१. अपनी अन्तिम चारिका के लिये निकलने से पूर्व तथागत राजगृह के गृध्रकूट पर्वत पर ठहरे हुए थे ।
२. कुछ समय वहाँ रह चुकने के बाद तथागत ने कहा- आओ आनन्द ! अम्बलट्ठिका चले ।”
३. “जो आज्ञा”, आनन्द ने कहा । महान् भिक्षु संघ के साथ तथागत अम्बलट्ठिका के लिये चल दिये ।
४. कुछ समय अम्बलट्ठिका में ठहर कर तथागत नालन्दा चले गये ।
५. नालन्दा मे वह मगध की राजधानी पाटली ग्राम (पाटलीपुत्र) गये ।
६. पाटली - ग्राम से वह कोटि ग्राम गये और कोटि- ग्राम से नादिका ।
७. इनमें से हर जगह वे कुछ दिन रुके और वहाँ भिक्षु संघ अथवा उपासकों को प्रवचन दिये ।
८. नादिका से तथागत वैशाली गये ।
९. वैशाली निगण्ठना पुत्र (महावीर) का जन्म स्थान था । इसलिये जैन मत का एक गढ भी ।
१०. लेकिन तथागत शीघ्र ही उन लोगों को अपना अनुयायी बनाने में सफल हो गये ।
११. कहा जाता है कि अनावृष्टि के कारण वैशाली में एक ऐसा अकाल पड़ा कि बहुत से लोग मर गये ।
१२. वैशाली के लोगों ने इसकी अपनी सभा में चर्चा की ।
१३. बडे वाद-विवाद के बाद सभी ने तथागत को नगर में आमन्त्रित करने का निश्चय किया ।
१४. वैशाली के पुरोहित- पुत्र राजा बिम्बिसार के मित्र महाली नाम के लिच्छवी को, सिद्धार्थ को निमन्त्रण देने के लिये भेजा ।
१५. भगवान् बुद्ध ने निमन्त्रण स्वीकार किया और पांच सौ भिक्षुओं को साथ ले चल दिये। जैसे ही उन्होंने वज्जियों की सीमा में प्रवेश किया, बडी ज़ोर का तूफान आया, मूसलाधार वर्षा हुई और अकाल समाप्त हो गया ।
१६. वैशाली के लोगों ने जो तथागत का इतना स्वागत किया उसका मूल कारण यही था ।
१७. जब भगवान् बुद्ध ने वैशाली के लोगों के दिलों को जीत लिया था, तो उनके लिये यह स्वाभाविक था कि वे उनकी अधिक से अधिक आओ भगत करते ।
१८. तब वर्षावास (चातुर्मास) का समय आ गया । भगवान बुद्ध वर्षावास के लिये वेळुवन चले गये और उन्होंने भिक्षुओ को वैशाली मे ही वर्षावास करने को कहा ।
१९. वेळुवन (राजगृह) में वर्षावास समाप्त कर तथागत फिर वैशाली आये कि वैशाली से अपनी चारिका आरम्भ करें ।
२०. एक दिन तथागत ने पूर्वाहन में चीवर पहना तथा पात्र - चीवर ले भिक्षाटन के लिये वैशाली में प्रवेश किया । भिक्षाटन के अनन्तर, जब वे भिक्षा ग्रहण कर चुके तो उन्होंने एक गज-राज की तरह वैशाली की ओर देखा और आनन्द से कहा-- “आनन्द! यह अन्तिम बार है कि तथागत वैशाली को देख रहे है ।
२१. यह कहते हुए उन्होने वैशाली के लोगों से विदा ली।
२२. विदा होते समय तथागत ने वैशाली के लोगो को अपना भिक्षा पात्र 'स्मृति' के रुप में दे दिया ।
२३. यह तथागत की वैशाली की अन्तिम यात्रा थी । इसके बाद तथागत वैशाली नहीं ही गये ।
१. वैशाली से तथागत भण्ड ग्राम गये ।
२. भण्ड ग्राम से हट्डी नगर और तब भोग-नगर ।
३. और भोग- नगर से पावा ।
४. पावा मे भगवान बुद्ध चुन्द नामक सुनार के आम्रवन में ठहरे।
५. चुन्द ने सुना कि भगवान् बुद्ध पावा आये है और उसके आम्रवन में ठहरे है ।
६. चुन्द आम्रवन पहुँचा और जाकर तथागत के समीप बैठ गया । तथागत ने उसे 'धम्मोपदेश' दिया ।
