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आनन्द का शोक - भगवान बुद्ध और उनका धम्म  (भाग १२०)  - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

४. आनन्द का शोक

१. आयु कुछ अधिक हो चली तो भगवान् बुद्ध को किसी निजी सेवक की आवश्यकता पडी ।

२. उन्होने पहले नन्द को चुना। उसके बाद आनन्द को चुना । आनन्द तथागत के अन्तिम समय तक तथागत की सेवा मे ही रहे ।

mahatma Gautam Buddh ka mahaparinirvan - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

३. आनन्द केवल सेवक ही न थे, बल्कि उनके दिन-रात के प्रियतम साथी भी थे ।

४. जब भगवान् बुद्ध कुसीनारा पहुंचे और दो शाल वृक्षों के मध्य विश्राम करने लगे तो भगवान् बुद्ध को लगा कि उनका अ समय समीप है और उन्हें यह भी लगा कि उन्हें कम से कम आनन्द को कह देना चाहियें ।

५. इसलिये उन्होंने आनन्द को सम्बोधित किया और बोले :- हे आनन्द ! इन्ही साल वृक्षों के मध्य, इसी कुशीनारा के उपवन में, रात्री के तीसरे पहर तथागत का परिनिर्वाण हो जायगा ।”

६. तथागत के ऐसा कहने पर आनन्द स्थविर ने कहा- “भगवान्! आप बहुत जनों के हित के लिये, बहुत जनों के सुख के लिये, लोंगों पर अनुकम्पा करने के लिये तथा देवताओं और मनुष्यों के कल्याण के लिये कल्प भर तक (जीवित) रहने की कृपा करें ।”

७. तीन बार आनन्द ने अत्यन्त आग्रहपूर्वक यही प्रार्थना की। तथागत का उत्तर था 'आनन्द ! अब रहने दो! अब ऐसी प्रार्थना म करो। ऐसी प्रार्थना करने का समय बीत ' चुका

८. “आनन्द! अब मैं बूढ़ा हो गया, वय प्राप्त हो गया, अब अन्त समय समीप हैं। मेरे दिन पूरे होने को आये हैं । मैं अस्सी वर्ष का हो गया हूँ । जिस प्रकार कोई पुराना छकडा एक न एक दिन शीर्ण-विशीर्ण हो ही जाता है, वही गति तथागत के शरीर की भी है । "यह सुना तो आनन्द स्थविर वहाँ रुके न रह सके ।

९. जब आनन्द स्थविर दिखाई नहीं दिये तो भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं से पूछा- “आनन्द कहा हैं?' भिक्षु बोले-- “आनन्द स्थविर यहाँ से चले गये है और खड़े रो रहे हैं।”

१०. तथागत ने एक भिक्षु को बुलाकर कहा-- “जाओं, और आनन्द को कहो कि तथागत बुला रहे हैं ।”

११. "बहुत अच्छा” कहकर भिक्षु ने स्वीकार किया ।

१२. आनन्द वापिस आये तो आकर तथागत के समीप बैठ गये।

१३. “आनन्द ! रोओं मत । क्या मैंने अनेक बार पहले ही नहीं कहा की यह चीजों का स्वभाव ही है कि हम को अपने सभी प्रिय जनों से पृथक होना ही पड़ता है, विदा लेनी ही पड़ती है, सम्बन्ध तोडना ही पड़ता है ।

१४. “आनन्द! इतने दीर्घ काल तक तुम अपने मैत्री- पूर्ण वचनों तथा मैत्री - पूर्ण व्यवहार के कारण मेरे बहुत समीप रहे हो ।

१५. “आनन्द! तुम बडे कुशल रहे हो । आनन्द ! प्रयास करो, तुम भी आस्त्रवों से पूर्ण मोक्ष प्राप्त करोगे ।”

१६. तब आनन्द के ही बारे मे बोलते हुए तथागत ने भिक्षुओं से कहा- “भिक्षुओं ! आनन्द बुद्धिमान है । भिक्षुओ! आनन्द ।

१७. “वह जानता है कि तथागत से भेंट करने का ठीक समय कौन सा है ? भिक्षु भिक्षुणियों के लिये ठीक समय कौन सा है, उपासक-उपासिकाओ के लिये ठीक समय कौन सा है, राजा अथवा राजा के मन्त्रियो के लिये ठीक समय कौन सा है ? तथा दूसरे आचार्यों-शिष्यों के लिये कौन सा है ?

१८. “भिक्षुओं! आनन्द की ये चार विशेषताये हैं ।

१९. “सभी आनन्द से मिलकर प्रसन्न होते हैं। सभी को आनन्द के देखने से आनन्द होता हैं। सभी को आनन्द का बोलना अच्छा लगता है । सभी को आनन्द का चुप रहना अच्छा नहीं लगता ।”

२०. उस समय आनन्द ने तथागत के परिनिर्वाण की ही बात करते हुए कहा - "तथागत! आप इस जंगल के बीच, इस उजाड नगरी में 'परिनिर्वाण' प्राप्त न करें । चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोसाम्बी तथा वाराणसी जैसे बडे बडे नगर हैं । भगवान् उनमें से किसी एक नगर में परिनिर्वाण प्राप्त करें ।”

२१. “आनन्द! ऐसा मत कहो! आनन्द! ऐसा मत कहो! आनन्द ! यह कुसीनारा ही किसी समय महासुदर्शन राजा की राजधानी रहा है । उस समय इसका नाम केशवती रहा है ।"

