- "अद्भुत परिवर्तन है ! संतप्त हृदय शान्त हो गया । पहले मेरे हृदय पर पत्थर पड़ा था, किन्तु, अब मैं तुम्हारे महान् त्याग का मधुर फल चख रहा हूँ । तुम्हारे लिये यही उचित था कि तुम अपनी महान् करूणा से प्रेरित होकर राज्य के सुख-भोग का त्याग करते और धम्म-राज्य के संस्थापक बनते । अब धम्म-पथ के जानकार की हैसियत से तुम सभी का मोक्ष- मार्ग का उपदेश दे सकते हो ।”
१६. भिक्षु संघ सहित भगवान बुद्ध उस उद्यान में ही विराजमान रहे, जबकि शुद्धोदन वापस घर लौट आया ।
१७. अगले दिन तथागत ने भिक्षा पात्र लिया और कपिलवस्तु में भिक्षाटन के लिये निकले ।
१८. बात तुरन्त फैल गई:- जिस नगर में कभी सिद्धार्थ रथ में बैठ कर सवारी के लिये निकलते थे, आज उसी नगर में भिक्षा पात्र हाथ मे लिये घर-घर विचर रहे हैं। चीवर का रंग भी लाल-मिट्टी के ही समान है और हाथ का भिक्षा पात्र भी मिट्टी का ही है ।
१९. इस विचित्र वार्ता को सुना तो शुद्धोदन घबराया हुआ दौड़ा गया; तुम इस प्रकार मुझे क्यों लजाते हो? क्या तुम इतना नही जानते कि मै तुम्हे और तुम्हारे संघ को भोजन करा सकता हूँ ?
२०. तथागत का उत्तर था- "यह हमारी वंश-परम्परा है ।"
२१. “यह कैसे हो सकता है? हमारे वंश में कभी किसी एक ने भी भिक्षाटन नहीं किया है ।”
२२. “राजन! निश्चय से तुम और तुम्हारा वंश क्षत्रियों का वंश है । किन्तु मेरा वंश बुद्धों का वंश है । उन्होंने भिक्षाटन किया है और हमेशा भिक्षा पर ही निर्भर रहे हैं ।”
२३. शुद्धोदन निरुत्तर था । तथागत कहते रहे -- "किसी को कहीं कुछ खजाना मिले तो उस में जो बहुमूल्य रत्न होगा वह लाकर उसे अपने पिता को ही भेंट करेगा । मैं तुम्हें यह धम्म-निधि अर्पण करता हूँ ।"
२४. और तब तथागत ने अपने पिता को कहा - "यदि तुम अपने आपको इन मिथ्या स्वप्न जालो से मुक्त करो, यदि तुम सत्य को अंगीकार करो,यदि तुम अप्रमादी रहो और यदि तुम धम्म-पथ पर ही चलो तो तुम्हे अक्षय-सुख प्राप्त होगा ।"
२५. शुद्धोदन ने निःशब्द रहकर शब्द सुने और बोला, “पुत्र! मैं तुम्हारे कथनानुसार आचरण करने का प्रयास करूँगा ।”