७. इससे प्रसन्न होकर चुन्द ने भगवान बुद्ध को निमंत्रित किया-- “भिक्षु संघ सहित भगवान् बुद्ध कल मेरे घर पर भौजन करने की कृपा करें।"
८. भगवान् बुद्ध ने 'मौन' द्वारा स्वीकृति दी । यह देख कि उसका निमंत्रण स्वीकृत हुआ, चुन्द वहाँ से चला गया ।
९. दूसरे दिन चुन्द ने अपने घर पर खीर आदि स्वादिष्ट भोजनों के साथ 'सूकरमद्दव भी तैयार कराया । समय होने पर उसने सूचना भिजवाई-- 'भगवान्! समय हो गया है। भोजन तैयार है ।'
१०. भगवान् बुद्ध ने चीवर धारण किया, पात्र हाथ में लिया और चुन्द के निवास स्थान पर पहुंचे । वहाँ उन्होंने चुन्द का तैयार किया हुआ भोजन ग्रहण किया ।
११. भोजनानन्तर भी भगवान् बुद्ध ने चुन्द को धम्मोपदेश दिया और तब वहाँ से चले गये ।
१२. चुन्द द्वारा दिया गया भोजन तथागत को अनुकूल नही पडा । उन्हें रोग ने आ घेरा । रक्त स्त्राव होने लगा और साथ मर्मान्तक वेदना ।
१३. लेकिन तथागत ने उसे 'स्मृति- सम्प्रजन्य' के साथ जैसे तैसे सहन कर लिया ।
१४. आम्रवन लौटकर, कुछ स्वस्थ होने पर भगवान् बुद्ध ने आनन्द को कहा - 'आओं आनन्द ! कुसीनारा चलें ।' भिक्षु संघ सहित भगवान् बुद्ध कुसीनारा पधारे ।
१. भगवान् बुद्ध थोडी दूर ही चले थे कि उन्हे विश्राम की आवश्यकता अनुभव हुई ।
२. रास्ते में ही वे सड़क से एक ओर हट कर एक वृक्ष की छाया में जा बैठे और आनन्द से कहा- “आनन्द ! संघाटी की तह लगाकर बिछा दो । थका हूँ. कुछ देर विश्राम करागा ।”
३. "बहुत अच्छा" कह आनन्द ने तथागत की आज्ञा स्वीकार की और चीवर को चौहरा कर के बिछा दिया ।
४. तथागत उस बिछे आसन पर विराजमान हुए ।
५. वहाँ बैठकर तथागत ने आनन्द को सम्बोधित किया और कहा “आनन्द ! कुछ पानी ला । प्यासा हूँ । पानी पीऊंगा ।”
६. आनन्द का उत्तर था-- “ककुत्थ नदी समीप ही है । इसका जल साफ और स्वच्छ है । पानी निर्मल है । आसानी से नीचे उतरा जा सकता है । वहाँ भगवान बुद्ध चलें, पानी भी पी ले और हाथ मुँह भी धो लें। इस जलाशय का जल साफ नही, गन्दला है ।”
७. तथागत का शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि वे वहाँ तक चल न सकते थे । वह पास के जलाशय के पानी से ही संतुष्ट थे ।
८. आनन्द पानी लाये, और तथागत ने पिया ।
९. कुछ देर विश्राम करके भिक्षु संघ सहित तथागत ककुत्थ नदी पर पहुँचे । वहाँ पहुँच कर वे पानी में उतरे तथा स्नान किया और जल-पान किया । फिर दूसरी ओर बाहर आकर वे आम्रवन की ओर बढे ।
१०. वहाँ पहुंच कर उन्होंने आनन्द को फिर आज्ञा दी कि उनका चीवर बिछा दे ! कहा-- “थका हूँ, लेहूँगा।” आज्ञानुसार चीवर बिछा दिया गया और तथागत ने उस पर विश्राम किया ।
११. थोडी देर विश्राम कर चुके तो तथागत उठे और आनन्द से कहा-- “आनन्द ! हम मल्लों के शाल-वन में चलें । यह हिरण्यवती के दूसरे किनारे पर कुसीनारा का उपवन है।"
१२. वहाँ पहुँच कर तथागत ने आनन्द को फिर कहा-- “आनन्द ! इन जोडे शाल वृक्षों के बीच मेरी संघाटी बिछा दो । मैं थका हूँ और विश्राम करुंगा।"
१३. आनन्द ने संघाटी बिछा दी और तथागत ने अपने आपको उस पर लिटा दिया ।