२२. तब तथागत ने आनन्द को दो बातें करने को कहा :--

२३. उन्होंने आनन्द को कहा कि चुन्द अथवा अन्य किसी को यह ख्याल न हो कि उसी का भोजन खाने के परिणामस्वरुप तथागत का परिनिर्वाण हो गया । उन्होंने सोचा कि इससे चुन्द मुसिबत में पड सकता है । उन्होनें कहा कि देखना, जनता में यह ख्याल न फैलने पाये ।

२४. दूसरी बात उन्होंने आनन्द से कही कि कुसीनारा के मल्लों को सूचित कर दे कि तथागत उनके उपवन में ठहरे हैं और रात्रि के तीसरे पहर में परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे ।

२५. “ऐसा न हो कि बाद में मल्ल तुम्हें ही दोष दें, कहें कि हमारे अपने गांव में ही तथागत का परिनिर्वाण हुआ, हमें पता भी नहीं लगा । हम अन्त समय दर्शन भी नहीं कर पाये ।"

२६. उसके बाद अनिरुद्ध स्थविर तथा आनन्द स्थविर ने धाम्मिक चर्चा में ही शेष रात व्यतीत की ।

२७. जैसा पहले ही ज्ञात था, रात्रि के तीसरे पहर में ही तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये ।

२८. जब तथागत का परिनिर्वाण हो गया तो कुछ भिक्षु और आनन्द बाहें पसार-पसार कर रोने लगे, कुछ दुःखाभिभूत होकर जमीन पर भी गिर पड़े -- "तथागत अत्यन्त शीघ्र ही परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये । तथागत अत्यन्त शीघ्र आँखों से ओझल हो गये । यह भुवन- प्रदीप बहुत ही शीघ्र बुझ गया । "

२९. वैशाख- पूर्णिमा की रात्रि के तीसरे पहर में तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । उनका परिनिर्वाण ईसा पूर्व ४८३ (चार सौ त्रासी) में हुआ ।

३०. पाली में कहा है--
दिवा तपति आदिच्चो
रत्‍ती आभाति चन्दिमा
सन्नद्धों खत्तियों तपति
 झायी तपति ब्राहाणों
 अथ सब्बंग अहोराती
बुद्धों तपति तेजसा ।।

३१. 'सूर्य केवल दिन में ही चमकता है और चन्द्रमा केवल रात्रि में । क्षत्रिय तभी चमकता है, जिस समय वह शस्त्रधारी रहता है । ब्राह्मण तभी चमकता है जब वह ध्यान - रत रहता है । लेकिन बुद्ध अपने तेज से दिन और रात हर समय प्रकाशित रहते है ।' ३२. इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि बुद्ध भुवनप्रदीप थे-- समस्त लोक का प्रकाश स्तम्भ थे ।


५. मल्लो का विलाप, एक भिक्षु की प्रसन्नता

१. तथागत के आदेशानुसार आनन्द ने जाकर मल्लों को सुचित कर दिया ।

२. जब मल्लों ने यह सुना तो उन्हें दुःख हुआ, उनकी स्त्रियाँ दुःखी हुई, उनके तरुण दुःखी हुए तथा उनकी कुमारियाँ दुःखी हुई-- सभी के चित्त को बड़ा आघात पहुँचा ।

३. कुछ अपने बाल बिखेर कर रोने लगी, कुछ हाथों से छाती पीट कर रोने लगीं और कुछ जमीन पर लोटने लगीं ।

४. तब अपने कुमार, कुमारियों सहित मल्ल अपने उपवन में वहाँ गये जहाँ शाल-वृक्ष थे ताकि तथागत के अन्तिम दर्शन कर सके ।

५. तब आनन्द स्थविर ने सोचा "यदि कुसीनारा के मल्ल एक एक करके तथागत के मृत शरीर की वन्दना करेंगे, तो बडा विलम्ब होगा ।"

६. इसलिये उसने एक एक मण्डली से, एक एक परिवार से, एक साथ वन्दना कराने की व्यवस्था की । प्रत्येक परिवार एक एक साथ तथागत के चरणों की वन्दना कर विदा लेने लगा ।

७. उस समय बहुत से भिक्षुओ के साथ महास्थविर महाकाश्यप पावा से कुसीनगर की ओर ही बढे चले आ रहे थे ।

८. उसी समय एक नग्न परिव्राजक पावा की ओर चला जा रहा था ।

९. महास्थविर महाकाश्यप ने नग्न परिव्राजक को दूर से आते देखा । पास आने पर पूछा - "आप निश्चय से हमारे शास्ता से परिचित होंगे ।

१०. “हाँ! निश्चित रूप से । आज श्रमण गौतम का परिनिर्वाण हुए सातवां दिन है ।

११. उस समाचार सुनते ही भिक्षु- गण दुःखाभिभूत हो गये और रोने लगे ।

१२. उस समय एक वृद्ध- प्रव्रजित सुभद्र नाम का एक भिक्षु भी वहाँ था ।

१३. वह बोला - “मत रोओ, मत विलाप करो । हम अब श्रमण गौतम से मुक्त हुए । हमें उसके इस कहने से बड़ी हैरानी होती थी कि  'तुम यह कर सकते हो, और यह नहीं कर सकते' । अब हम जो चाहेंगे करेंगे और जो नहीं चाहेंगे, नहीं करेंगे । क्या यह अच्छा नहीं  है कि वह चल बसा है! रोना किस लिये ! विलाप किस लिये ! यह तो खुशी की बात है!”

१४. तथागत अपने भिक्षुओं को इतनी कठोरता पूर्वक नियमों के बन्धन में बांधने वाले थे ।



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